भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष में प्रौद्योगिकी का प्रयोग



                                                  
भ्रष्टाचार का शाब्दिक अर्थ है वह आचरण जो किसी भी प्रकार से अनैतिक और अनुचित हो । उदाहरण के लिए यदि किसी शासकीय अधिकारी को निर्णय लेने का अधिकार मिलता है तो वह इस विशेषाधिकार का प्रयोग यदि तथ्यों के आधार पर करने की बजाय धन पर अथवा किसी अन्य आधार पर करने लगे तो यह भ्रष्टाचार कहलाएगा ।
किसी समाज में भ्रष्टाचार का फलना फूलना यह संकेत देता है कि वहाँ नैतिकता या सिद्धांत नाम की कोई चीज़ नहीं बची । वहाँ सिर्फ पैसे की ही महत्ता रह गई है। पैसे से नैतिकता, इज्जत, स्वाभिमान, चरित्र- सब कुछ खरीदा जा सकता है। पैसे देकर अधिकारियों से अपने अनुकूल फैसले करवाना, न्यायालयों मे चल रहे मुकदमों के फैसले अपने हक में करा लेना, बड़े बड़े टेंडर हथिया लेना, प्रश्नपत्र लीक करा देना, अयोग्य पात्र को  नौकरी दिलवा देना, किसी निर्दोष की हत्या या अपहरण करा देना - भ्रष्टाचार के ऐसे कितने ही उदाहरण हम आए रोज समाचारों में पढ़ते हैं । ये उदाहरण किसी भी समाज को भ्रष्ट, सड़ा-गला व पिछड़ा सिद्ध करने के लिए काफी हैं।
विश्व के सभी देशों के सामने भ्रष्टाचार आज सबसे बड़ी चुनौती बन गया है। भ्रष्टाचार का यह संक्रामक रोग बहुत तेजी से फैलता जा रहा है। यदि समय रहते इसका उपचार नहीं किया गया तो यह असाध्य रोग सम्पूर्ण मानवता को अपनी चपेट में ले लेगा। 'ट्रान्सपेरेन्सी इंटरनेशनल' नामक संस्था नें विश्व के सौ भ्रष्ट देशों की एक सूची तैयार की है, जिसमें अमरीका 19वें,   चीन 79वें तथा भारत 84वें स्थान पर है । अर्थात दुनियाँ में हमसे भी अधिक भ्रष्ट केवल सोलह देश हैं।
मानव समाज में भ्रष्टाचार कब से आया- कहना मुश्किल है, किन्तु इतना निश्चित है कि जब से समाज शासक और शासित नामक दो वर्गों में विभाजित हुआ, तभी से भ्रष्टाचार भी किसी न किसी रूप में अस्तित्व में आया ।
भारत के संदर्भ में कहें तो भ्रष्टाचार का सबसे वीभत्स रूप हमें ब्रिटिश शासनकाल से दिखाई देने लगता है। ब्रिटिश शासक विदेशी थे । उनसे अच्छे शासन की उम्मीद करना बेकार था। उनका उद्देश्य पूर्णत: व्यावसायिक था । पराधीन देश की संपत्ति को लूट कर अपने देश में ले जाना ही उनका एक मात्र ध्येय था । तत्कालीन कवि भारतेन्दु हरिश्चंद्र जी की पंक्तियों में यह पीड़ा इस प्रकार व्यक्त हुई है-
अंग्रेज़ राज सुख साज सजै सब भारी ।
पै धन बिदेस चलि जात इहै अति ख़्वारी ॥ 
लंबे संघर्ष और बलिदानों के बाद जब देश आजाद हुआ तो उम्मीद थी कि भारत एक भ्रष्टाचार मुक्त देश बनेगा, क्योंकि विदेशी लुटेरे शासक अब चले गए हैं, किन्तु दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हुआ। भ्रष्टाचार उसी तरह फलता फूलता रहा। बल्कि साल दर साल भ्रष्टाचार खत्म होने के बजाय बढ़ता ही चला गया । निम्नलिखित घोटाले इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि आजादी के बाद पिछले छह दशकों में हमारे देश में लगभग 200 लाख करोड़ रुपए भ्रष्टाचार के रूप में लूट कर विदेशी बैंकों में जमा कराए गए। इसकी तुलना में अंग्रेजों का भ्रष्टाचार कहीं नहीं ठहरता क्योंकि वे दो सौ वर्षों के अपने शासन काल में केवल एक लाख करोड़ रुपए ही लूट कर ले जा सके थे।   ये घोटाले इस प्रकार हैं - बोफोर्स घोटाला(64 करोड़ रुपये), यूरिया घोटाला (133 करोड़ रुपये), चारा घोटाला (950 करोड़ रुपये), शेयर बाजार घोटाला(4000 करोड़ रुपये), सत्यम घोटाला(7000 करोड़ रुपये), स्टैंप पेपर घोटाला(43 हजार करोड़ रुपये), कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला (70 हजार करोड़ रुपये), 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला(1 लाख 67 हजार करोड़ रुपये), अनाज घोटाला( 2 लाख करोड़ रुपए अनुमानित), कोयला खदान आवंटन घोटाला (192 लाख करोड़ रुपये)।
यद्यपि भ्रष्टाचार आज अनेक रूपों में समाज में व्याप्त है, लेकिन हम यहाँ विशेष रूप से कारपोरेट जगत के भ्रष्टाचार पर चर्चा करेंगे।  
यह एक कटु सत्य है कि विश्व की अधिकांश सरकारें चाहे वे लोकतान्त्रिक प्रणाली से चुनी गई हों या किसी अन्य तरीके से- वे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों की अनदेखी करके ज्यादा दिन नहीं चल सकतीं । उन सरकारों के सामने सीमित विकल्प होते हैं- या तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पादों की बिक्री के लिए अपने देश के दरवाजे खोलो अर्थात उदारवादी बनो, या बुनियादी ढाँचागत निर्माण कार्यों में उनकी बेहद महंगी पूंजी का प्रयोग करो, वरना गद्दी छोड़ो। भारत भी इससे अछूता नहीं है। कौन नहीं जानता कि शत प्रतिशत विदेशी निवेश से देश की पूंजी मुनाफे के रूप में बाहर चली जाएगी ! देश का गरीब तबका बजाय अमीर होने के और भी दरिद्र होता जाएगा, लेकिन तर्क इसके ठीक विपरीत दिये जाते हैं। जब भारत सोने की चिड़िया कहलाता था, तब कौन सा विदेशी निवेश यहाँ आया था ? किन्तु दलगत राजनीति में दलों के गठबंधन अपनी सरकार बनाने की महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए देश की अर्थव्यवस्था को दांव पर लगा देती है। क्या यह कारपोरेट भ्रष्टाचार का ही एक आयाम नहीं है ? क्या राजनीति आम आदमी के हितों को ताक पर रख कर कुछ कंपनी समूहों के हितों की रक्षक बन कर नहीं रह गई हैं ?  
राजनीति और कारोबार के बीच की विभाजन रेखा आज निरर्थक सी होती जा रही है. यह कहना  मुश्किल होता जा रहा है कि कोई सरकार कहाँ तक जनाकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करती है और कहाँ से वह पूंजीपतियों के हितों की रक्षक बन जाती है। जिस संसद को लोकतंत्र का मंदिर कहा जाता है- उसमें पहुँचने वाले अधिकांश सांसद करोड़पति हैं। उनके अपने व्यवसाय हैं। जिनका कोई व्यवसाय नहीं है, उन्होने राजनीति को ही व्यवसाय बना लिया है। कारपोरेट जगत के हितों के लिए संसद में बैठ कर लौबींग करना ही उनका मुख्य कर्तव्य होता है। इसके लिए बाक़ायदा सुविधा शुल्क दिये जाने के अनेक प्रमाण समय समय पर समाचारों में उछलते रहते हैं।
एक शेर इस प्रसंग में याद आता है –
जिनपे तकिया था वही पत्ते हवा देने लगे।
अर्थात जिन जन प्रतिनिधियों को जनता ने अपनी समस्याओं के समाधान के लिए संसद भेजा था, वे वहाँ जाकर कारपोरेटों के हितों के पहरेदार बन गए। उसी आम आदमी के दुश्मन बन गए जिसके वोटों से जीत कर संसद तक पहुँचे थे ! जाहिर सी बात है कि जब हम किसी वर्ग-विशेष के हितों को ध्यान में रखते हुए  नीतियाँ बनाते हैं तो किसी अन्य वर्ग विशेष के प्रति अन्याय कर रहे होते हैं। कारपोरेट जगत को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरीके से लाभ पहुँचाने का यह प्रयास क्या भ्रष्टाचार नहीं है ?
नीचे कुछ तथ्य दिये जा रहे हैं, जो यह सोचने पर विवश करते हैं कि क्या वास्तव में हम कारपोरेट जगत में फैले भ्रष्टाचार को समाप्त करना चाहते हैं :

1.            किंगफिशर एयरलाइंस और उसके मालिक विजय माल्या के मनमाने-बेतुके फैसलों और अश्लील फिजूलखर्ची के बावजूद सरकार आँखें मूंदें रही । सरकारी बैंक हजारों करोड़ का कर्ज माल्या को देते रहे और एयरलाइन डूबती रही? क्या यह कारपोरेट-राजनेता-अफसर गठजोड़ की मिलीभगत के बिना संभव है?
2.              नितिन गडकरी, नवीन जिंदल, सुबोधकांत सहाय, कमलनाथ, सिब्बल आदि कितने ही  व्यवसायी, या प्रोफेशनल आज जनता के प्रतिनिधि बन कर संसद में पहुंचे हुए हैं। क्या राजनीति और कारपोरेट का यह खतरनाक घालमेल जनता की उम्मीदें पूरी कर पाएगा ? .
3.            कानूनी तरीके से जिस तरह से पूरी अर्थव्यवस्था देशी-विदेशी कार्पोरेट्स के
      हवाले की जा रही है, उन्हें मनमाना मुनाफा कमाने के लिए हर तरह की छूट और  
      रियायतें दी जा रही हैं और जनहित को किनारे करके बड़ी पूंजी के हितों के अनुकूल
      नीतियां बनाई जा रही हैं, क्या इस नीतिगत भ्रष्टाचार को अनदेखा किया जाना चाहिए ?
4.   भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के नेताओं की आवाज़ सार्वजनिक संसाधनों खासकर जल-जंगल-
      जमीन तथा खनिजों की लूट पर धीमी क्यों पड़ जाती है?


     दुर्भाग्य की बात यह है कि जब भ्रष्टाचार का कोई बड़ा मामला सामने आ जाता है तो बलि के बकरे की तलाश शुरू हो जाती है । मामले की ज़िम्मेदारी किसी व्यक्ति-विशेष के मत्थे मढ़ कर भ्रष्ट तंत्र को बेनकाब होने से बचाने की कोशिश होने लगती है।
सारा जोर उसी नेता या अधिकारी को फाँसने और सजा दिलवाने पर केन्द्रित हो जाता है। मीडिया रात- दिन सियारों की तरह एक ही रट लगाने लगता है कि कितने बजे वह नेता कहाँ था, क्या कर रहा था, किससे मिल रहा था, कब तक पकड़ में आ जाएगा वगैरह वगैरह। ऐसा वातावरण बना दिया जाता है कि मानो उस टारगेट के पकड़े जाते ही समाज से भ्रष्टाचार हमेशा के लिए मिट जाएगा। लेकिन भ्रष्टाचारियों को पकड़ लेने से भ्रष्टाचार की चुनौती क्या सचमुच खत्म हो जाएगी ? सिर काट लेने मात्र से रावण नहीं मरेगा। रावण की नाभि में जो जीवनी शक्ति छिपी है, उसे नष्ट करना होगा । एक भ्रष्ट मरेगा तो परिस्थितियाँ दूसरे भ्रष्ट को जन्म दे देंगी।
आज उदारवाद के नाम पर विदेशी कारपोरेट के लिए दरवाजे खोले जा रहे हैं, कि आओ, और लूट लो। यहाँ काफी सार्वजनिक संसाधन हैं, तेल, कोयला, जंगल, खनिज धातुओं आदि के अलावा यहाँ हवाई यात्रा, रेल, बैंकिंग, शिक्षा, उपभोक्ता सामाग्री बीमा आदि के क्षेत्र में भी लूट की काफी संभावनाएं हैं। क्या आज भीतर से पूरी तरह सड़ चुकी मौजूदा पूंजीवादी आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था और सार्वजनिक संसाधनों की कारपोरेट लूट को बढ़ानेवाली नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को बदलने की जरूरत नहीं है ?  
आज स्थिति यह हो गई है कि कार्पोरेट्स और उनकी पूंजी की बढ़ती ताकत के आगे पूरी राजनीतिक व्यवस्था ने जैसे आत्म समर्पण कर दिया है। सरकारें चाहे जिस रंग और झंडे की हों, वे कारपोरेटों के इशारों पर चल रही हैं. यहाँ तक कि अपने हितों के मुताबिक महत्वपूर्ण आर्थिक मंत्रालयों में मंत्री बनवाने और अनुकूल अफसरों की तैनाती करवाने से लेकर नीति-निर्माण की प्रक्रिया तक में कारपोरेट जगत की सीधी घुसपैठ हो चुकी है । ऐसे अनेक उदाहरण पिछले कई वर्षों से हम देखते आ रहे हैं। जब कोई मंत्री किसी कारपोरेट घराने की इच्छा पूरी नहीं कर पाता तो मंत्रिमंडल के विस्तार के नाम पर उसका मंत्रालय बदल दिया जाता है। फिर उसकी जगह लेने वाला मंत्री कारपोरेट की राह में आ रही अड़चनें तत्काल प्रभाव से दूर कर देता है । ऐसा करके वह अपनी योग्यता तथा हाई कमान के प्रति वफ़ादारी का प्रमाण तत्काल प्रस्तुत भी करताहै।   

      साफ़ है कि जनतंत्र अब कारपोरेट नियंत्रित धनतंत्र में बदलता जा रहा है. क्या अब भी दोहराने की जरूरत रह जाती है कि भ्रष्टाचार और घोटालों की जड़ें कहाँ हैं और उसके लिए कौन जिम्मेदार हैं ? वस्तुत: नेता तो भ्रष्ट तंत्र की एक कड़ी मात्र है। असली जिम्मेदारी तो उन नीतियों की है, जो कारपोरेट जगत के आर्थिक हितों को सुरक्षित रखते हुए आम आदमी के हितों के नाम पर बनाई जाती रही  हैं। हाथी के दाँत खाने के और, दिखाने के और- वाली कहावत यहाँ पूरी तरह चरितार्थ होती है । इस चालाकीपूर्ण सत्ता-कारपोरेट गठजोड़ को कैसे तोड़ा जाय- यह भ्रष्टाचार मुक्त समाज के निर्माण की पहली जरूरत है ।

    नीतिगत भ्रष्टाचार को रोकना तो केवल नीति निर्माताओं के अधिकार क्षेत्र का विषय है, किन्तु नीतियों के कार्यान्वयन के दौरान होने वाले भ्रष्टाचार को रोकने के लिए नौकरशाही अहम भूमिका निभा सकती है निम्न लिखित कुछ सुझाव इस कार्य में सहायक हो सकते हैं :
  • धन का लेन–देन नकदी की अपेक्षा  इलेक्ट्रॉनिक प्रणाली से किया जाय । यह भी सुनिश्चित किया जाए कि बैंक खाते से एक बार में दस हजार तथा एक माह में पचास हजार से अधिक धन न निकाला जा सके ।
  • बड़े नोटों (1000, 500 आदि) का प्रचालन बंद किया जाय.
  • जनता के प्रमुख कार्यों को पूरा करने एवं शिकायतों पर कार्यवाही करने के लिए समय सीमा निर्धारित हो. लोकसेवकों द्वारा इसे पूरा न करने पर उनके लिए सजा का स्पष्ट प्रावधान हो ।
          विशेषाधिकार और विवेकाधिकार कम किये जाँय या हटा दिए जांय. इसके स्थान पर जाँच बिन्दु आधारित प्रक्रिया अपनाई जाए ।
          सभी 'लोकसेवक' (मंत्री, सांसद, विधायक, ब्यूरोक्रेट, अधिकारी, कर्मचारी) अपनी संपत्ति की हर वर्ष घोषणा करें.
          भ्रष्टाचार करने वालों के लिए कठोर दंड का प्रावधान किया जाय. भ्रष्टाचार की कमाई को सरकार द्वारा जब्त करने का प्रावधान हो.
·         ठेका देने में ई-टेंडरिंग की प्रक्रिया अपनाई जाए। 
·         कार्मिकों की लेटलतीफी तथा अनुशासनहीनता को दूर करने तथा उनके कार्यसमय का पूरा पूरा लाभ उठाने के लिए उनकी शत प्रतिशत उपस्थिति सुनिश्चित की जाए। यह कार्य बायोमीट्रिक प्रणाली से किया जाय। देर से आने वाले कार्मिकों का समय आधार कार्ड से जोड़ा जाए ताकि वेतन में कटौती की जा सके ।
·         अनावश्यक यात्राएं रोकने के लिए वीडियो कान्फ्रेंसिंग का अधिक से अधिक प्रयोग हो।

·         प्रत्येक कार्य के लिए न केवल जिम्मेदारी तय की जाए, बल्कि समय सीमा भी प्रत्येक कार्य के हिसाब से अलग अलग तय की जाए। निश्चित समय में कार्य पूरा न किए जाने पर वेतन में कटौती का प्रावधान हो। 
·         कार्यालय के सभी कंप्यूटर एसएपी या किसी अन्य प्लेटफार्म पर आधारित हों ताकि उनका इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड रखा जा सके।
·         कार्यालय में कागजविहीन संस्कृति अपनाने पर ज़ोर दिया जाए।
ऐसे ही अन्य अनेक कदम उठाने से निश्चय ही सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। कार्य प्रणाली में न केवल पारदर्शिता आएगी, बल्कि जवाबदेही व समय सीमा सुनिश्चित हो जाने से कार्यकुशलता भी बढ़ेगी।
और धीरे धीरे ही सही, हम एक स्वस्थ, जागरूक, प्रबुद्ध, मूल्य आधारित व भ्रष्टाचार विहीन समाज की दिशा में आगे बढ़ सकेंगे ।
·          

Share on Google Plus

डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
    Blogger Comment
    Facebook Comment

0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें