पशु हत्या –मानव की बौद्धिक मक्कारी




सभ्यता के आरम्भ से ही मानव किसी न किसी रूप मे पशुओं की हत्या करता आ रहा है ।
पेड़ों से उतर कर जब वानर प्रजाति  का एक सदस्य  वन मानुष  बना तो फल और फूल एक तो पहुंच से दूर हो गए , दूसरे माइट इज़ राइट वाले सिद्धांत के अनुसार जो शारीरिक रूप से ताकतवर  थे वे झपट कर पेड़ों से या झाड़ियों से भर पेट फल फूल खा जाते. कमज़ोर भूखे रह जाते. दूसरी तरफ  फल फूल भी तो बढ़ती आबादी की भूख नहीं मिटा पा रहे थे .  
भोजन की इस विकराल समस्या का एक ही समाधान वन मानुष को सूझा कि क्यों न अपने आस पास विचर रहे हिरण आदि छोटे मोटे जानवरों को मार कर भूख मिटाई जाए . प्रागैतिहासिक काल के आदि मानव द्वारा बनाए गए पत्थरों के हथियार बताते हैं कि पशुओं को मारने की शुरूआत कैसे की गई थी.
कभी जंगलों मे आग लगी और कई जानवर जल भुन गए. उन जले जानवरों को भूखे आदि मानव ने खाया तो बड़ा स्वादिष्ट लगा होगा .खास कर कच्चे मांस की तुलना मे. बस तभी से गोश्त को भून कर खाना आदि मानव ने सीख लिया. आग का महत्व भी उसकी समझ मे आ गया.
धीरे धीरे जानवरों की संख्या घटने लगी. तो आदि मानव ने पशुओं  को पालना शुरू किया होगा. ताकि शिकार के पीछे सारा सारा दिन भटकना न पड़े. बंधे हुए पशु को जब भूख लगी तभी काट कर खा पका लिया. साथ ही  जमीन को खोदने और उस पर बीज बोने के लिए भी पशु की ताकत का इस्तेमाल चालाक आदि मानव ने कर लिया. गोश्त के साथ साथ अब अनाज भी खाया जाने लगा.  अब अपनी जमीन थी, अपने जानवर थे तो अपना घर भी बनाना पड़ा, ताकि गर्मी सरदी और बारिश मे भी आराम से रहा जा सके.
इस तरह आदि मानव ने ग्राम सभ्यता की आधारशिला रख दी और आदि मानव से मानव हो गया .
पशु शक्ति का प्रयोग बाद मे खेती के दूसरे कामो मे भी होने लगा जैसे बैलगाड़ी मे, रहट में अनाज से बीज अलग करने मे आदि. गोश्त के साथ साथ अब पशुओं से दूध भी मिलने लगा.
इस तरह भोजन के हिसाब से दो समूह बन गए . एक वे जो पशु का गोश्त खाते. दूसरे वे जो  पशु का दूध पीते. यानी मांसाहारी (नॉन वेजीटेरियन) तथा शाकाहारी (वेजीटेरियन) .
पशुओं के शोषण की वह परंपरा सहस्त्राब्दियों तक चलती रही. आज तक भी चली आ रही है.
पशु हत्या का अनवरत सिलसिला आज भी उसी तरह चला आ रहा है जैसे :
1.      धर्म के नाम पर की जाने वाली हत्या जिसे कहीं बलि, कहीं कुर्बानी तथा कहीं देवता की भेंट कहा जाता है.
2.      पशु को खाने की चीज़ समझ कर की जाने वाली हत्या जिसे मटन, झटका, हलाल, चिकन, फिश , पॉर्क, हंटिंग या फिर शिकार आदि कई नामों से जाना जाता है.
3.      नई नई दवाइयों के परीक्षण के दौरान होने वाली पशु हत्या जिसे मानवता  के कल्याण के नाम पर किया जाता है . स्कूल कालेजों मे तथा मेडीकल कॉलेजों की प्रयोग शालाओं मे सिखाने के नाम पर की जाने वाली हत्या .
4.      मनोरंजन के लिए की जाने वाली पशु हत्या जैसे ऊंटों की दौड़,बैलों की दौड़, मुर्गे मेंढे और सांप नेवलों की लड़ाई .
5.      पशुओं को पकड़ कर उन्हे मनोरंजन के तौर पर घुमाने वाले मदारी भी हत्यारे ही हैं. वे पशुओं के पोषण  या थकान का जरा भी ध्यान नही रखते. अक्सर भालुओं की नाक मे छेद कर लोहे की जंजीर बांधी जाती है. कलंदर जब भालू का करतब दिखाता है तब इसी जंजीर को बेरहमी से खींचता है. बेचारा बेबस पशु पीड़ा से बचने के लिए कलंदर के इशारों पर इधर उधर घूमने लगता है. भालू की नाक कच्ची होती है और जल्द ही फट जाती है. फिर कलंदर नाक के अन्य भाग पर इसी तरह छेद करके जंजीर डालता है. मदारियों के पाले हुए सांप नेवले या बंदर बंदरिया इतने कमजोर होते हैं कि उनके तमाशों से मनोरंजन होना तो दूर, उनकी मरणासन्न हालत पर रोना जरूर आता है. अक्सर ये जानवर मदारी की मार खाकर और भूखे प्यासे रह कर जल्द ही मर जाते हैं.
6.      पशुओं के निजी इस्तेमाल के दौरान होने वाली हत्या जैसे झोटा बुग्गी पर झोटे की सामर्थ्य से कई गुना ज़्यादा वजन लाद देना. उस वजन को जब जानवर पूरी ताकत लगा कर भी किसी तरह खींचने लगता है तो जालिम मालिक धीमे रफ्तार से खीझ कर लोहे की पैनी कील लगे चाबुक को उसकी देह पर   घोंपता है. बेबस पशु कराह कर लम्बी जीभ बाहर निकाल देता है. बैल गाड़ी मे भी बैल जब बेतहाशा लदा वजन नही खींच पाते तो बैल गाड़ी वाला उन बैलों की नंगी पीठ पर बेरहमी से डंदे या चाबुक चलाता है. झोटा बुग्गी मे भारी  बोझ से दबे झोटे को दौड़ाने  के लिए बेतहाशा कील चुभा चुभा कर झोटे को दौड़ाना, गधे पर जरूरत से कई गुना ज्यादा वजन लादना- इन सभी अमानवीय जुल्मों को जब पशु सहन नहीं कर पाता तो आखिर दम तोड़ देता है. यह पशु की मौत नहीं बल्कि हत्या है.
7.      अपनी खुशी के लिए स्वच्छंद पशु पक्षियों तोते मैंना  बुलबुल खरगोश आदि को पिंजरों मे बंद कर पालना. उनके दाने पानी का सही इंतजाम न कर पाना और अंत मे उन कैद पशु पक्षियों का शरीर छोड़ देना भी हत्या है.
8.      खाने के लिए पाले गए मुर्गे, बत्तख कबूतर, बटेर मछली आदि भी पशुओं की हत्या का निर्मम उदाहरण है.
9.      और अंत मे पशुओं को बेवजह मार कर उनके आर्तनाद  से आनंदित होने की अमानवीय आदत. कश्मीर के इतिहास पर कल्हण ने राजतरंगिणी मे मिहिर कुल नामक निर्दयी राजा का उल्लेख किया है. उस अत्यंत क्रूर शासक को मरते हुए हाथी की चिंघाड़ बहुत पसंद थी. इसके लिए वह हाथियों को ऊंची ऊंची पहाड़ियों से सैकड़ों फीट गहरी खाइयों मे फिंकवाता था. उस समय गिरते हुए वे हाथी अत्यंत करुण आवाज़ मे चिंघाड़ने लगते. जिसे सुन कर मिहिरकुल  आनंदित हो उठता. ऐसे निर्दयी लोग आज भी मौजूद हैं जो पशु पक्षियों को सिर्फ मनोरंजन के लिए तड़पा तड़पा कर मार डालते हैं.   
ये सारे उदाहरण बताते हैं कि मानव ने होश संभालने के बाद से अब तक पशु समाज का भरपूर शोषण किया है . आदि मानव के जंगली वानर प्रजाति से अत्यंत विकसित विज्ञान व प्रौद्योगिकी संपन्न मानव समाज बनने की यात्रा मे सबसे ज्यादा योगदान पशु का है. यह मानने मे किसी को भी आपत्ति नही होगी कि मानव  जाति के विकास का पहिया पशु पक्षियों की लाशों के ऊपर से होकर ही गुजरा है .
वैदिक सभ्यता के संदर्भ ग्रंथ चार वेद हैं. वेदों से ही पशु बलि के प्रमाण मिलने लगते हैं. उत्तर वैदिक काल मे तो पशु बलि धार्मिक कार्य कलापों मे अनिवार्य हो गई थी. एक दो नही सैकड़ों पशुओं की बलि एक साथ दी जाती थी. अश्वमेध यज्ञ मे अश्व की बलि दी जाती थी. यहां तक कि नरमेध यज्ञ भी होने लगे थे जिनमे मनुष्यों की बलि भी दी जाने लगी.
आज भी कई मंदिरों मे अष्ट बलि देने की प्रथा है. जैसे कामाख्या मंदिर गुवाहाटी तथा उत्तराखंड के कुछ मंदिर.
आदि गुरु शंकराचार्य भी पशु बलि के खिलाफ थे. इस कुप्रथा के विरोध मे उन्होने जो तर्क दिये उनका उत्तर तत्कालीन बुद्धिजीवी समाज न दे सका. एक बार बदरिकाश्रम जाते हुए उन्होंने कुछ ऋषि मुनियों को मिट्टी के पशुओं की बलि देते देखा . पूछने पर ऋषियों ने बताया – आपके तर्कों को स्वीकार करते हुए हमने बलि प्रथा तो बंद कर दी किंतु जीवित पशुओं के स्थान पर हम मिट्टी के पशुओं की बलि तो दे ही सकते हैं. ताकि बलि प्रथा भी समाप्त न हो और पशु हत्या भी न हो.
इस पर शंकराचार्य जी ने कहा – जब तक मन मे बलि देने की भावना है तब तक बलि प्रथा समाप्त नहीं हो सकती.  अत: मिट्टी के पशु बना कर बलि देना भी जीवित पशु की बलि से कम नहीं है.

वैदिक सभ्यता की इन अमानवीय परंपराओं के विरोध स्वरूप बौद्ध तथा जैन धर्मों का आविर्भाव हुआ. बलिदान स्थल पर आर्त नाद करते करुण चीत्कार करते पशुओं की जगह प्राचीन भारत मे अब अहिंसा परमो धर्म: का उद्घोष सुनाई देने लगा.

वैदिक सभ्यता के समान ही इस्लाम धर्म मे भी पशु हत्या ईद उल जुहा या बकरीद के रूप मे आज तक  कायम है.  बेटे की कुरबानी देने की जगह बेकसूर दुम्बे या बकरे की कुरबानी दी जाती है. कुर्बानी मे हलाल करने के मेरे विरोध पर मेरे मुस्लिम साथी ने बताया कि कुर्बानी देते हुए सबसे पहले हम लोग पशु पक्षियों का विंड पाइप काट देते हैं जिससे वह तत्काल बेहोश हो जाता है और हलाल की मर्मांतक पीड़ा से बच जाता है. इस तर्क की सच्चाई तो वह पशु ही जानता होगा जो उस खौफनाक प्रक्रिया से गुजरता है. हम इंसान तो सिर्फ कयास ही लगा सकते हैं.

इसाई धर्म मे भी पशु हत्या को जायज ठहराया गया है. बाइबिल कहती है कि इस धरती पर इंसान ही सर्वोपरि है. बाकी पशु पक्षी उसके भोजन के लिए बनाए गए हैं.
दुनिया के इन तीनो पुराने धर्मो मे पशु की स्थिति कमोबेश एक सी  है.  सभी धर्मों मे पशु को खाने की वस्तु या फिर निर्ममता पूर्वक काम मे लाने की चीज़ माना गया है.

आज दुनिया के सभी धर्म संप्रदाय तथा विज्ञान भी इस तथ्य पर एकमत हैं कि इस धरती का सबसे अधिक बुद्धिमान, सभ्य तथा सर्वाधिक विकसित प्राणी मनुष्य है. विज्ञान यह भी बताता है कि पशु बौद्धिक रूप से अविकसित या अर्ध विकसित प्राणी है. मानव की तरह पशु पूर्ण चेतन नहीं है बल्कि या तो वह अवचेतन है या फिर अर्ध चेतन. उसका अवचेतन मष्तिष्क ही सक्रिय होता है.

लेकिन एक बात अब तक मेरी समझ मे नही आई है कि इंसान ने खुद को इस दुनिया का सबसे बुद्धिमान सबसे सभ्य प्राणी आखिर किस आधार पर माना है.
मानव द्वारा विकसित वैज्ञानिक ज्ञान कहता है कि इंसान की खोपड़ी सभी जानवरों से ज्यादा बड़ी होती है. इसी आधार पर इंसान को सबसे ज्यादा विकसित व बुद्धिमान तथा सभ्य प्राणी माना जाता है. फिर इंसान मे बुद्धि व विवेक भी होते हैं. निर्णय लेने की क्षमता भी होती है . मानव मष्तिष्क पूर्ण रूप से चेतन अवस्था मे होता है जबकि पशु पक्षी या तो अर्ध चेतन होते हैं या फिर उनकी चेतना सुप्तावस्था मे रहती है या फिर वे अवचेतन अवस्था मे होते हैं.

अब जरा तुलना करते हैं कि इंसान और पशु मे कौन सी प्रवृत्ति किस मे अधिक है:
1.      अहंकार (Ego)  : शायद ही कोई पशु  हो जिसे हमने  खुद  पर अहंकार करते देखा हो. जबकि इंसान कितना अहंकारी है सब जानते हैं. मानव सभ्यता का इतिहास गवाह है कि अतीत मे जितने भी भीषण युद्ध हुए वे सभी राजाओं (अर्थात मानवों) के  आपसी  मनमुटाव या अहंकार का दुष्परिणाम थे. चाहे राम रावण युद्ध हो या फिर कौरव पांडवों के बीच लड़ा गया महाभारत. सबके पीछे अहंकारों टकराव ही कारण था. 
2.      हास्य ( Laughing) :  इंसान कुछ पा लेने पर खुश होता व हंसता है. जबकि किसी पशु को हमने हंसते हुए नहीं देखा. ऐसा क्यों है ?
दर असल मनुष्य ज्यादातर तभी हंसता है जब उसे कोई खुशी मिली हो. खुशी तभी होती है जब कोई उपलब्धि हासिल हुई हो.
भूखे शेर को जंगल मे जब शिकार मिलता है तो वह भी उसकी बहुत बड़ी उपलब्धि होती है. या ऐसे ही किसी अन्य मौके पर भी पशु को हंसी आनी चाहिए. पर नहीं आती. खुशी के मौके पर भी खुशी का प्रदर्शन न करना क्या पशु की मानव पर श्रेष्ठता साबित नहीं करता ?
3.      ईर्ष्या ( Jealousy ) : मानव कितना ईर्ष्यालु है यह हम आए दिन देखते ही रहते हैं . दूसरे शब्दों मे इसे जलन भी कहा जाता है. दूसरे की तरक्की देख कर यदि मन मे शोक हो या फिर दुख हो तो समझ लेना चाहिए कि यह ईर्ष्या का ही परिणाम है. कुत्तों मे गली का नेता चुनने की सरल प्रक्रिया है. जिस कुत्ते का डील डौल सबसे अच्छा हो, जिसकी दुम पूरी तरह गोल घूमी हुई हो वही दल का मुखिया मान लिया  जाता है.
अगर इंसान की भी पूंछ होती तो भी दल का नेता मानने की यह विधि उसे रास न आती. तब भी इस बात पर लड़ाई होती कि उसकी पूंछ मेरी पूंछ से गोल कैसे ? जरूर उसने कोई झोल किया है.
4.      क्षमा ( Forgiveness): पशुओं मे क्षमा का गुण मनुष्य की अपेक्षा ज्यादा स्पष्ट दिखाई पड़ता है. यदि एक गली का कुत्ता दूसरी गली मे चला जाय तो यह अक्षम्य अपराध माना जाता है. इसकी सजा अपराधी कुत्ते को काट काट कर बेहाल कर देना होती है. किंतु यदि अपराधी कुत्ता अपनी पूंछ पिछली टांगों के बीच दबा ले या सीधी कर ले या फिर जमीन पर पीठ के बल लेट  कर   बहुत दयनीय भाव से क्रोधी कुत्ते को देखे तो क्रोधी कुत्ता अपराधी कुत्ते को छोड़ देता है. सजा माफ हो जाती है.
इसके विपरीत मानव अपने शत्रु को इतनी आसानी से क्षमा नहीं करता. क्षमा मांगने पर भी वह दोषी की ईंट से ईंट बजा कर ही दम लेता है. फिर बेहतर कौन हुआ ?पशु या मनुष्य ?
5.      मजाक उड़ाना (Joking) : इंसान किसी दूसरे इंसान की कैसे मजाक उड़ाता है- यह हम रोज़ देखते हैं. लेकिन किसी पशु  को दूसरे पशु का मजाक उड़ाते आपने कभी न देखा होगा. यह दुर्गुण केवल मनुष्य मे पाया जाता है.
           ऊपर दिये गए  पांचों भाव नकारात्मक भाव ( Negative Thoughts) हैं. जो पशुओं मे नहीं बल्कि मनुष्यों मे पाए जाते हैं . इसके बाद भी मनुष्य खुद को पशुओं से श्रेष्ठ समझता है !
चरक संहिता मे उल्लेख है कि वन्य जंतुओं तथा पशुओं से भी मनुष्य औषधियों का ज्ञान सीखे . नेवला सांप द्वारा डसे जाने पर कोई वनस्पति खाकर अपने घाव ठीक कर लेता है. कुत्ते या बिल्ली बीमार होने पर कोई खास घास खाते देखे जाते हैं . एक वैद्य जी ने जंगल मे कांटों वाले पलाश के पत्तों द्वारा बंदरिया का प्रसव कराते हुए खुद अपनी आंखों से देखा था.  
वन मे चरने वाले जानवर भी अस्वस्थ होने पर कुछ घास छोड़ देते हैं.     
यह साबित करता है कि मनुष्येतर प्राणी भी  औषधियों का ज्ञान रखते हैं .
यह तो हम सभी पढ़ते आए हैं कि कुत्ते चमगादड़ डॉल्फिन आदि जीव पराश्रव्य तथा अवश्रव्य ध्वनि तरंगें सुन सकते हैं. कुत्ते भूकंप की अत्यंत दीर्घ तरंगों को भी सुन लेते हैं तभी भूकंप से पहले वे रोते देखे जाते हैं. बारिश होने से कई घंटों पहले चींटियां अपने अंडों को बिल मे ले जाने लगती हैं. भूकम्प से पहले वे बिल से बाहर निकल जाती हैं. बताते हैं कि गाय तथा कुत्ते अपने सामने आई अशरीरी   आत्माओं को देख लेते हैं . ये प्राणी अपने से पहले की तीन पीढ़ियों का ज्ञान भी रखते हैं.
ऐसे कितने ही उदाहरण हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि कई मायनों मे पशु इंसान से भी श्रेष्ठ होते हैं. हो सकता है उनकी चेतना का स्तर मनुष्य से भी उच्च्तर हो लेकिन निर्णय  कौन करेगा ? मनुष्य? वह तो खुद को ही अच्छा बताएगा.
मेरा सुझाव है कि मनुष्य को अन्य प्राणियों से संवाद स्थापित करने की तकनीक खोजनी चाहिए. फिर उन पशु पक्षियों जलचर - स्थलचर आदि से  बात करके ही  अंतिम निर्णय किया जाए कि क्या वास्तव मे पशु हमसे निम्न चेतना स्तर पर हैं ? या फिर अपने को श्रेष्ठ मान कर अब तक इंसान ने पशु पक्षियों के साथ घोर अन्याय किये हैं.


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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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