मेरा बचपन

        


            मेरे बचपन की सबसे दुखती रग है विस्थापन. इस विस्थापन ने मुझे भीतर और बाहर, दोनो स्तरों पर बहुत  प्रभावित किया है.  पीछे नजर डालता हूं तो पता चलता है कि किसी अनुवांशिक बीमारी की तरह यह विस्थापन हमारे वंश में काफी पहले से चला आ रहा है.  पिता जी बताते थे कि हम लोग सारस्वत ब्राह्मण हैं.  ऐसा लगता है कि सरस्वती नदी के तटवर्ती प्रदेश में आरंभिक निवास होने के कारण ही हम लोग सारस्वत कहलाए होंगे. कालांतर में जब सरस्वती सूखने लगी तो हमारे पूर्वजों को मूल निवास छोड़ना पड़ा. जगह जगह बस जाने पर भी अपनी मूल पहचान बनाए रखने के लिए हमारे पूर्वजों ने स्वयं को सारस्वत ब्राह्मण कहा होगा.
गढ़वाल में थपलियाल जाति के आगमन के बारे में कुछ ऐतिहासिक जानकारी  एटकिंसन के ‘हिमालयन गजेटियर’ में मिलती है. इसके अनुसार थपलियाल लोग गढ़वाल में बनारस से आए. गढ़वाल नरेश श्री कीर्ति शाह के वजीर श्री हरिकृष्ण रतूड़ी (सन 1861-1929) ‘गढ़वाल का इतिहास’ में लिखते हैं कि थपलियालों के आदि पुरुष जयचंद मयचंद सबसे पहले गढ़वाल के जयपाल थापली चांदपुर नामक स्थान पर संवत 980 के आसपास गौड़ देश यानी बंगाल से आ कर बसे थे.
चांदपुर गढ़ के तत्कालीन  सूर्यवंशी राजा भानुप्रताप सिंह  के ये लोग गुरुपुरोहित थे. बाद मे पंवार वंशी राजा कनकपाल के भी ये पुरोहित रहे. शुरू में थपलियाल लोग अपने को सती कहते थे. सती कहलाने के पीछे भी सरस्वती नदी से अपना संबंध बनाए रखना प्रतीत होता है. सरस्वती शब्द का पहला अक्षर ‘स’ तथा आखिरी अक्षर ‘ती’ लेकर ‘सती’ शब्द रचा गया प्रतीत होता है. गढ़वाल में जो वंशावलियां गाई जाती हैं उनके अनुसार थपलियालों का मूलपुरुष था गोबर सती. उनका पुत्र हुआ देवर सती. फिर भागू सती. भागू सती के पुत्र हुए पंडित नागपाल. नागपाल जी के पुत्र हुए पंडित जयचंद थपलियाल.
क्योंकि जयचंद जी ही थापली गांव में बसे थे अत: उन्होने पुराने सती शब्द को छोड़ कर इस गांव के नाम को ही जाति के रूप मे अपनाते हुए स्वयं को थपलियाल कहलाना शुरू किया.  हालांकि उनके अन्य भाई जो थापली नहीं आए, वे तब भी सती ही बने रहे. आज भी सती जाति गढ़वाल मे पाई जाती है. और सती लोगों का राजस्थान में बहुतायत से मिलना भी यही सिद्ध करता है कि ये लोग निश्चित रूप से सरस्वती नदी के तटवर्ती प्रदेश के ही मूल निवासी थे.
थापली गांव में आकर भी विस्थापन का सिलसिला थमा नहीं. वहां से सन 1450 के लगभग हमारे पूर्वज श्री स्यालिक राम (शालिग्राम) जी सिमतोली गांव (पौड़ी जिला) में आ बसे. कुछ पीढ़ियां वहां रहीं. फिर सन 1680 के आस पास श्री नन्द राम जी टिहरी गढ़वाल में आकर बस गए तथा अपने नाम से वहां नन्दवाण गांव बसा लिया.
चार पांच पीढ़ियों के बाद मेरे परदादा श्री भीम दत्त जी एक बार फिर स्थान छोड़ने को विवश हुए.उनका उनका जन्म नन्दवाण गांव में (1850 के आसपास) हुआ, किंतु पारिवारिक कारणों से वे अलकनंदा घाटी में  बड़मा पट्टी के मुन्नादेवल गांव में आ बसे. इसी गांव में (लगभग 1880 ) मेरे दादा श्री उमादत्त जी का जन्म हुआ. मेरे पिता जी का जन्म भी ( दिसंबर 1919 में)  यहीं हुआ. राजनीति में श्री श्रीदेव सुमन जी का साथ देने के कारण ये राजा के कोपभाजन बने. इन्हें मार डालने की तैयारियां होने लगीं. विवश होकर पिता जी को भी अपना जन्म स्थान मुन्नादेवल गांव छोड़ना पड़ा. ऋषिकेश, बनारस, लाहौर, अमृतसर आदि जगहों पर जाकर उन्होनें कठिन परिस्थितियों में ज्योतिष तथा संस्कृत साहित्य का अध्ययन किया. फिर देहरादून आ गए. यहां    (1954 में) डौंकवाला नाम के गांव में मेरा जन्म हुआ. यह गांव देहरादून के सहसपुर ब्लॉक में आरकेडिया टी एस्टेट व शिमला रोड के बीच पड़ता है.
 होश संभालने के बाद मुझे जो घटना सबसे पहले याद आती है, वह मेरी करीब दो साल की उम्र में घटी होगी.  रात को मेरी नींद अचानक खुली तो घुप्प अंधेरा था. सावन भादों का महीना रहा होगा . बाहर खूब तेज़ बारिश हो रही थी. मेरी बगल में लेटी मां उठ चुकी थी. मैने देखा मेरे सामने वाली कच्ची दीवार टूट कर धीरे धीरे ढह रही थी. बारिश का पानी पूरे घर में भरने लगा. मां ने बिस्तर सहित मुझे उठाया और बाहर की तरफ भागी. थोड़ी ही देर में भीतर से भरभराने की आवाज सुनाई दे. दीवार पूरी तरह गिर चुकी थी. अगर उस रात मां को उठने में ज़रा भी देर हो जाती तो आज बचपन की यादें मैं आपके साथ  शायद न बांट  पाता.  
मेरे ताऊ जी, भी उसी गांव में बस गए थे. वह अक्सर हमारे घर आते रहते थे. उस वक्त मैं छोटा था. मैने देखा-एक रोज़ वह आए. आंगन के किनारे किनारे बाड़ पर करेले की बेल फैली हुई थी. उस पर काफी करेले लगे हुए थे. ताऊ जी ने एक एक कर दो तीन करेले तोड़े और कच्चे ही चबा गए. मुझे हैरानी हुई कि इतने कड़वे करेले बड़ी आसानी से वह कैसे खा गए.
एक बार मैं अमरूद के पेड़ से होकर छत पर चढ़ रहा था. उम्र मुश्किल से पांच साल रही होगी. अचानक पैर फिसला और मैं टहनी से लटक गया. जमीन काफी नीचे थी. मैं डाल पकड़े रो रहा था. हाथ थकते जा रहे थे. एक एक पल लटके रहना भारी हो रहा था. तभी मेरी चीख सुन कर चाचा जी बाहर आए. उन्होने मुझे धीरे से नीचे उतार लिया. चाचा न आते तो हाथ पैर टूटना निश्चित था.
उसी अमरूद के नीचे हमारी काली गाय बंधा करती थी. रोज सुबह उठ कर जब मां दूध निकालती तो एक पीतल का कटोरा भर कर कच्चा दूध मुझे भी वहीं पिला देती. इसे वह उसनधार(उष्ण धार) का दूध कहती थी.
  मुझे वह गांव बहुत अच्छा लगता था. उसके दक्षिण में शिवालिक पहाड़ियों पर उगा साल का घना, विस्तृत वन प्रदेश था तो उत्तर में ढालू घाटी पर उगा जंगल.  उससे सटा आरकेडिया कंपनी का विशाल चाय बाग था. आसन नदी की दो धाराएं गांव के उत्तर दक्षिण -दोनों तरफ बहती थीं. गन्ने के दूर तक चले गए एक के बाद एक कई खेत, बासमती के हरे भरे लहलहाते सुरभित खेत, पानी से चलती आटा पीसने की चक्की, जिसे घराट कहते थे, और पानी से लबालब भरी धानी क्यारियों में खूब नहाते, सफेद पंखों वाले मतवाले बगुले व सारस. चरागाह में दूर दूर तक फैली बेर की झाड़ियां, जो कभी सफेद छोटे छोटे फूलों से भरी होतीं, कभी नन्ही नन्ही हरी हरी बेरों से, तो कभी पकी हुई लाल लाल बेरों से लद जातीं. इन भीनी भीनी खुशबू वाली खट्टी-मीठी बेरों को हम पशु चराते बच्चे बड़े बूढ़े बड़े चाव से पेट भर कर खाते. नदी के किनारे हींसर(अंछू) की झाड़ियां लाल लाल मुलायम पके हुए हींसरों से लदी होतीं. हम सारे दोस्त टोलियां बना कर  पानी में उतरते, कांटों से राह बनाते हुए उन पके हुए हींसरों तक पहुंचते, तोड़ तोड़ कर जेबों में भर लेते और फिर बाहर आकर मजे से बैठ कर खाते. कभी जमीन पर गूलों के किनारे उगी गुड़भेलियां(जंगली स्ट्राबेरी) भी हम जेबें भर भर कर इकट्ठी करते और फिर पत्थरों के ढेरों पर बैठ कर मजे से खाते रहते. चरागाह में करौंदे के कंटीले झाड़ खूब उगे हुए थे. उन पर बैंगनी रंग के पके हुए फल काफी तादाद में लगे होते. उन्हें भी चुन कर हम मुठ्ठी भर भर कर खाया करते थे. इसी तरह नागफनी के लंबे लंबे कांटों के बीच लगे नागफनी के गहरे बैंगनी फल भी हम तोड़ कर पहले रेत में रगड़ते, फिर उन्हें छील कर खाते. बड़े मीठे और लसदार होते थे वे फल. जंगल में एक और भी कटीला पेड़ होता था, जिसे मोल कहते थे. उसके फल नाशपाती से काफी मिलते जुलते होते थे. जब कभी जंगल जाने का मौका मिलता तो मोल के कसैले, मीठे कच्चे फल खाना हम नहीं भूलते थे. इसी तरह आम, गुलाबी अमरूद, जामुन, नींबू के फलों से लदे पेड़-- न जाने कितने प्रसंग हैं, जो बार बार याद आ कर मुझे पीड़ा पहुंचाते हैं.
पत्थर के ढेरों से याद आया. जब पिता जी इस गांव में आए थे, ज़मींदारी कानून खत्म नहीं हुआ था. गांव के लंबरदार(नंबरदार) हरिसिंह जी थे. बड़े ही धार्मिक प्रकृति के इंसान थे. लंबरदारनी जी भी बड़ी पूजा पाठ वाली महिला थी. खाना खाने से पहले वह खाना लेकर हैंड पंप पर आती और एक विचित्र सी आवाज़ मुंह से निकालती. उस आवाज़ को सुन कर एक काफी ऊंचा सारस धान के हरे भरे खेतों से चल कर पास आता और बगैर किसी डर के खाना खाता. खाने के बाद फिर लंबी लंबी टांगों से चलता हुआ वह धान के हरे भरे खेतों मे पहुंच जाता. उन्हीं लंबर दार जी के यहां खौफनाक कुत्ते भी थे. एक बार तो एक कुत्ते के साथ रात को बाघ की गुत्थम गुत्था देर तक होती रही. बाघ ने कुत्ते का एक कान भी काट लिया, पर उसे आखिर भागना पड़ा.
इन्हीं हरिसिंह लंबरदार जी ने पिताजी को पांच बीघा जमीन का पट्टा लिख दिया था. वह सारा गांव मांडू वाला के ज़मींदार के कब्जे में था. हरिसिंह जी उन्ही के रिश्तेदार थे तथा उन्हीं के नुमाइंदे के रूप में इस इलाके की जमीनें देखते थे.
वह पांच बीघा जमीन जो दी गई थी, वह नया तोड़ था, काश्त की चलती जमीन न थी. वह चरागाह में से दी गई पथरीली, बंजर सी जमीन थी, जिसे हर बरसात में नदी काटती रहती थी.  मुझे व बड़ी बहनों को पत्थरों के ढेर पर बिठा कर मां सारा दिन उस खेत से पत्थर चुगती रहती थी. पिता जी पंडिताई के काम से दिन भर बाहर रहते थे. मां सुबह से शाम तक खेतों से पत्थर इकट्ठे करती. चाहे कड़ी धूप हो, बरसात हो, या फिर जाड़ा, मां अपने काम में पूरे मनोयोग से जुटी रहती. उस जमीन में इतने पत्थर थे कि खेतों में पत्थरों के ऊंचे ऊंचे ढेर लग गए. पत्थरों के अलावा बेर के झाड़ व  कांस के तमाम झुंड भी वहां उगे हुए थे. बेर की जड़ें बहुत गहरी जाती हैं. उन्हें जड़ समेत उखाड़ना मामूली बात नहीं है. पर मां और पिता जी ने वह मुश्किल काम भी पूरी हिम्मत से किया. उनकी मेहनत से वह बंजर टुकड़ा धान गेहूं की भरपूर फसल देने लगा.
मुझे एक और वाकया याद आता है. एक दिन पिता जी ने बताया कि हमें जंगल के किनारे धोबी घाट के पास पांच बीघा ज़मीन और मिली है. कल वहां झाड़ काटने चलेंगे.
अगले दिन सारा परिवार पाठल, कुल्हाडियां लेकर वहां गया. वह खेत क्या, पूरा जंगल था. दर असल पिता जी की सत्यनारायण की कथा सुन कर आरकेडिया टी एस्टेट का अंग्रेज मैनेजर ‘लाल साहब’ बहुत खुश हुआ था और पांच बीघा जमीन उसने पिता जी को इनाम में दी थी. उस खेत को साफ करने मे भी मांजी व पिता जी को बहुत मेहनत करनी पड़ी. हम बच्चे तो खेत मे बैठ कर उन्हें काम करता देखते रहते थे. हां. वह जमीन बंजर व ऊसर नहीं थी. अच्छी क्वालिटी की थी.  
बचपन के कुछ और लमहे भी हैं, जिन्हें मैं भूल नहीं पाता. नदी से केकड़े व मच्छी पकड़ते चतरा, बाला, पिरथी, कासू, बलीरा आदि कई लड़के आज भी मेरी यादों में ताज़ा हैं. वे मछली पकड़ कर एक लोटे में भरते और मौका पाकर मैं उन पकड़ी हुई तड़पती मछलियों को फिर से पानी में फेंक देता. वे लड़के मुझे कुछ न कह पाते थे. चुप चाप नदी के किसी दूसरे किनारे चले जाते. मुझे हरसिंग नाम के उस बाल्दी(पशु चराने वाला) की भी खूब याद है, जो सारे गांव के ढोर चराने ले जाता. दिन में नदी से केकड़े पकड़ कर आग में भूनता और मजे से खाता. कभी वह गहरे पानी वाले हिस्से के किनारे जाता. वहां खूब बच उगी होती. बच को उखाड़ कर, धोती से वे लोग एक लंबी मछली पकड़ते. सांप सी बहुत फुर्तीली उस मछली को वे गुज कहते थे. गुजों को पकड़ कर वे अक्सर बेच देते या फिर खुद भून कर या साग बना कर खा जाते.
राजिंदर नामक अपने उस नौकर की यादें भी मेरे मष्तिष्क में ताज़ा हैं, जो हमारे खेतों मे हल लगाता, धानों की रोपाई के लिए जंदरा चलाता. उसके पास चार पांच कुत्ते थे. वे शिकारी थे और जल मुर्गियां, बटेर आदि  पकड़ कर राजिंदर के कदमों में लाकर रख देते. वह सांप पकड़ने में भी माहिर था. उसने बड़े बड़े सांप मारे थे. वह बेझिझक जिन्दा सांप पकड़ लेता. एक बार तो उसने लाट के जंगल में इतना भारी अजगर मारा, जिसे वह खुद नहीं उठा सका. उसकी चर्बी निकाल कर वह बाजार में बेचने ले गया. उसके पास एक अलगोजा भी था, जिस पर वह फिल्मी गीतों की धुनें बहुत अच्छी बजाता था. वह मस्त और खुश मिजाज था. अक्सर एक रंगीन रूमाल वह माथे पर बांधे रखता था. 
आसन नदी में एक जगह पर पानी काफी गहरा व ठहरा हुआ था. इसे लोग कुंड कहते थे. नदी के किनारे किनारे जंगल तक पशुओं के साथ हम बच्चे अक्सर उस कुंड के पास आ जाते जहां बड़े बच्चे बरणे(वरुण) के ऊंचे पेड़ पर चढ़ कर नदी में छलांग लगाते । इसे गोता मारना, या डुबकी लगाना कहा जाता था. थोड़ा पढ़े लिखे लोग इसे डाइव मारना भी कहते थे. हम बच्चे लोग किनारे के कमर तक के पानी में ही हाथ और लातें चला कर तैरने की हसरत पूरी कर लेते. लेकिन बाद में जब हिम्मत खुल गई तो कुंड के बीच तक भी तैरते हुए जाने लगे. एक दो बार तो पेड़ पर चढ कर छलांग भी मारी.
कभी कभी कोई बड़ा लड़का अपने दोस्तों को बताता कि नदी में एक जगह हाथी डुबोन पानी है, मतलब कि इतना गहरा कुंड है कि उसमे हाथी भी डूब जाए. वहीं जाकर नहाएंगे. यह सुन कर हम छोटे छोटे बच्चे हर्ष मिश्रित भय से रोमांचित हो उठते. वहां जाने को हमारा जी मचल उठता.
एक बार पता चला कि नदी के उस पार जंगल में जामुन पके हुए हैं. वहां पहुंचना मुश्किल था, नदी चढ़ गई थी. बस फिर तो अपनी अपनी भैंसों की पीठ पर बैठ कर सबने नदी पार की और खूब जामुन खाए.
एक बार रात को गन्ने चुराने का प्रोग्राम बना. रात करीब ग्यारह बजे बड़े लड़के गन्ने चुराने घर से चले. छोटा होने के कारण मेरी ड्यूटी बस इतनी थी कि मैं बाहर बैठ कर देखता रहूं. कोई आ जाय तो भीतर वालों को खबर दे दूं. मैं गन्नों के बाहर पानी के बौले(गूल) पर बैठ कर पहरा देने लगा. साथी भीतर घुस कर गन्ने तोड़ने लगे. गन्ने टूटने की पटापट की आवाजें बाहर आतीं तो मारे डर के मैं कांप उठता. चांदनी रात थी. अचानक मेरी नजर पानी पर पड़ी, जहां मुझे मानव आकृति दिखाई पड़ी. मैने घूम कर देखा. वह खेत का मालिक रहमू ठेकेदार का लड़का अली हसन था. हट्टा कट्टा बदन, तहमत बांधा हुआ, और चेहरे पर घनी काली दाढ़ी. सिर पर साफा लिपटा हुआ.  उसने सबको आवाज देकर बाहर बुलाया. फिर सभी को पकड़ कर गन्ने की पूलियां हमारे सिर पर रखवाकर अपने गांव भुड्डी ले जाने लगा. हम बच्चे बार बार माफी मांगते, कान पकड़ते, पर उस पर कोई फर्क न पड़ा. अपने घर पहुंच कर वह रुका. हम सभी रो रहे थे. फिर कड़कती आवाज में बोला- आज तो छोड़ दिया, पर दुबारा पकड़े गए तो बिल्कुल नहीं छोड़ूंगा. भागो सालो.
यह सुनते ही हम सभी सर पर पैर रख कर ऐसे भागे कि सीधे घर आकर ही सांस ली.
एक बार पिता जी और मांजी सब गांव वालों के साथ हमें मेला दिखाने ले गए. यह मेला वहां पर लगता था जहां से आसन नदी निकलती है. इसे चंदबनी(चंद्रवदनी) का मेला कहते थे. उम्र होगी यही कोई सात आठ साल. मेले में चश्मा, पिंपनी, बंसरी, घड़ी, गुब्बारे, रेडियो वगैरह कई चीजें खरीद लीं. सारा सामान आ गया होगा कोई डेढ़ या दो रुपए में. पर मेले की भीड़ में मैं खो गया. शाम होती देख मैं रोने लगा. इतनी सारी चीजों के मिलने की खुशी भी गायब हो गई. रोता, पूछता हुआ अकेला घर को चल पड़ा. उस दिन आसन नदी ने मेरी बहुत मदद की. मैं जानता था कि यही नदी मेरे गांव से होकर बहती है. बस नदी के किनारे किनारे चल पड़ा. अकेले चलते हुए डर लगता तो मैं रोने लगता. रोने से डर भाग जाता. आधे रास्ते के बाद मुझे घर से आते लोग मिल गए, जो मुझे ढूंढने आ रहे थे. बस फिर तो ऐसा लगा जैसे स्वर्ग मिल गया. वे चाचा लोग फिर मुझे गोद में लेकर घर आए.   
मुझे याद है हमारे गांव के ऊपरी सिरे पर एक आश्रम नुमा झोंपड़ी थी. वहां एक बूढ़ी औरत अकेली रहती थी. इस जगह को लोग माई की कुटिया कहते थे. यहां नाथपंथी साधुओं की समाधियां बनी हुई थीं. उन समाधियों पर दिवंगत नाथ साधुओं के नाम भी लिखे थे. माई उन्हीं नाथों की अंतिम वारिस थी. नदी किनारे बनी माई की उस कुटिया के   चारों तरफ आम केले, अमरूद, जामुन कटहल वगैरह के काफी पेड़ थे. छोटे छोटे पेड़ों पर बड़े बड़े आम लटके देख कर मुंह में पानी आ जाता. एक बार तो हम तीन चार दोस्त लालच रोक न सके. भरी दुपहरी में चुपके से घर से निकले और पहुंच गए कुटिया के पास. नदी उस जगह गहरी थी, फिर भी तैर कर पार की, व लगे आम तोड़ने. किंतु माई को पता चल गया. लाठी लेकर वह बाहर निकली  और गालियां देती हुई हमारी तरफ बढ़ी. पर हम फौरन नदी पार कर घर भाग आए.
अगले रोज माई हमारे घर आई और पिता जी को मेरी सारी करतूत बताई. फिर बोली कि मुझे बाद में पता चला कि यह तेरा लड़का है, नहीं तो मैं इसे कुछ न कहती और खूब आम देती.
एक और वाकया है, जिसकी याद एक गहरे निशान के रूप मेरे सिर पर अब भी बाकी है. बारिश के दिन थे. हमारा मकान कच्चा था. उसकी मुंडेरें भी मिट्टी की थीं. बारिश के कारण वे मुडेरें बिल्कुल गीली थीं. मैं ऐसी ही मुंडेर पर उकड़ूं बैठा ध्यान से देख रहा था. पहाड़ से आया हमारा नौकर इन्धरू गंड़ासे से बैलों के जुए की डंडियां बना रहा था. अचानक मैं जिस जगह बैठा था, वहां की मिट्टी धंस गई. इधर मेरा सिर ठीक इंधरू के आगे पहुंचा और उधर गंड़ासे का करारा वार मेरे सिर पर हुआ. खचाक की आवाज सुन कर मां पिता जी बाहर आए. बाहर का दृश्य देख कर वे सन्न रह गए. आंगन में खून बह रहा था. मेरे कपड़े खून से तर बतर थे. इंधरू डर के मारे बारिश में ही खेतों में भाग गया. पिता जी ने कपड़ा जला कर उसकी राख मेरे घाव पर भरी, फिर पट्टी बांध कर मुझे दूर एक डाक्टर के पास ले गए, जिसने मुझे सुई (इंजेक्शन) लगाई, घाव को धो कर सिला. और फिर खाने की दवाइयां भी दीं. कई रोज तक मैं बिस्तर पर ही रहा.
उन्हीं दिनों की एक और घटना है. बरसात का मौसम था. मैं मां से जिद कर रहा था. मां शायद उस जिद को पूरा करने की स्थिति मे न थी. वह समझा रही थी, किंतु मैं बाल हठ करने लगा. गुस्से मे आकर मां ने मेरे दोनो हाथ रस्सी से बांध दिये और मुझे बाहर धकेल दिया. मैं बंधे हाथ रोता हुआ मकई के खेत में चला गया. कोई मुझे न लेने आया, न चुप कराने.
 शिक्षा के नाम पर पड़ोस के झींवरहेड़ी गांव में एक ही प्राइमरी स्कूल था । आसन नदी पार करके स्कूल जाना पड़ता था. कई बार जब नदी चढ़ी होती, हमारी तख्तियां बस्ते पानी में बह जाते । सर्दियों में जई व बरसीम के ओस भरे खेतों की मेंडों से होकर स्कूल जाते तो कुरता पायजामा पूरी तरह भीग जाता. हमसे पहले जाने वाले शरारती लड़के मेंड़ के दोनों तरफ से जई के पौधों को आपस में बांध देते. जैसे ही हम छोटे बच्चे वहां से गुजरते वैसे ही धड़ाधड़ मुंह के बल नीचे गिर जाते. और रोते धोते स्कूल पहुंचते. स्कूल के हेडमास्टर थे कल्लूखां साहब. हर वक्त पान खाते रहने से उनके दांत और होंठ लाल रहते. ऐसा लगता मानों उन्होनें अभी अभी खून पिया है. जरा जरा सी बात पर वह बच्चों को खूब मारते थे. खेत की बाड़ से वे सम्हालू, शहतूत या बेशरम के डंडे मंगा कर बच्चों की बेरहमी से पिटाई करते थे. मुझे याद है- चैतराम, धनी, रूपड़ी, मंगल और न जाने कितने लड़कों के सूजे हुए हाथ सरसों के तेल और हल्दी से पुते रहते. फिर भी कल्लूखां साहब का दिल पसीजता नहीं था. मैं उन्हें देख कर बहुत डरता था. एक बार उन्होनें मुझे पीटने के लिए डंडे मंगाए तो मैं रोता चीखता बिजली की गति से घर की तरफ भागा था. मुझे पकड़ने के लिए बड़े लड़के दौड़ाए गए. उन्होंने थोड़ी दूर पर ही मुझे दबोच लिया. मैने छूटने की बहुत कोशिश की, पर नहीं छूट सका. बस रोता चिल्लाता, उनके बलिष्ठ हाथों में छटपटाता रहा. वे उठा कर मुझे स्कूल में ले आए. मैने मारे डर के आंखें बंद कर लीं. पर ईश्वर का लाख लाख शुक्र है कि खां साहब ने मुझे पीटने का इरादा बदल दिया था. खां साहब स्कूल में पढ़ाते कम थे और पिकनिक ज़्यादा मनाते थे. हर शुक्रवार को मुर्गे हलाल करते. चाकू से मुर्गे की गरदन काट कर उसे उड़ने के लिए छोड़ देते. बगैर सिर का मुर्गा हवा में उड़ता हुआ दूर खेतों में जा गिरता, जहां से उसे बच्चे उठा कर लाते. फिर उसे स्कूल में ही पका कर खाते. हम सभी बच्चों को वह हर सोमवार को लकड़ी लेने कारबारी के जंगल भेजते. जिस दिन कल्लू खां मास्टर जी का तबादला हुआ सभी लड़के बड़े खुश हुए थे. उनकी जगह आए थे मास्टर अमजद अली, जो कि निहायत शरीफ किस्म के इंसान थे. मुझे जहां तक याद आता है, उन्होने किसी भी लड़के पर हाथ नहीं उठाया. ऐसे ही रोशन लाल गुरू जी भी थे. वे भी सिर्फ पढ़ाने मे यकीन रखते थे. एक और बहुत अच्छे गुरुजी थे. गढ़वाल के ही थे. उनका नाम था केसर सिंह. मैं उनकी क्लास मे मॉनीटर था. जब मैं दूसरी में पास हुआ तो उन्होने मुझसे मिठाई खिलाने को कहा. मैने घर मे बताया, तो मां ने शायद हलवा बना कर दिया, जिसे स्कूल मे ले जाने मे मुझे शर्म आ रही थी. फिर भी ले गया. डरते डरते वह गुरुजी को दिया. मैने देखा- गुरुजी की आंखें नम हो आईं थीं. उन्होनें वह प्रसाद की तरह सभी बच्चों को बांट दिया.
दिन में हापटैम (हाफटाइम) मे मेरा दोस्त शिब्बू मुझे अक्सर अपने घर खाना खिलाने ले जाता. शिब्बू की मां देहरी पर खड़ी होकर हमारा इंतज़ार करती रहती. बड़े ही प्यार से चौके पर वह हमें खाना परोसती. कभी दाल, चावल, सब्ज़ी, तो कभी रोटी, साग. धनिये और लहसुन के पत्तों से सरसों के तेल में छौंकी हुई उस दाल का स्वाद आज भी याद आता है. बहुत रस था उनकी रसोई में. अभी वह जीवित हैं. जी करता है एक बार फिर खाऊं उनके हाथ का बना खाना. कभी मैं हाफटाइम में धर्मानन्द मामा जी के यहां चला जाता. मामी भी बड़े प्यार से मुझे रसोई में बैठ कर खाना खिलाती थी.  
शिब्बू को यह कविता बहुत अच्छी लगती- यदि कहीं मैं तोता होता, तोता होता तो क्या होता, या फिर उसे वह कहानी अच्छी लगती, जिसमें दो भाई बहन मां बाप के मरने के बाद चाचा चाची के साथ पलते हैं. चाची के कहने पर चाचा उन्हें एक घने जंगल में छोड़ने जाता है. लड़का अपनी जेब में सफेद पत्थर भर लेता है, व रास्ते मे उन्हे गिराता जाता है. उन्ही के सहारे बाद मे वे भाई बहन जंगल से बाहर निकल पाते हैं. जंगल में रात को उन्हें बहुत डर लगता है. वे गलती से एक राक्षस के डेरे पर पहुंच जाते हैं, राक्षसी दयालु स्वभाव के कारण उन्हें छिपा देती है, मगर राक्षस को मानुस गंध आ जाती है. वह उन्हें तेल मे तल कर खाना चाहता है ----
वह बचपन का दोस्त शिब्बू आज शिवप्रसाद देवली उपाध्यक्ष जिला पंचायत देहरादून है. आज भी वही दोस्ती, वही प्यार हम दोनो के बीच बरकरार है. 
शिब्बू के अलावा मेरे और भी दोस्त थे, जैसे नीरा, बाबू, पदम सिंह, मदन और रामसरूप वगैरह. मैं चुपके से नीरे की दोनो टांगें पकड़ कर पीछे से खींच लेता. वह बेचारा धड़ाम से जमीन पर गिर पड़ता. पर कभी उसने न तो मुझे मारा, न डांटा. रामसरूप लिखने के लिए दवात में जो खड़िया घर से घोल कर लाता उसे स्कूल में पी जाता. पढ़ाई में रामसरूप बहुत बुद्धू था. एक ही क्लास में वह कई बार फेल हो चुका था. टाट पट्टी पर भी वह सबसे पीछे बैठता. गुरूजी पढ़ाते रहते और वह उंगली नाक के छेदों में डाल कर घुमाता रहता. उसके अलावा दो गोरखाली  भाई बहन भी मेरे सहपाठी थे. लड़के का नाम था मसीना. लड़की का नाम याद नहीं. वे अक्सर पन्द्रह अगस्त व छब्बीस जनवरी को मिल कर एक गोरखाली गाना गाते थे. उस गाने के बोल थे- आज पनि जाम जाम, भोलि पनि जाम जाम, परसी ते गई जामला, इस्टेशन सामान बीरा ते माला, बीरानो भई जामला---  
हमारे स्कूल के पास कारबारी में एक ज़मींदार रहते थे. करीब सौ बीघा जमीन थी उनकी. वे दर असल बिहार की डुमराव जागीर के जागीरदार के मुनीम थे. उनके तीन बच्चे मोहन सिंह, लल्लन सिंह तथा चन्दकिशोरी भी उसी स्कूल में पढ़ते थे. मेरा चूड़ा कर्म संस्कार तब तक नहीं हुआ था. मां मेरी दो चोटियां बांधा करती थी. मोहन सिंह मेरी चोटियां देख कर मुस्कराता, कभी हंस भी देता था. मुझे बहुत शर्म लगती थी. लल्लन कभी नहीं चिढ़ाता था.   चंदकिशोरी मेरी बड़ी बहन के साथ पढ़ती थी. वह बहुत सुंदर थी. चांद सा उसका गोल चेहरा , कच्चे दूध सा उसका गोरा रंग और बड़ी बड़ी आंखें आज भी मेरी यादों में उसी तरह ताज़ा हैं. वह मुझे और मेरी बहन को कई बार अपनी हवेली पर भी ले गई. अपने बाग से  उसने कई बार हमें नाशपाती अमरूद व आम भी खिलाए. पता नहीं क्यों, वह अक्सर एकटक मुझे देखती रहती थी. मैं भी शर्मीला था लेकिन पता नहीं क्यों करीब पाकर मैं अपलक उसे निहारता रहता था.
बाद में मुझे पता चला कि चंदकिशोरी  अपने देश बिहार चली गई थी.पता नहीं क्या रोग लगा उसे कि दिन प्रति दिन वह सूखती चली गई. एक बार फिर उसके माता पिता उसे वापस लाए भी कि शायद वह ठीक हो जाए. तभी कई साल बाद उसे देखा. वह बहुत कमजोर हो गई थी. सदा प्रफुल्लित रहने वाला चेहरा मुरझाया हुआ था. वे बड़ी बड़ी आंखें अब न जाने किस कल्पनालोक में खोई रहतीं. मुझे देख कर एक फीकी सी मुस्कराहट उसके गुलाबी होंठों पर उभर आई. मुझे लगा कि उसकी आंखें कुछ कहना चाहती हैं, पर शब्द जुबान पर नहीं आ पाते. बस, वही आखिरी मुलाकात थी. उसके बाद वह वापस बिहार चली गई, और ---- और फिर एक मनहूस दिन मुझे खबर मिली कि चंदकिशोरी इस दुनियां को छोड़ कर चली गई.     
मुझे आज भी अच्छी तरह याद है. रात के अंधेरों मे पके धान के खेतों से होते हुए जब चार किलोमीटर दूर बड़े, छोटे सब मिल कर रामलीला देखने जाते. थकान का नामो निशान भी न रहता. वापस आते आते रात के दो तीन तक बज जाते. मुझे यह जान कर खुशी होती थी कि उस रामलीला कमेटी का गठन पिता जी ने ही किया था. मेरी बुडी जी (दादा जी की बहन) के लड़के, यानी मेरे चाचा श्री त्रिलोकी प्रसाद भट्ट राम के रोल मे बहुत खूबसूरत लगते थे. उनके छोटे भाई श्री भास्करानन्द भट्ट जी भी भरत के रोल में खूब फबते थे. दोनो भाइयों का गला भी बहुत सुरीला था. उस रामलीला के पद्य पिता जी ने ही रचे थे. मुझे राम वन गमन का वह दृश्य आज भी ज्यों का त्यों याद है, जब भीगी आवाज में राम बने त्रिलोकी चाचा गाते थे--- उतारूं राज के कपड़े, बनाऊं भेस मुनियों का, रमाऊं भस्म सब तन में, जो है माता तेरे मन में---
या फिर पर्दा खुलते ही राम लक्ष्मण व सीता जी की जोड़ी स्टेज पर घूमते हुए गाती थी--- हमारी सुध लीजो दीन नाथ -----
ताड़का का वह विकट मेकप तथा संवाद भी मुझे याद है, जब वह स्टेज पर राम चन्द्र जी के आगे नाचते हुए कहती थी--- ताड़का मैं ताड़का मैं ताड़ करती हूं, तेरे जैसे वीरों का संहार करती हूं—
होली पर दोस्तों के साथ हम झूम झूम कर फाग गाते. पूरी टोली हर घर पर जाकर फाग गाती, वहां खूब आदर सत्कार होता, गुझियां, गुड़ और कहीं कहीं मिठाइयां भी खाने को मिलतीं । गुलाल भी लगाया जाता था लेकिन ज़्यादा चलन पानी के रंगों का ही था. टेसू के फूलों का सुनहरा रंग बांस की बनी पिचकारियों में भर कर लोग एक दूसरे पर फेंकते थे.
मेरी मां देहरादून आई तो मेरे नाना जी भी हमारे पड़ोस में आ बसे. बुडी जी विधवा थीं. पिताजी उन्हें भी देहरादून ले आए. एक और परिवार पातीराम उनियाल जी का हमारे घर के पास बस गया. गढ़वाल से पिता जी पुस्सू मिस्त्री को भी ले आए. वह भी हमारे घरों के पास बस गया. नन्द लाल बडोनी जी एक महकमे मे बाबू थे. वे भी वहीं बस गए. बुडी जी की लड़की यानी हमारी फूफी भी वहीं बस गई थी. इस तरह पिता जी ने एक छोटे से गांव डौंक वाला को एक अच्छे खासे गांव में बदल दिया था. वरना पहले तो वहां लंबरदार जी की हवेली, झींवरों के कुछ घर व अनुसूचित जाति का एक बगड़ ही था. हां, एक घराटी पंडित जी का भी परिवार था, जो बाद मे गोदाम मे नौकरी लग जाने से देहरादून चला गया. या फिर नारायण दत्त ममगाईं जी थे, जिनके यहां सबसे पहले आकर पिता जी रुके थे.
नारायण दत्त मामा जी के पिता श्री जोगेसुर दत्त जी अंतिम समय मे पागल से हो गए थे. वे हमारे घर आ कर भजन गाते रहते—इकला चलना बादल लगना, मुझे डर लगती जंगल की. थोड़ा नाम हरी का जप लूं, भय मिट जाती सब तन की.
वे एक और  गढ़वाली गीत भी गाते थे--- यीं जिन्दगी को दिन एक आलो, वारंट लीक यम त्वे बुलालो, धर्यूं ढकायूं यखि छूटि जालो वारंट लीक यम त्वे बुलालो---   
भुड्डी गांव में भारत विभाजन के बाद लाला चुन्नी लाल जी का परिवार भी आकर बसा था. उन्होने वहां परचून की दुकान खोली थी. उनके नौकर थे डंगवाल जी, जो काफी बूढ़े थे. वे पीठ पर रस्सियों से गेहूं की बोरी बांध कर हमारे गांव मे चक्की पर आटा पिसाने आते थे. रास्ता हमारे घर के बिल्कुल बगल से जाता था. हमें उनके आने का बहुत इंतज़ार रहता था. वे जब भी आते, हम बच्चों के लिए जेब में मिठाई के बने हाथी, घोड़े, बैल, ऊंट वगैरह लेकर आते. उन्हें दूर से ही आता देख हम सभी बच्चे उन्हे हाथ जोड़ कर नमस्ते करने लगते. वे भी रुक कर जेब से खेल की रंग बिरंगी मिठाइयां  या चूसने वाली गोलियां हम सभी के हाथों पर रखते और फिर आगे बढ़ जाते. कभी कभी मिठाई नही मिलती थी. वे उस दिन कहते कि आज दुकान बंद थी. हम सभी बच्चे तब उदास हो जाते थे. उनका कृशकाय शरीर, तोते जैसी घूमी हुई लंबी नाक, सिर पर दोपलिया टोपी और सदा मुस्कराता चेहरा, आज भी मुझे याद आता है.   
लाला चुन्नी लाल जी बहुत धार्मिक किस्म के इंसान थे. वे अपने माता पिता का श्राद्ध बड़ी श्रद्धा से हर साल किया करते थे. उनके पुरोहित पिता जी थे. उनके यहां सराध मे हम दोनो भाइयों को जीमने का न्यौता हर साल मिलता था. हम भी साल भर उस दिन का इंतज़ार करते थे. वे नरम नरम छोटी छोटी पूड़ियां, इलायची की खुशबू वाली वह मीठी खीर, साबुत उड़द की वह गाढ़ी दाल, सूजी का हलवा, तथा तोरी आलू का वह हींग के छौंक वाला तरीदार साग मुझे आज भी नहीं भूलता. लाला जी तथा उनकी धर्मपत्नी हमारे पांव धुला कर हमें बड़े प्यार से भोजन कराते थे. आज वह श्रद्धा, वह पितरों के प्रति समर्पण का भाव बहुत कम देखने को मिलता है. जब कव्वे का ग्रास देने लाला जी बाहर आते और काकोस काकोस की आवाजें लगाते तो बीसियों कव्वे उनके चारों तरफ कां कां करते मंडराने लगते.
मुझे याद है, जब हम लोग मोहनपुर गांव मे बसे, तब तक छोटे मामा जी फौज मे भर्ती हो चुके थे. उन्हें रेडियो का बहुत शौक था. उनके पास मर्फी कंपनी का ट्रांजिस्टर रेडियो था, जिसे हाथ में लेकर छुट्टियों में वह बजाते रहते थे. उनके पास एक आग्फा कंपनी का कैमरा भी था. जब वह छुट्टी आए तो मोहनपुर से मुझे अपनी साइकिल मे बिठाकर शुक्लापुर ले गए. रास्ते मे मुझे ट्रांजिस्टर थमा कर उन्होने मेरा फोटो खींचा. वह फोटो आज भी मेरे पास सुरक्षित है. छुट्टी बिता कर जब वह वापस जाते तो मुझे पांच रुपए का नोट जरूर देते. उनका वह प्यार भी मैं कभी नहीं भूल सकता.
बुडीजी, फूफी व पातीराम जी के परिवार भी शुक्लापुर मे आ गए. डौंकवाला गांव एक बार फिर उजड़ गया.    
नानी मुझे, और नानाजी मेरे छोटे भाई गिरीश को विशेष प्यार करते थे. हमारे मोहन पुर आने के बाद वे भी डौंकवाला छोड़ कर शुक्लापुर में बस गए. एक बार शुक्लापुर मे नानी जी के यहां गाय ब्याही थी. मुझे खीस खाने का बहुत शौक था. नानी जी का बुलावा आया कि दो चार दिन के लिए नाती को भेज दो. मैं पहुंच गया. रात को नानी अपनी तरफ से अलग खीस देती, नानी जाती तो बड़ी मामी चुपके से दो चार करछियां खीस और मेरे कटोरे में  डाल देतीं. दो तीन दिन खूब खीस खाई. सोचता हूं आज वह रिश्ते, नाते क्यों बदल गए. कहां गया आपस का वह प्यार.
मेरे चाचा लोग भी गढ़वाल से समय समय पर आते रहते थे. सबसे छोटे चाचा श्री अमर दत्त थपलियाल जी को पिता जी ने पढ़ने अपने पास बुलाया था. चाचा जी शाम को किताब लेकर लंबरदार जी की समाद(समाधि) पर जाते. यह एक ऊंची जगह पर यह पक्का कमरा बना हुआ था इसमे दो खिड़कियां व एक दरवाजा था. इस समाधि पर बैठ कर चाचा जी गाना गाते रहते थे.---- कि छत पर आ जा गोरिये जिंद मेरिये--- तेरी चाल है नागन जैसी—कि छत---
फिर चाचाजी का दिल नहीं लगा, और वे चुपचाप बगैर बताए वापस गढ़वाल चले गए.
मेरे पिता जी एक जागरूक नागरिक भी थे. सन साठ मे सरकार की तरफ से हर गांव को एक ट्रांजिस्टर रेडियो सेट मिलता था. इसमे एक लाउडस्पीकर एक वायर एंटेना तथा एक बैटरी होती थी. एक बैंड के इस रेडियो पर मीडियम वेव आता था. पिता जी ने इस रेडियोला नामके सेट को अपने घर पर लगवाया. इसका स्पीकर छत पर रखा गया, जहां से सारे गांव के लोग आकाशवाणी से खबरें सुनते थे. दिन भर कभी खबरें, कभी फिल्मों के गाने तो कभी नाटक, कहानियां वगैरह आते रहते थे.  आज पचास साल बाद भी वह रेडियोला मेरे घर पर सुरक्षित है. मैं इसके भीतर एक चकरी घुमा कर स्टेशन बदलना जान गया था. सच तो यह है कि बाद में इलेक्ट्रॉनिक्स में मेरी रुचि तभी से पैदा हो गई थी. भौतिक विज्ञान में एमएससी इलेक्ट्रॉनिक्स मे विशेषज्ञता सहित करने मे इस रेडियोला का बहुत बड़ा हाथ रहा है. 
पिता जी के हम आठ बच्चे थे. इतने बच्चों का लालन पालन करना आसान काम नहीं था. फिर ऊपर से उनकी आकाश वृत्ति थी. नकद आय का साधन या तो दूध बेचना था या फिर बासमती धान बेचना. पूजा पाठ से ज्यादा कुछ नहीं मिलता था. पर सारी जिम्मेदारियां निभाते हुए भी वह अपने निजी शौक पूरे कर लेते थे. उन्हें संगीत का बहुत शौक था. पिता जी ने हारमोनियम, ढोलक, खड़ताल(करताल), चिमटा(मंजीरा), घुंघरू आदि कई वाद्य यंत्र खरीद लिए थे. रोज शाम को वह हारमोनियम लेकर बैठते. गाइये गणपति जग बन्दन---संगीत संध्या शुरू होती. फिर अपने बनाए भजन फिल्मी धुनों पर गाते. कभी श्री राम चन्द्र कृपालु भजमन--- तो कभी अच्युतम केशवम राम नारायणम—का सस्वर पाठ होता. गांव के कई लोग उस मंडली मे नियमित रूप से आते, कोई ढोलक तो कोई करताल तो कोई मंजीरा बजाने लगता. फिर शुरू होते पिता जी के स्वरचित भजन—चलो भवन मे माता जी के मिल कर गीत गाएंगे--- या फिर जै जै माता ज्वालपा , जगमग ज्योती ज्वालपा, भक्तों की हितकारिणी दुष्टों की संहारिका----संगीत से  हम सभी भाई बहनों का लगाव शायद उन्हीं भजन संध्याओं की देन है.
मुझे वह दिन भी याद है जब सुबह सुबह पिताजी चाभी लेकर अपना लोहे का बक्सा खोलने आए थे. उसे वह ट्रंक कहते थे. उसमे उनके पैसे व कीमती चीज़ें रहा करती होंगी- ऐसा मैं समझता था. मैं उस वक्त वहीं खड़ा था. जैसे ही वह ताले की तरफ बढ़े, उनके पैर ठिठक गए. उन्होने देखा, ताला टूटा हुआ था. बक्सा खोल कर देखा तो उन्होने माथा पीट लिया. उसमें ढाइ हजार रुपए गायब थे. सिर्फ रेजगारियों से भरा लोटा वहां रखा था. पिता जी को बुआ जी के लड़के, यानी त्रिलोकी चाचा के दोस्त पर शक हुआ, जो कल रात ही वापस देहरादून लौटा था. वह बनारस का रहने वाला था. पिता जी ने पुलिस मे रिपोर्ट लिखाई. फैसला होने के बाद वापस मिलने की बात कह कर पुलिस ने पैसे मालखाने मे जमा करा दिये. कई साल बाद फैसला हुआ. पिता जी को सिर्फ सात सौ रुपए मिले. बाकी कहां गए –पता नहीं चल पाया.

पांचवीं के बाद झींवरहेड़ी या आसपास पढ़ाई की व्यवस्था नहीं थी. मेरी बड़ी बहनें सातवीं व छठी   क्लासों में  पहुंच गई थीं. वे पांच किलोमीटर दूर प्रेम नगर के डीएवी इंटर कालेज मे जाने लगी थीं. मैं तब तीसरी पास कर चुका था. दो साल बाद मुझे व मेरे छोटे भाई गिरीश को भी वह झींवरहेड़ी का प्राइमरी स्कूल छोड़ना ही था. यही सोच कर मेरे पिता जी ने वह गांव छोड़ने का फैसला कर लिया. भले ही वहां लकड़ी घास पानी की कोई कमी न थी. वहां अच्छी किस्म की बासमती भी खूब पैदा होती थी, जमीन भी पिताजी के पास करीब चौदह बीघे हो गई थी, लेकिन बच्चों की शिक्षा के कारण उन्हें गांव छोड़ने का अप्रिय फैसला लेना पड़ा. उस वक्त मेरी उम्र कोई ग्यारह साल रही होगी, जब हमारा परिवार उस गांव को अलविदा कह कर मोहन पुर नाम के गांव में आ बसा. यह गांव प्रेमनगर नाम के छोटे से बाजार से सटा हुआ था, व देहरादून शहर से भी करीब दस किलोमीटर की दूरी पर था.
एक बार फिर वही विस्थापन का दर्द, बचपन की उन मधुर यादों का सिलसिला एक बार फिर टूट जाता है. एक बार फिर से नए दोस्त, नए पड़ोसी, नए खेत खलिहान, नया स्कूल- सभी कुछ तो नया था. बहुत समय लगा इस नए के अनुसार ढलने में. व्याकुल मन बार बार डौंकवाला के उन्हीं खेत खलिहानों में भाग जाता, बारिश में उफनती मटियाले पानी से भरी आसन नदी की पागल लहरों में खो जाता , बासमती के हरे, पानी से भरे खेतों की मेंडों पर जा पहुंचता, और वरुण के पेड़ों की खोखलों से झांकते तोते, कठफोड़वे, या खंजन के छोटे छोटे रोमिल देह के आंख मूंदे पखेरुओं के पास पहुंच जाता, या फिर नदी के किनारों के दोनों तरफ बने बिलों से झांकते नीलकंठ(किंगफिशर) के पखेरुओं को टकटकी लगा कर देखने लगता. कभी घुग्गी पक्षी के चितकबरे दो अंडों की कल्पनाओं में मन खो जाता तो कभी टपरी बना कर धान की पौध की रखवाली करते जेठ की सुनसान, भरी दुपहरी में मन खो जाता. बड़ी मुश्किल, बड़ी तकलीफ होती है यादों के उस स्वर्गीय अतीत से यथार्थ के वर्तमान नरक में आते हुए.
शायद तभी पिताजी ने मुझसे वचन लिया था कि बेटा अब यहां से कहीं और जाने की मत सोचना.

सोचता हूं पिता जी ने ठीक ही तो कहा था. पिछले करीब एक हजार साल से हमारा परिवार  विस्थापन की पीड़ा झेल रहा है. आखिर कब तक चलता रहेगा यह सिलसिला. उम्मीद करता हूं कि यह पड़ाव पहले  से ज़्यादा टिकाऊ साबित होगा. 

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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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