वुहान के पशु बाज़ार और इन्सानियत

 जहां से यह विषाणु पूरे भूमंडल पर फैला  चीन के उस   वुहान  शहर की तस्वीरें  या उसके पशु बाजारों के विवरण पढ़ कर अपने पौराणिक साहित्य  मे वर्णित राक्षसों  की याद आ गई . इक्कीसवीं शताब्दी का पूर्ण विकसित इंसान रेस्तरां मे  बैठ कर जिंदा ओक्टोपस, चमगादड़, सांंप, मेंढक, बंदर , कुत्ते , बिल्ली और न जाने क्या क्या   खा रहा है .
जाहिर है कि इन बेकसूर और बेबस प्राणियों को भूख के कारण तो नही खाया जा रहा होगा. चीन मे आज अनाज की इतनी कमी नही है कि भूख मिटाने के लिए इन जानवरों को खाने की नौबत आ जाए.
समृद्धि जब चरम पर पहुंच जाती है तो भूख गौण हो जाती है . स्वाद प्रमुख हो जाता है.  प्राचीन रोमन साम्राज्य भी उत्कर्ष की ऐसी ही पराकाष्ठा पर पहुंच गया था. तब रोम के आभिजात्य वर्ग के लोग जिंदा सुअरों को कैम्प फायर मे भूनते और भुनते हुए उस तड़प रहे प्राणी के मांस को चाकुओं से काट काट कर खाते. फिर थोड़ी देर बाद वमन कर पेट को खाली करके एक बार फिर किसी जिंदा जानवर को लपटों मे झोंक कर   उसे भी खा जाते.
आज भी इन जिंदा जानवरों को भूख मिटाने के लिए नहीं बल्कि जीभ को नए नए स्वाद प्रदान करने के लिए खाया जा रहा है .
इन वेट मार्केट्स के खिलाफ अमेरिका या अन्य पश्चिमी देश आवाज़ उठाने लगे हैं लेकिन सिर्फ इस डर से  कि कोरोना वायरस जैसे विषाणु इन अप्राकृतिक भोजन आदतो के कारण ही न पैदा हो रहे हों.

प्रकृति ने मनुष्य को शाकाहारी प्राणी बनाया था लेकिन आज मनुष्य ने मांसाहार के मामले मे हिंसक जानवरों को भी कोसों पीछे छोड़ दिया है .
इंसान से बना था इंसानियत शब्द. मानव से से बना था मानवता शब्द. लेकिन आज इंसान मे इंसानियत नही रही. मानव मे मानवता नही दिखाई देती.
धरती पर क्रूर समझे जाने वाले जानवर शेर की आंखों मे झांक कर देखिए. इंसानी आंखों जितनी  भयंकर क्रूरता  उनमे नही दिखाई पड़ेगी.

बौद्ध भिक्षुओं  की पावन व अहिंसक भूमि को भौतिकवाद ने धरती के क्रूरतम जानवरों वाली भूमि की कतार मे सबसे आगे खड़ा कर दिया है . 
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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.

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