
उम्र होगी कोई दस-ग्यारह साल । चीड़ के घने जंगल से गुजरती पगडंडी के एक तरफ सीधे खड़े पहाड़, तो दूसरी तरफ सैकड़ों फीट गहरी खाई । भारी बस्ता पीठ पर लादे वह स्कूल जा रहा था । गुरू जी देर मे आने से नाराज होते हैं । इसीलिए वह तेज़ कदम बढ़ाता साथियों से काफी आगे निकल आया था । छलनी हो गए कुरते पाजामे में ढका, पूस की बर्फ़ीली हवाओं में सूखे पत्ते सा काँपता कमजोर बदन । नुकीले पत्थरों की ठोकरों से लहू लुहान हो गए नंगे पैरों के नाखून । काले बांसे और करौंदे के जाने कितने काँटे तलुओं पर चुभे हुए। नजरें झुकाए, वह चला जा रहा था ।
अचानक उसकी नजर उठी। वह सहम गया। रास्ते के ठीक बीचों बीच
बैठा बाघ उसे घूर रहा था। गले से आवाज़ तक नहीं निकल सकी । बदन पसीने से तर हो गया
। अभी हफ्ता भर पहले ही तो उसकी सहपाठी देवेश्वरी नरभक्षी बाघ का शिकार बनी थी ।
आस पास के गाँवों की कई भेड़ बकरियाँ भी उसका निवाला बन चुकी थीं। दस-पंद्रह फीट की
दूरी पर वही मौत साक्षात खड़ी थी।
समय कम था । फैसला जल्दी ही लेना था।
धीरे धीरे वह कदम पीछे खाई की तरफ हटाने लगा। तभी अचानक बाघ ने हमला कर दिया। इससे पहले कि बाघ उसे दबोच पाता, वह पास खड़े चीड़ के
पीछे छिप चुका था । फिर भी बाएँ हाथ का कोना बाघ के पंजे से टकरा ही गया था। बाजू
से खून रिसने लगा। आँखों के आगे अंधेरा छा गया । पर जब घाटी से बाघ की दर्दनाक
दहाड़ उठी, और घाटी के आकाश पर चील कौए घिरने लगे, तब जाकर उसके होश-हवास लौट सके । स्कूल पहुँच कर गुरू जी ने
बस इतना ही कहा था – इतना होनहार बच्चा , और ऐसी
परेशानियाँ ! ये तेरा दुर्भाग्य है कि तू पहाड़ में पैदा हुआ-

------साठ साल बीत चुके हैं उस किस्से को । यही वह जगह है जहाँ पर उसका प्राइमरी स्कूल था। और सामने दिखाई दे रहा है चीड़ का वह जंगल, जहाँ नरभक्षी बाघ से एक दस बारह साल के विद्यार्थी का सामना हुआ था।
सुबह से ही आस पास के गाँवों से लोगों का आना जाना
लगा हुआ है। मुख्य द्वार के पास ही हरी भारी घास के लान मे सुनहरे रंग की आदमकद बुद्ध प्रतिमा लगी है। डॉ. विनोद उसके पास से गुजरते
हुए थोड़ी देर के लिए रुक जाते हैं।
सुनहरा रंग, आधे खुले नेत्र, मुख पर असीम शांति, वक्ष पर बना एक जलता हुआ दीपक ।
साथ चल रहे पत्रकार बुद्ध प्रतिमा को
एकटक देखने लगे तो मुस्करा कर पूछ बैठे डॉ विनोद- ‘कहाँ खो गए वागीश’ –
वागीश का ध्यान टूटा
। बोले-इस अनूठी बुद्ध प्रतिमा को देख रहा था। लगता है जैसे बुद्ध कह रहे हों - अप्प दीपो भव। बड़ा ही क्लासिकल टेस्ट है आपका
डाक्टर ।
-जीवन में मुश्किलें तो आती ही हैं वागीश जी, मगर वे मुश्किलें
किसी और की नहीं, हमारी होती हैं। उनका हल हमें ही निकालना होता है। यह उम्मीद करना कि अपना
काम-धंधा छोड़ कर कोई हमारे अंधेरे रास्ते में दीपक लिए खड़ा होगा- क्या बेवकूफी नहीं
है ?
फिर कुछ ठहर कर बोले- यह बुद्ध
प्रतिमा बताती है कि हमें अपना दीपक आप ही
बनना होगा।
धाराप्रवाह बोलते जा रहे डॉक्टर विनोद को शायद ध्यान नहीं था कि
वह देश के जाने माने टीवी चैनल को इंटरव्यू दे रहे थे, जिसे पूरा देश लाइव
देख रहा था।
‘राजा
के समय में पहाड़ में स्कूल बहुत कम थे –पढ़ाई
में मुश्किलें तो आई होंगी’?
‘जी, ठीक कहा आपने’ – वागीश के सवाल का उत्तर देते हुए डॉक्टर विनोद उस तरफ चल पड़े गए, जहाँ उनके मामा पूजा की तैयारियाँ करा रहे थे। बूढ़ा जर्जर शरीर, कमर झुकी हुई-----क्या ये वही मामा हैं ?
डॉ. विनोद की आँखों के सामने बीते हुए वे कुछ दिन सजीव हो
उठे।
--------प्राइमरी अच्छे नंबरों से पास करने के बाद मिडिल करना
चाहता था बीनू। पर बाबा ने हाथ खड़े कर दिये । दस नाली जमीन मे आठ आदमियों का
परिवार किसी तरह जिंदगी की कूड़ागाड़ी खींच रहा था । सौ पचास का घी बिकता भी था तो वह
गुड, नमक, कपड़े लत्तों पर ही लग जाता । हाईस्कूल ननिहाल के पास था। पर मामा अक्खड़
थे। रिश्ते –नातों की कभी परवाह नहीं की उन्होने। खूब लंबा चौड़ा डील डौल था। पर माँ की बात बड़ी मुश्किल से मान ली थी
उन्होने। बहुत खुश हुआ था बीनू, कि अब वह आगे पढ़ सकेगा। पुराने थैले मे अपने सब कपड़े-लत्ते व किताबें भर
कर आ गया था ननिहाल ।
ननिहाल की दिनचर्या घर जैसी न थी।
घराट से आटा पिसवाना, सुबह शाम धारे से पानी की गागरें भर कर लाना, गोबर
उठाना, गाय दुहना और
फिर रूखा सूखा खा कर स्कूल भागना। छुट्टी
के दिन खेतों मे हल भी जोतना पड़ता। स्कूल मे अक्सर वह लेट पहुँचता। मास्टर जी डाँटते, मुर्गा
बनाते और वक्त की पाबंदी पर लंबा चौड़ा भाषण देते। बगैर कुछ बोले, धूप में मुर्गा बना वह चुपचाप सुन लेता ।
तीन साल किसी तरह बीते
। परीक्षा का परिणाम निकाला । वह प्रथम आया
था। मन मे खुशी थी कि अब वह नवीं कक्षा मे बैठेगा, किन्तु मामा ने रौबदार गरजती आवाज में आदेश सुनाया - काफी हो गई
पढाई-लिखाई। अब खेती-बाड़ी देखो । बूढ़ा बाप कब तक हल लगाता रहेगा।
सुन कर
बहुत बुरा लगा था उसे । जी चाहा कि मामा
को बता दे कि आपके बच्चे नही पढ़े तो मेरा क्या कसूर। मैं तो पढ़ना चाहता हूँ। पर वह
चुप रह गया। एक बार फिर उसे अपना दीपक खुद ही बनना पड़ा । घर जाने की बात कह कर वह
सीधा शहर चला आया। जेब मे फूटी कौड़ी तक न थी। न खाने का ठिकाना, न ठहरने का । दो दिन
तक सड़कों पर भूखा-प्यासा भटकता रहा । तीसरे दिन एक ढाबे के सामने से गुजर रहा था तो कदम ठिठक गए। ललचाई नजरें खाना
खाते लोगों को देखने लगीं । ढाबे के मालिक जोशी जी अनुभवी थे। जिंदगी मे कई उतार
चढ़ाव देख चुके थे। उन्होने इशारे से बुलाया।
‘क्या नाम है बेटा। कहाँ से आया है’ –
उसका मन भर आया। मुँह से शब्द नहीं निकल सके। वह सिसकने लगा। जोशी जी ने
प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा। भरपेट खाना खिलाया, फिर ढाबे पर बर्तन धोने का काम दिया। छत पर
एक छोटा सा कमरा खाली था। रहने का इंतजाम उसी मे हो गया। हाँ, महीने के वेतन की जगह दो वक्त का खाना तय हुआ ।
नवीं कक्षा मे दाखिला
जोशी जी ने ही दिलाया । मुँह सबेरे उठ कर ढाबे मे झाड़ू-पोचा करना, आलू उबाल कर छीलना, आटा गूँधना, पानी के ड्रम भरना, सब्जियाँ काटना, और फिर एकाध बासी रोटी चाय के
साथ खाकर कर स्कूल जाना- यह उसका रोज का
नियम था। स्कूल से आकर भी सबसे पहले जूठे
बर्तन माँजना, मंडी से सब्जियाँ लाना, दूकान
बंद होने पर भगौने परात वगैरह धोना, फर्श पर पोछा मारना और फिर
बचा-खुचा खाना खाकर ट्यूशन पढ़ाना- यह उसकी
शाम की दिनचर्या थी। ट्यूशन के बाद देर रात
तक वह अपना होमवर्क करता रहता ।
कभी कभी घर की याद आती। गर्मियों मे साथियों
के साथ जंगल जाना, जेब भर कर काफल लाना, कभी कुरते
का पल्ला भर कर बुरांस के सुर्ख फूल तोड़ना, कभी कुदाल लेकर जंगल में तैड़ू खोदने
जाना, चीड़ की लकड़ियाँ जला कर दीवाली को रात भर खेलना, कभी छुप कर धार के पीछे गाड मे मछली पकड़ने और नहाने जाना, वहाँ झाड़ियों
मे घुस कर पके हुए लाल लाल मीठे हींसर और किनगोड़ खाना ---------
बचपन की याद आती तो वह चादर मे मुँह छिपा कर रोने लगता । रोते रोते मन हल्का हो
जाता और वह फिर पढ़ने बैठ जाता ।
और जिस रोज हाईस्कूल का रिजल्ट आया- जोशी जी की खुशी का
ठिकाना न था । दूकान पर आने वाले हर आदमी को अख़बार मे छपा उसका रोल नंबर दिखा कर कहते
– देखो, हमारा बीनू फस्ट आया
है। फिर तो उसने पीछे मुड़ कर नहीं देखा।
इंटरमीडिएट, भी उसने रिकॉर्ड अंकों के साथ पास की और इंजीनियरिंग कालेज मे दाखिला ले लिया
-------------
‘किन्तु डॉक्टर, आपको कभी ऐसा नहीं लगा कि आपने घर की जिम्मेदारियां ईमानदारी से नहीं
निभाईं । अगर दसवीं, बारहवीं के बाद आप नौकरी कर लेते तो
पिता का सहारा बन सकते थे’---
डॉक्टर विनोद ने ‘हाँ’ में सिर हिलाया। अतीत की यादें बिच्छू
के डंक सी पीड़ा दे गईं -
-----घर से भइया की चिट्ठी आई थी। लिखा था, पिता जी की तबीयत
ठीक नहीं है। अब हल नहीं लगा पाते। जबसे बाघ ने गाय मारी,
दूध घी भी नहीं होता बेचने के लिए। धारा सूख रहा है। खेतों मे अन्न बहुत कम होता
है। माँ की कमर की पीड़ा बढ़ती ही जा रही
है। पिता जी ने कहा है- अब कहीं
नौकरी खोज लो.
घर की दरिद्रता चिट्ठी के अक्षरों से
निकल कर उसके सामने खड़ी हो गई थी । दु:ख, और पश्चाताप से मन भर उठा-------
नजरें झुकाए हुए ही बोले डॉ विनोद - दसवीं के बाद नौकरी मिल जाती । वन विभाग मे
चपरासी की जगह खाली थी। जोशी जी की सिफारिश भी थी । मेरे अंक भी अच्छे थे, लेकिन----
भर्ती से ठीक पहले बड़े
बाबू को पाँच हजार रुपए की सख्त जरूरत पड़
गई । लेकिन रकम बड़ी थी। नहीं जुट सकी । उम्मीद
की किरण उगने से पहले ही अस्त हो गई।
पर वह और भी कड़ी मेहनत करने लगा ताकि
अच्छी नौकरी पा सके। और घर की माली
हालत सुधार सके। लेकिन---बाबा ! और ज़्यादा इंतजार न कर सके---
डॉ विनोद की आँखेँ भर आईं थीं । जेब से रुमाल निकाल कर गालों पर ढुलक आए आँसुओं को उन्होने खामोशी
से पोंछ लिया।
-----बड़ा बेटा होने के कारण बाबा की क्रिया मे वही बैठा
। उन तेरह दिनों में घर पर छाई भयानक
गरीबी को बहुत करीब से देखा और जिया था उसने । छोटे भाई ने स्कूल छोड़ कर हल थाम लिया
था। सबसे छोटा तीसरी मे था । उसकी फीस माफ थी । स्कूल से किताबें भी मिल गई थीं। दो बहनें शादी के लिए तैयार थीं। पर कहीं से कोई
रिश्ता नहीं आया । कमर की पीड़ा से माँ बिस्तर से उठ नहीं पाती थी। रिश्तेदारों मे
सबसे नजदीक चाचा थे, जो कभी कभार आ कर डांट जाते-------
क्रिया में बैठा वह सब कुछ देख रहा था।
तेरहवें रोज गाँव का खाना था। घर मे न अन्न का दाना था और न
रुपया-पैसा। कहीं से उधार मिलने की भी उम्मीद न थी। मजबूर होकर माँ को मंगल सूत्र
बेचना पड़ा। वही मंगल सूत्र, जिसे कभी वह बीनू की
बहू को पहनाना चाहती थी। या फिर बेच कर बेटियों के हाथ पीले करना चाहती थी -------
पंद्रहवें रोज जब वह जाने लगा तो माँ ने कहा था- अब बाप की
जगह पर तू है बेटा । मेरा भी क्या भरोसा ।
इन छोटों को भी देखना ----
वागीश ने देखा- डॉ. विनोद के भीतर उठ रहा अंतर्द्वंद अब बेकाबू हो कर गालों पर बहने
लगा था
------ बहुत चाहा था विनोद ने कि छोटे भाई- बहनों को पिता की
शीतल छांव दे सके। पर इंजीनियरिंग की महंगी पढ़ाई और हॉस्टल का खर्च ही वह बड़ी
मुश्किल से ट्यूशन पढ़ा कर जुटाता था।
और चार साल बाद इंजीनियरिंग की डिग्री हाथ में लिए वह फिर सड़क
पर था। कई कंपीटीशन दिये । लिखित परीक्षाएं भी पास कीं। लेकिन कहीं से भी बुलावा नहीं
आया। निराशा का पौधा पनपने लगा।
आखिर एक बार फिर उसे अपना रास्ता खुद
तलाशना पड़ा । वह ट्यूशन पढ़ाने लगा । सवेरे चार बजे से रात दस बजे तक वह कई बैच
पढ़ाता। वह बहुत ही मन लगा कर पढ़ाता। उसके
पढाए बच्चे अच्छे अंकों से पास होने लगे ।
बच्चों की संख्या तेज़ी से बढ़ने लगी।
देखते ही देखते वह शहर के सबसे अच्छे ट्यूटरों मे गिना जाने लगा । छोटे
भाई को आठवीं के बाद पढ़ाई छोड़नी पड़ी थी।
भाई को अपने पास बुला कर नवीं कक्षा में उसका दाखिला करा दिया । बहन के लिए जोशी
जी की मदद से एक अच्छा लड़का मिल गया था ।
बडी सादगी से उसने बहन का विवाह संस्कार सम्पन्न कर दिया।
धीरे धीरे उसके ट्यूशन सेंटर मे बच्चों की संख्या सैकड़ों मे
पहुँच गई । आय मे काफी बढ़ोत्तरी हो रही थी । शहर के बाहर भूखंड खरीद कर उसने कॉलेज
का काम शुरू कर दिया। शिक्षा जगत मे उसकी
पहचान तेजी से बन रही थी। पहले ही वर्ष देखते ही देखते सभी सीटें भर गईं।
समय बदल चुका था। अब
वह बीमार माँ, बीच के भाई तथा बहन को भी साथ ले आया। पहाड़ के मकान और जमीन की देखरेख
चाचा जी पर छोड़ दी। बीच का भाई भी पढ़ने
लगा। छोटी बहन ने बीएड मे दाखिला ले लिया।
माँ ने शादी
के लिए कई बार समझाया किन्तु विनोद
ने हर बार विनम्रता से प्रस्ताव ठुकरा दिया। बस मा से इतना ही कहता कि अभी सही
वक्त नही आया है।
छोटे का चयन मेडीकल मे हो गया। बहन
बीएड के बाद उसी के कॉलेज मे पढ़ाने लगी। बीच वाला भाई ग्रेजुएशन मे पहुँच गया था।

अपने बचपन के गाँव को
इंजीनियरिंग कालेज का उपहार देकर जैसे ही डॉ विनोद वापस जाने के लिए कार की ओर बढ़े, एक बूढ़ा आदमी हाथ
जोड़ कर उनसे बोला- ये पहाड़ का सौभाग्य है कि तू पहाड़ में पैदा हुआ । उत्तर मे डॉ.
विनोद ने उस आदमी के पाँव छूकर कहा- गुरुजी, यह आपकी शिक्षा
का ही परिणाम है।
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