शकुनि की
चालों में फंसे पांडव राज-पाट हार कर वनों कें भटक रहे थे। पुरोहित धौम्य भी उनके
साथ थे । वनवास के दौरान एक बार युधिष्ठिर ने कुल-पुरोहित धौम्य जी से कहा – ‘हे महर्षि’ ! इस भारत वर्ष में कौन – कौन से तीर्थ हैं तथा वहां
जाने से किन पुण्यों की प्राप्ति होती है ? धौम्य बोले – ‘हे धर्मराज, माघ की ठंड अब खत्म होने को आई । क्या ही अच्छा हो कि हम
लोग तीर्थ-यात्रा पर निकल पड़ें ! मैं तुम्हें हर तीर्थ की
महिमा भी बताता चलूंगा ।‘
प्रस्ताव सभी पांडवों को अच्छा लगा ।
यात्रा शुरु हो गई । जगाधरी के जंगल (द्वैतवन) से निकल कर वे दक्षिण दिशा की ओर
बढ़े ।
निर्जन और
उजाड़ पड़े खेतों से गुजरते हुए युधिष्ठिर ने पूछा – हे ब्रह्मन ! ये हजारों हेक्टेअर खेत उजाड़ क्यों
पड़े हैं ? यह कौन सी जगह है
?
धौम्य
ने कहा – ‘युधिष्ठिर ! यह दादरी तीर्थ है । ये सारे खेत यहां की सरकार ने छीन कर सेज़ बनाने के
लिए अंबानी को बेच दिये हैं । बेघर हुए किसान अपने खेतों को, अपने प्यारे गांव को
अब भी टुकुर-टुकुर देखा करते हैं । याद किया करते हैं बचपन के दिनों को, जब वे
दादरी की माटी पर खेलते हुए बड़े हुए थे । पेड़ कट गया है । घोंसले छिन्न-भिन्न हो
गए हैं । घोंसलों में पल रहे पखेरु – जिनकी आंखें भी नहीं
खुली थीं, रोम तक नहीं उगे थे-वही पखेरु सख्त तपती जमीन पर तड़प-तड़प कर दम तोड़ रहे
हैं । ‘
युधिष्ठिर आह
भर कर बोले – यह जमीन सब को खा गई । कितने बड़े – बड़े
चक्रवर्ती राजा हुए ? समुद्र तक की सारी भूमि जिनके अधिकार
में थी । पर आज उनका नाम – निशान भी नहीं बचा । जमीन आज भी
वहीं हैं । गुरुदेव ! यह बेचैन, मदान्ध इन्सान और ये पत्थर
–दिल सरकारे क्यों छीनते हैं गरीबों की जमीनें ? क्या ये बंजर जमीनों को आबाद नहीं कर सकते ? भला ये कोई बात है कि गांव कें गांव उजाड़ दिये जाएं ?
‘ऐसा ही होता आया है युधिष्ठिर ! गरीब की जोरु ही
दुनिया की भाभी बनी है, चाहे वह सतयुग, त्रेता हो या फिर द्वापर ।‘ धौम्य ने कहा ।
फिर खामोशी छा
गई । वे लोग आगे बढ़ गए । तीसरा पहर होते-होते वे एक आधुनिक नगर में पहुंचे ।
चमचमाती चौड़ी सड़कों पर बेशकीमती गाड़िया दौड़ रही थीं । खूबसूरत ऊंची ऊंची इमारतें व
कारखाने चारों तरफ दिखाई पड़ते थे ।
युधिष्ठिर ने पूछा – हे महर्षि ! यह कौन सी जगह है तथा इसका क्या महात्म्य
है?’ धौम्य मुस्करा कर बोले – चकरा
गए धर्मराज ? अरे
यही तो गुरुग्राम था जहां आचार्य द्रोण तुम राजकुमारों को शस्त्र विद्या सिखाया
करते थे ! आजकल इसे
गुड़गांवा कहते हैं । अभी कुछ दिन पहले यहां के एक कारखाने के मजदूरों को पुलिस ने
बेरहमी से मारा था । सड़कों पर लाशें बिछ गईं । खून की नदिया बहने लगीं । इस तीर्थ में आकर मानव के दिल से ‘प्रेम’ ‘करुणा’, ‘अहिंसा : भाईचारा’ जैसे
कलुषित विचार समूल नष्ट हो जातें हैं । वह अनेक अश्वमेध यज्ञों का फल – बगैर कुछ किये ही पा लेता है ।‘ क्या आप लोग यहां
विश्राम करेंगे ?
‘नहीं गुरुवर ! ऐसी क्रूर अमानवीय जमीन पर हम बिल्कुल नहीं ठहर
सकते । हमें आगे ले चलिए । ‘- पांडव बोले । सभी लोग एक क्षण का विश्राम लेकर
फिर आगे बढ़ गए।
चलते
– चलते सांझ होने को आई । वे इन्द्रप्रस्थ
(दिल्ली) के समीप के एक उपनगर में पहुंचे । वहां चारों तरफ रोते – बिलखते औरत-मर्द इकट्ठा थे । पुलिस की मौजूदगी में एक बुलडोजर नाले की
कीचड़ उठा कर बाहर रखता जा रहा था ।
युधिष्ठिर
उत्सुकता न रोक सके । पूछने लगे – हे महामुने ! यह कौन सी जगह है? ये स्त्री-पुरुष सिर धुनते,
छाती पीटते क्यों रो रहे हैं ? ये मशीन नाले से क्या उठा
रही है । कृपया हमें विस्तार से बताइये ।
इस
पर धौम्य बोले – हे वीरों ! आपने बड़ा ही उत्तम प्रश्न पूछा है । आप जानते ही होंगे कि दो अत्यंत
क्रूर राक्षसों ने सत युग में जन्म लिया था । उनके नाम थे हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु
। जब तक उनका संहार नहीं हो गया – उन्होंने लोगों का जीना
दूभर बनाये रखा । नृसिंह अवतार लेकर भगवान विष्णु को उन्हें मारना पड़ा । वे
दोनों त्रेता युग में रावण तथा कुंभकरण बन कर फिर पैदा हो गए । एक बार फिर उन
दोनों ने इस धरती पर खून की होली खेली । अधर्म का राज्य स्थापित कर दिया । भगवान
को फिर अवतार लेकर उन दोनों का संहार करना पड़ा ।
हे युधिष्ठिर ! आज फिर वही पिशाच मानव योनि में जन्म लेकर मानवता की धज्जियां उड़ा रहें
हैं । इस जन्म में इनके नाम हैं मोनिंदर अंधेर तथा कुरेन्द्र कोली । इस नोएडा
नामक उप नगर में अंधेर राक्षस की कोठी है । ये मशीन इसी कोठी के पीछे वाले नाले से
कीचड़ मिट्टी उठा रही है । इस नाले से करीब चार सौ बच्चों के कंकाल मिल चुके हैं ।
पॉलीथीन के थैलों में पैक बच्चों के गुरदे, फेफड़े, दिल व हाथ पैर कटे मिले हैं ।
ये दोनों नर पिशाच नन्हें बच्चों के साथ अमानवीय अत्याचार करने के बाद उनके अंग
काट-काट कर टुकड़े करते थे । ये दोनों
चाहते थे कि इस बार वे ऐसे – ऐसे हैवानियत व दरिंदगी के
नमूने पेश करें जो अब तक के मानव – इतिहास में कोई न कर सका
हो ।
लेकिन
दुर्भाग्य वश इनका यह नरमेध गुप्त न रह सका । निठारी गांव का इक्का- दुक्का घर
ही शायद बाकी बचा हो, जहां से बच्चे
गायब न हुए हों ।‘
फिर एक क्षण ठहरकर
धौम्य बोले । - हे वीरों ! संध्या बाल हो गया
क्या यहीं विश्राम करें ?’
‘नहीं गुरुदेव ! इस पापी भूमि का तो जल पीना भी
महापाप है । हम यहां एक पल भी नहीं रुकना चाहते । पांडवों ने एक स्वर से यह बात
कही तो धौम्य भी उस नगर के मुख्य द्वार से बाहर निकल आये ।
वह रात सभी ने
नगर के बाहर सड़क पर ऊंघते हुए बिताई, अगले दिन मुंह अंधेरे ही उठ कर वे दक्षिण – पश्चिम दिशा की ओर बढ़े । चलते-चलते वे एक ऐसे नगर के समीप से गुजरे, जो
गुलाबी पत्थरों से बना था। पांडवों ने
पूछा – हे महामुनि ! यह कौन सा नगर है
तथा यह क्यों प्रसिद्ध है ?
धौम्य
ने उत्तर दिया – हे पांडवों ! यह उपप्लव्य (जयपुर) नामका नगर है । यहां का शासन ऐसे लोगों
के हाथ में हैं, जो लम्बे-लम्बे तिलक लगाये रहते हैं, भगवे कपड़े पहन, मंदिरों
में घंटों पूजा करते हुए फोटो खिंचवाते हैं । व अपने बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाते
हैं । जो विपक्ष में ‘स्वदेशी’ के
नारे लगाते हैं व सत्ता में आते ही ‘विदेशी पूंजी’ को देश में न्यौता देते हैं । पहले किसानों को अन्नदाता कहते हैं और पावर में आने के बाद उन्हें सिंचाई के लिए
बिजली तक नहीं देते । अगर संगठित हो कर किसान प्रदर्शन करते हैं तो पुलिस से उन्हें
बर्बरता से पिटवाते हैं । उस वक्त कौन कहेगा कि ये लोग भारतीय संस्कृति के
पुजारी हैं ?
धौम्य
चुप हुए । पांडवों ने ‘ शर्म’ ‘शर्म’ कहा । युधिष्ठिर बोले – गुरु जी, धर्म का ढोंग करके
सत्ता तक पहुंचना, सत्ता की चोटी पर पहुंच कर धर्म की ही धज्जियां उड़ाना क्या
मतदाता के साथ छल नहीं है ? विश्वासघात नहीं है ?
‘हे धर्मराज ! यह छल है, धोखा है, ढोंग है – किन्तु उनके लिए सत्ता तक पहुंचने का चोर रास्ता भी यही है । संस्कृति
की, मूल्यों की, नैतिकता की किसकों पड़ी है । सबको सत्ता चाहिए । चाहे वह धोखा
देकर ही क्यों न मिले । ‘
गरमी बहुत
तेज थी । पांडव थक गए थे व स्नान करना चाहते थे । महर्षि उनके मन की बात जान गए ।
फिर रुक कर बोले – हे वीरों ! गंगा सागर तीर्थ में स्नान करके हम कामरुप देश की यात्रा पर चलेंगे । आप
लोग मुझे छू कर आंखें बंद करें । सबने वैसा ही किया । पुरोहित धौम्य थोड़ी देर बाद
बोले – आंखें खोलिये ।
सबने देखा- वे
वंग देश में थे तथा एक उजड़ते हुए गांव से होकर गंगा की ओर बढ़ रहे थे । वह गांव
सुनसान था । कहीं कोई उत्साह, खुशी न थी । इक्का – दुक्का रोते-चीखते पगलाए लोग इधर ऊधर भाग दौड़ रहे थे । गांव में पुलिस
के तंबू लगे थे । गोलियों से भरी बंदूकें लिये पुलिस के सिपाही खाली खेतों की तार
बंदी करा रहे थे । पांडवों के पूछने पर धौम्य बोले – यह
सिंगूर तीर्थ है । यहां नहाने से बुद्ध देव नामक शासक के सारे पाप धुल गए हैं । वह
विशुद्ध पूंजीपतियों के मित्र के रुप में उभर गया है । युधिष्ठिर ने पूछा – हे महर्षि ! क्या वह पहले पूंजीपतियों का मित्र न
था । धौम्य बोले -
वत्स ! वह पहले मजदूरों-किसानों का मसीहा था । काफी लंबे
समय तक उनका बेवकूफ बनाता रहा । सत्ता का सुख भोगता रहा। फिर उसने किसानों – मजदूरों को धोखा देना शुरु किया । लखटकिया कारों के लिए उसने हजारों
किसानों की जमीनें छीन लीं और हथियारबंद पुलिस की मदद से उन्हीं किसान-मजदूरों को
मारने का प्रबंध कर रहा है । ‘
पांडव अभी कुछ
ही आगे बढ़े थे कि उन्होंने देखा – लोगों की भीड़ कम्यूनिस्टों
के हंसिये-हथौड़े वाले लाल झंडों को जला रही थी । भीड़ चीख रही थी – गद्दारों, धोखेबाजों होश में आओ । यह सिंगूर नहीं है । ‘
पूछने
पर धौम्य ने कहा – पांडवों, ये लेटेस्ट
‘नंदीग्राम तीर्थ’ है जहां कम्यूनिस्ट
किसान-मजदूरों की अंतिम क्रिया करके अपना इहलोक सुधारेंगे ।
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