आहत

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एक्सेलेंट रिज़ॉर्ट के आलीशान गेट पर खड़ा एक बूढ़ा आदमी दरबान से बहस कर रहा है- कैसे नहीं जाने देगा ? जानता नहीं इस रिज़ॉर्ट का मालिक मेरा  जूनियर था . मुझे उससे मिलना है.
सीसीटीवी पर देखते हुए वह बड़बड़ाया . .....अरे ! ये तो मिस्टर सेन हैं. कितने बूढ़े हो  गए  हैं ! इन्हीं के साथ काम करते हुए तो मुझे इस्तीफा देना पड़ा था. यह सब कुछ इन्हीं की बदौलत तो हुआ है. मुझे तो इनका शुक्रगुजार होना चाहिए. ... .....मिस्टर सेन न होते तो एक्सेलेंट रिज़ॉर्ट भी कहां होता ?
ज़िंदगी का एक बड़ा हिस्सा सिलसिलेवार आंखों के सामने जीवंत हो उठा. जैसे कल की ही बात हो............रक्षा अनुसंधान संस्थान में वैज्ञानिक था जब वह. तभी जानी मानी पेट्रोलियम कंपनी का भर्ती विज्ञापन अखबार में देखा उसने . कंपनी को  असम में उत्साही व जोखिम-पसंद इंजीनियरों की जरूरत थी. उसने आवेदन किया.  साक्षात्कार में पूछा गया कि असम क्यों जाना चाहते हैं तो उसका जवाब था- देश को मेरी ज्यादा जरूरत असम में है.
असम में कॉलोनी नहीं मिली. दफ्तर  से दूर  कस्बे में किराए का मकान लेना  पड़ा.  ज़मीन की भीतरी बनावट बताने वाले इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों तथा सरफेस सिस्टम की रिपेयर मेंटीनेंस– यही काम था उसका. वह मन लगा कर काम करने लगा. कभी फील्ड भी जाना पड़ता था. चाय के घने बागीचों, धान के हरे-भरे खेतों या फिर ताम्बूल,नारियल के ऊंचे ऊंचे पेड़ों के  बीच ड्रिलिंग रिग पर काम करना  स्वप्न लोक जैसा लगता था. घंटों  तक  लगातार काम करके भी वह थकता नहीं था.  
एक दिन जब वह लैब में रिपेयरिंग में व्यस्त था, बॉस ने उसे बधाई देते हुए कहा- घर से फोन आया था. यू हैव बिकम फादर,  कांग्रेचुलेशंस.  “थैंक्स” कह कर वह मुस्करा दिया और फिर जुट गया विदेश से आई नई मशीनों की कमीशनिंग में. तीन महीने का काम उसने एक महीने में ही पूरा कर दिया.  इस उपलब्धि के लिए उसे नकद पुरस्कार तथा प्रमाण पत्र से सम्मानित किया गया.

 उन्हीं मशीनों की रिपेयरिंग के लिए कुछ इंजीनियरों को विदेश भेजा जाना था. उसका नाम भी मुख्यालय को भेजा गया. लेकिन जब सूची अनुमोदित होकर आई तो उसका नाम गायब था. बहुत आघात पहुंचा था उसे. एक तरफ अच्छे काम के लिए पुरस्कार तथा प्रमाण पत्र, दूसरी तरफ उसी काम की ट्रेनिंग के लिए किसी और को भेजना ! आखिर क्या कमी थी उसमें ?     
            काम बढ़ता जा रहा था. थक कर जब वह चाय पीने जाता तो  ज्यादातर सहकर्मी  कैंटीन  में हंसी-मज़ाक कर रहे होते, चाय पीते हुए इधर उधर की गप्पें हांक  रहे होते. उसने थोड़ा गौर किया तो पाया कि कोई बॉस के बच्चों को लेने ऑफिस की गाड़ी से स्कूल गया है, कोई बॉस के घर सब्ज़ी, राशन  पहुंचा रहा है, कोई दौरे पर गया हुआ है तो कोई मेडीकल पर है. कोई आगे की पढ़ाई कर रहा है या फिर बच्चों को पढ़ा रहा है. काम पर उसके जैसे एक दो लोग ही क्यों दिखाई पड़ते हैं- अब उसकी समझ में आने लगा था.
            बढ‌ते जा रहे काम को वह देर तक बैठ कर निपटाने लगा. बाकी दोस्त खुल कर उसका मज़ाक उड़ाते, फब्तियां कसते और कहते कि देखो, बगैर काम किये भी हम बॉस के करीब हैं और तुम रात-दिन काम करके भी बॉस से बहुत दूर हो. उन्हें अनसुना कर वह काम में लगा रहता. पर भीतर ही भीतर उसे  दुख होता. कई बार वह वाशरूम में जाकर रोता. रो कर मन हल्का हो जाता. फिर मुंह धोकर बाहर आ जाता. शेक्सपियर की बात उसे हर वक्त याद रहती कि रोवो तो सिर्फ तुम्हारा तकिया गीला हो.  
उसने बहुत कोशिश की कि काम को वक्त पर निपटा कर वह बॉस की नज़रों में उठ जाए.  पर ऐसा न हो सका . उल्टे आरोप लगाए गए कि वह रिपेयरिंग ठीक से नहीं करता. उसके काम से बाद में दिक्कतें पैदा होती हैं.
             तय हुआ कि उसे क्षमता से बहुत नीचे का काम दिया जाए जैसे कि बाहर से आई डाक का रिकॉर्ड रखना, उन्हें रजिस्टर में  दर्ज़ करना, छोटी-मोटी खरीद करना तथा खराब उपकरणों की लिस्ट बना कर सीनियर्स को देना. इस तरह उसे मुख्य धारा से धीरे-धीरे अलग किया जाने लगा. अब वह मशीनों में नही रजिस्टरों मे डूबा रहता, या फिर दूसरे विभागों में रुकी हुई फाइलों की जानकारी लेता.

तभी साइस्मिक मशीनों की ट्रेनिंग पर उसे विदेश भेजा गया. वह हैरान था ! इन मशीनों का उसे कोई तजुर्बा न था. एक बार सोचा कि जाने से मना कर दे. लेकिन शुभचिंतकों ने सलाह दी कि ऐसा करना गलत  होगा. मैनेजमेंट एक्शन ले सकता है. उसने फैसले को मंज़ूर कर लिया.

ट्रेनिंग से लौटने पर उसका ट्रांसफर साइस्मिक विभाग में कर दिया गया. वहां फील्ड  पार्टी के साथ तंबुओं में रह कर काम करना होता था. वे दिन उसकी यादों के खूबसूरत दिन थे. कभी रात भर जाग कर भी वह मशीनें ठीक करता. रात के अकेलेपन में पार्टी चीफ पास आकर बैठ जाते, चाय नाश्ता चलता रहता. सुबह होने तक वह मशीनों को ठीक कर डालता.  ऑफिस के भीतर की राजनीति  यहां नहीं  थी.  फुर्सत के क्षणों में  खाना खा पीकर, सब लोग पार्टी चीफ के टेंट में इकट्ठे होते. देर तक गानों का दौर चलता. पार्टी चीफ खुद भी अच्छा गाते थे. कभी चुटकलों व किस्से कहानियों का भी दौर चलता.   

नए माहौल में पहले के अपमानजनक बर्ताव को वह भूलने लगा. उसे लगा- फील्ड पार्टी का माहौल उसके स्वभाव से ज्यादा मेल खाता है. यहां कोई किसी को नीचा नहीं दिखाता, बॉस से झूठी चुगली नहीं करता. फील्ड सीज़न ऑफ होने पर सभी लोग ऑफिस लौट आते व छह महीने तक आराम करते. पर वह लैब में आकर मशीनें रिपेयर करता. इससे नई मशीनों की जरूरत घट गई. बस कुछ स्पेयर पार्ट्स मंगाने पड़ते थे. उसे मन ही मन खुशी होती कि अपने छोटे से योगदान से उसने देश की लाखों रुपए की विदेशी मुद्रा बचाई है. तभी तो वेतन लेते समय उसके मन में कभी हीन भावना नहीं आई.
घर से बाहर रह कर भी ज़िम्मेदारियों का उसे पूरा ख्याल रहता था. छोटी बहनों के विवाह की चिंता लगी रहती. पिता जी बूढ़े हो रहे थे. छोटा भाई बेरोज़गार व बीमार था. उसके इलाज का खर्च भी काफी था. तकरीबन सारा वेतन वह घर भेज देता. कई बार वह मकान का भाड़ा तक नहीं  चुका पाया या फिर बच्चे का मिल्क पाउडर भी नहीं  खरीद सका,  लेकिन घर के लिए मनीऑर्डर करना वह कभी नहीं भूला. फिर भी घर की समस्याएं लगातार बढ़ती जा रही थीं. उसने ट्रांसफर के लिए आवेदन किया. घर के पास पोस्टिंग मिलने से उसे बहुत राहत मिली. अब दफ्तर के साथ साथ वह घर की ज़िम्मेदारियां भी निभा सकता था.
घटना चक्र एक बार फिर तेजी से घूमने लगा. नए मकान का काम शुरू हो गया. छोटी बहन की शादी  हो गईं. बड़े बेटे का एडमिशन अच्छे स्कूल में हो गया. एक और नए सदस्य –छोटे बेटे का भी इसी दौरान घर में आगमन हुआ.  
कुछ ही रोज बीते थे कि छुटकी का  रिश्ता भी आ गया. अंतिम जिम्मेदारी पूरी होने पर  मांजी-पिता जी गंगास्नान के लिए हरिद्वार गए थे. सत्य नारायण कथा उनके आने पर ही  शुरू होनी थी. रात के आठ बज चुके थे. तभी उसे खबर मिली कि पिता जी का एक्सीडेंट हो गया है. उन्हें अस्पताल में भरती कराया गया है. खबर वज़्रपात से कम न थी. सब कुछ छोड़ कर वह बदहवास सा अस्पताल पहुंचा. पिता जी दर्द से कराह रहे थे. दाएं पैर की हड्डी कई टुकड़ों में टूट गई थी जिन्हें सही बिठाया जा रहा था. दर्द के इंजेक्शन दिये जा रहे थे.
करीब दो हफ्ते बाद ऑपरेशन हुआ. प्लेट लगा कर व हल्का प्लास्टर करके पिता जी को अस्पताल से छुट्टी दे दी गई. दो साल तक उन्हें बिस्तर पर लेटे रहना पड़ा. 

उसकी व्यस्तता बहुत ज़्यादा बढ़ गई थी. इधर भाई व पिता जी की बीमारी, उधर महीने में दस-पन्द्रह दिन  बाहर रहने की मजबूरी. कई बार तो छोटे बच्चे को बीमार  छोड़ कर दौरे पर जाना पड़ता.  तभी एक रोज़ बताया गया कि साइस्मिक मशीनें खरीदी जाने वाली हैं, जिनका निरीक्षण करने उसे फ्रांस जाना होगा. घर व दफ्तर की तमाम परेशानियों के बावजूद उसे जाना ही पड़ा.  निरीक्षण में उसने टीम को पूरा सहयोग दिया. उसके काम की तारीफ हुई.

और ऐसे ही वक्त जब वह हालातों के साथ जद्दोजहद कर रहा था, उसे ट्रांसफर की खबर मिली. सुन कर  पिता जी परेशान हो गए. कहने लगे, 'मेरा कोई भरोसा नहीं है. हो सके तो एकाध साल और रुक जाना. अपने हाथों से मेरी मिट्टी ठिकाने लगा देना. ज्यादा कुछ नहीं मांगता'. भीतर ही भीतर जैसे वह समझ गए थे कि हालात रेत की तरह मुट्ठी से फिसलते जा रहे हैं. बड़े जीजा जी के गले का कैंसर पूरे शरीर में  फैल गया. मंझला भाई काफी सीरियस था. छोटे बेटे को एक्सीडेंट से सर पर गहरी चोट आई थी.

एक रोज़ जब दस दिन के दौरे के बाद  वह घर लौटा तो पिता घर पर नहीं थे. मालूम हुआ कि खून की उल्टियों के बाद गंभीर हालत में उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया है.
घर आते हुए, रास्ते भर वह यही सोचता रहा था कि सबसे पहले पिता को नए दांत लगाने के लिये मनाएगा. फिर  टेलीफोन कनेक्शन लेगा ताकि मां जी व पिता जी घर बैठे बहनों से उनके ससुराल में,  या फिर रिश्तेदारों से बातचीत कर सकें. होश संभालने से लेकर अब तक उन्होने दुख ही उठाए थे. कभी ऐसा वक्त नहीं आया जब दो रोटियां चैन से बैठ कर खाई हों. नये मकान का गृह-प्रवेश खुद अपने हाथ से करते ही उन्हें अस्पताल जाना पड़ा.  
वह उलटे पांव सीधा अस्पताल भागा. पिता अकेले कमरे में बिस्तर पर लेटे थे. देखते ही बोले- 'अच्छा हुआ तू आ गया बेटा. अब मुझे कोई इलाज नहीं कराना. मुझे घर ले चलो.' काफी समझाने पर भी वह न माने. आखिर डॉक्टर को डिस्चार्ज देना पड़ा.

घर आने के तीसरे दिन ही उन्होनें शरीर छोड़ दिया.

उसके जीवन में आने वाला यह सबसे भीषण, तूफान था.सबसे खतरनाक मोड़ था.  पिता की मृत्यु ने उसे भीतर  तक हिला दिया. उसके जीवन का सूर्य जैसे दुख के अंधकार में डूब गया. पहली बार उसे महसूस हुआ कि जिस बरगद की छांव में वह बेफिक्र बैठा था, आज वह धराशायी हो गया है. एक  साया, जो सर पर था, आज उठ गया है.  तेज़ धूप अब सीधे झुलसाने लगी है.....
भीतर से टूटने पर भी तूफानों से वह जूझ रहा था कि उसे प्रबंध विकास संस्थान में भेज दिया गया. वहां उससे कई उम्मीदें थीं -जैसे कि वार्षिक ट्रेनिंग कलेंडर डिज़ाइन करना, आइटी व कंप्यूटर ट्रेनिंग कराना, ऑडियो-वीडियो उपकरणों की खरीद, कंप्यूटर केन्द्र की देख-रेख, प्रशिक्षुओं के हॉस्टल में साइबर कैफे बनवाना आदि.
नई ज़िम्मेदारियों का बेतहाशा बढ़ता बोझ तथा कम होता स्टाफ- मुश्किल हालातों मे भी नई चुनौतियां उसने  बखूबी निभाईं. अच्छी सेवाओं के लिए उसे मेरिट अवार्ड व प्रमाणपत्र दिया गया. एक बार फिर उसे लगा कि कड़ी मेहनत रंग ज़रूर लाती है. आज अवार्ड मिला, कल प्रमोशन भी मिलेगा.
लेकिन संस्थान के प्रमुख श्री सेन के व्यवहार में भी उसने वही फर्क महसूस किया. अपने इलाके व भाषा वालों के लिये ज्यादा अपनापन, ज्यादा सहानुभूति तथा बाकी अधिकारियों के लिए एक ठंडापन और उदासीनता. इंसानी कमज़ोरी का वह खुला दिखावा उसे कचोटता था. फिर भी अपने काम पर उसे यकीन था कि प्रमोशन मिल जाएगा. आखिर दुनियां में देर है, अंधेर नहीं. लेकिन अगली  बार भी प्रमोशन लिस्ट से उसका नाम गायब था. ज्यादातर नाम बॉस के करीबियों के थे. बहुत दुख हुआ था उसे. किसे कहे अपना दुख ! कौन यकीन करेगा. क्या तरक्की का  पैमाना जाति, इलाका व संप्रदाय ही बने रहेंगे ? क्या कभी योग्यता व मेहनत के आधार पर भी तरक्की होगी ?  

निराशा व असंतोष उसके भीतर तेज़ी से पनपने लगे. आगे बढ़ने की दौड़ में पिछड़ते जाने से उसका उत्साह टूट गया. उसे लगा कि ऐसे पक्षपात भरे माहौल में रहने से वह हीन भावना का शिकार हो जाएगा. बॉस की संकीर्ण मानसिकता का दंड वह क्यों झेले ? क्यों नष्ट करे अपना कीमती जीवन ? क्यों जिये इस भावना के साथ कि वह अयोग्य है ?   नहीं ! वह इस अपराध-बोध के साथ नहीं जियेगा. वह साबित कर देगा कि वह काबिल है, उसे जान बूझ कर रोका जाता है.

मन ही मन कठोर फैसला कर लिया उसने. इस्तीफा देने का फैसला. वह अपना काम शुरू करेगा और एक दिन दिखा देगा कि राहें और भी हैं. दुनिया डिपार्टमेंटल प्रमोशन से बाहर भी है. ज़रूरत है सिर्फ आत्म विश्वास, मेहनत और धीरज की. दोस्तों और शुभचिंतकों ने बहुत समझाया कि इस्तीफा मत दो. कुछ और करना है तो बगैर नौकरी छोड़े करो. वेतन को पेंशन समझ कर लेते रहो. लेकिन ऐसी बेहूदी सलाहें उसे निहायत घटिया और आत्म सम्मान के खिलाफ लगीं. नहीं. वह भूखों मरना पसंद करेगा, मगर हराम का पैसा नहीं लेगा.
और फिर एक दिन ऑफिस जा कर उसने इस्तीफा दे दिया...................
....... विदाई समारोह जारी  था .मिस्टर सेन का संवेदनाहीन प्लास्टिक भाषण शुरू होते ही खत्म हो गया ..... डीयर फ्रेंड्स, अनफॉर्चुनेटली हमारे कुलीग मिस्टर राकेश आज रिटायर हो रहे  हैं. आइ विश हिम अ वेरी हैप्पी रिटायर्ड लाइफ.  मैं उनसे रिक्वेस्ट करता हूं कि इस मौके पर दो शब्द कहें ............... वह   डायस पर बैठा सुन रहा था उन्हें जो कल तक उसे गाली देते थे, पर तब  तारीफों के पुल बांध रहे थे  . लोग उसे सुनने को बेचैन थे. उसने भी किसी को  निराश नहीं किया. कसी हुई मुट्ठियां हवा में लहराते हुए बस इतना ही कहा था-- दोस्तो. यह इस्तीफा नहीं, दूसरी पारी की शुरूआत है. इस पारी में मैं अपना भविष्य खुद तय करूंगा. बहुत मुमकिन है कि जिन्दगी के किसी और मोड़ पर कभी  फिर आपसे मुलाकात हो जाए. तब तक के लिए अलविदा.

और उसके बाद !........अतीत से एकाएक वह वर्तमान में आ जाता है. एक्सेलेंट रिज़ॉर्ट के गेट पर खड़े मिस्टर सेन  अब भी सीसीटीवी पर दिखाई दे रहे हैं. दरबान को झिड़कते हुए  -मैं तुझे नौकरी से निकलवा दूंगा. जानता नहीं, मैं इस रिज़ॉर्ट के मालिक का बॉस हूं ?

  वह  इंटरकॉम पर कहता है, “ दरबान,  इन्हें भीतर भेज दो” .

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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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