कोलतार की पक्की सड़क पीछे छूट गई है ।
कच्चा पहाड़ी रास्ता शुरु हो गया है । बारिश भले ही बंद है, पर आसमान में घने,
काले बादल अब भी छाए हुए हैं । उम्मीद तो यही है कि वे कभी भी बरस सकते हैं ।
सामने मध्य हिमालय के ऊंचे हरे पर्वत हैं, जिनके शिखर बादलों से छिप गए हैं ।
पिछली बारिश से कच्ची सड़क पर नालियां बन गई हैं । कार चलाने में ये नालियां
मुश्किल पैदा कर देती हैं । ये सड़क इसी साल कटी है । पहली बारिश में ही सड़क पर
जगह-जगह चिकनी मिट्टी के टीले लग गए हैं । जरा सी लापरवाही होने का मतलब है कार का बीसियों फुट गहरी खाई में जा गिरना ।
बलबीर मेरे साथ आगे की सीट पर बैठा है ।
रामराज पिछली सीट पर अकेला है ।
हिचकोले खाती हुई कार पहाड़ी रास्ते पर
हौले हौले बढ़ रही है । करीब तीस पैंतीस बरस का नौजवान बलवीर सामने क्षितिज पर
दृष्टि गड़ाए विचारों की दुनिया में खोया है ।
- क्या सोच रहे हो बलबीर ?
वह हड़बड़ाकर संभल जाता है । भीतर से उभर
कर चेहरे पर आना चाहती वेदना को बड़ी सफाई से दबाते हुए कहता है – कुछ नहीं सर, याद
आ गई थी घर की ।
अभी महीना भर पहले ही वह मिला था, मालूम
हुआ था कि उसके दो बेटे हैं । बड़़ा चौथी में तो छोटा केजी में पढ़ रहा है । पत्नी,
पिताजी, मां, भाई-बहन ----भरा पूरा परिवार छोड़कर एक बार फिर आना पड़ा था उसे देहरादून
।
- तुम गांव में रह कर भी तो कोई छोटा
मोटा काम कर सकते हो ।
मेरी सलाह पर वह व्यंग्य पूर्वक मुस्कराया,
फिर् कुछ रुक कर बोला – अपना घर छोड़कर दर दर कौन भटकना चाहता है सर ? पर क्या
करें ? जब देखता हूं कि साथ वालों के बच्चे अच्छे स्कूलों
में पढ़ते हैं, अच्छा पहनते हैं, अच्छा खाते हैं तो सिर शर्म से झुक जाता है ।
लगता है कि अपने परिवार की बदहाली के लिए मैं ही जिम्मेदार हूं ।
हरी भरी पर्वत चोटियों पर औंधे लेटे
हताश, भूरे बादलों का प्रतिबिंब बलबीर की आंखों में उभर आया है । होश संभालने के
बाद जिस चीज से उसका सबसे पहले सामना हुआ, वह थी गरीबी । चार बच्चों और पिता को
खिलाने के बाद मां के लिए बहुत कम खाना बचता था । दस नाली जमीन में छह आदमियों का
गुजारा हो भी कैसे सकता था । घर का कोदा, झंगोरा छह महीने भी नहीं चलता था ।
मा-पिता बड़े काश्तकार के यहां काम करते । तब कहीं बच्चों की फीस और किताब-कपड़ो
का खरचा उठ पाता ।
बड़ी बहन की शादी के बाद तो साहूकार का
कर्ज भी सिर पर चढ़ गया । समस्याओं के शत्रुओं से पिता बुरी तरह घिर चुके थे । पर सच्चे योद्धा की तरह वह पीठ दिखा कर
युद्ध से भाग भी नहीं रहे थे ।
उसे लगा कि बड़े बेटे का धर्म निभाने का
वक्त आ गया है । एक दिन स्कूल छोड़ कर बगैर बताए वह घर से भाग गया ।
जिसने अपने नजदीक का बाजार भी एकाध बार
ही देखा था – वही चौदह साल का लड़का
बस में बैठ कर सीधा देहरादून चला आया । भीड़ भरी सड़कें, दोनों तरफ सजी हुई दुकानें व चमचमाती कारें देखकर वह हैरान हो गया । उस
अनजान शहर में लोग बहुत थे, गांव से भी हजारों गुना ज्यादा लोग, पर उनमें अपना एक
ही था – दूर का चाचा, जो किसी सेठ के यहां चौका बरतन करता था
। उसी का पता पूछते पूछते वह सड़कों पर निकल पड़ा । कोई कहता आगे से दाएं मुड़ जाओ,
कोई कहता सीधी चलते रहो , आगे लाल बत्ती आएगी, वहां से लेफ्ट हो जाना, फिर
राइट हो कर सीधे चलते जाना । फिर पानी की
टंकी आएगी --------
शाम होते होते वह आखिर चाचा तक पहुंच
गया । कोठी के बाहर खड़े दरबान ने चाचा को बाहर बुलाया । मैला जांघिया व बनियान
पहले चाचा बाहर आया तो वह उसके पैरों पर गिर पड़ा । चाचा ने उसका सिर सहलाया और
पुचकार कर भीतर कोठरी में ले गया । देर तक दोनों एक दूसरे का हालचाल पूछते रहे ।
उसने चाचा को बताया कि घर की हालत ठीक नहीं है । मुझे नौकरी करनी पड़ेगी ।
अगले रोज चाचा ने उसे अपने मालिक सिंघल
साहब से मिलाया । वे अधेड़ उम्र के व्यक्ति थे । बच्चे विदेश में बस चुके थे ।
पत्नी का स्वर्गवास हो गया था । बातचीत से बहुत अच्छे आदमी मालूम होते थे ।
बिल्कुल अपने पिताजी जैसे । फौरन उन्होंने नौकरी पर रख लिया । तनख्वाह भी पूरी
एक हजार रुपये महीना । काम था बस झाड़ू
पोचा, और सिंघल साहब की सेवा ।
वह दिन भर जी जान लगा कर काम करता । काम करते हुए वह सोचता
रहता कि एक महीने बाद जब उसे एक हजार रुपये मिलेंगे तो वह सारे पैसे पिता जी को
मनीआर्डर से भेज देगा । कितने खुश होंगे पिता जी ! छोटे भाइयों की फीस व किताबों की चिंता मिट जाएगी । बड़ी बहन
की शादी की फिक्र भी कम हो जाएगी । कम से कम साहूकारों के कर्ज के जाल से निकल तो
जाएंगे वह ।--------------------------------
खयालों की दुनियां से वह बाहर आता तो
सिंघल साहब उसे देख कर मुस्करा रहे होते । वह झेंप जाता, मानों उसकी चोरी पकड़ी गई
हो ।
कुछ दिन बाद सिंघल साहब ने चाचा को
नौकरी से निकाल दिया और उसकी तनख्वाह बढ़ाकर दो हजार कर दी । उसे तनख्वाह बढ़ने की
खुशी तो हुई पर चाचा के निकाले जाने का दुख भी हुआ था । इस अजनबी शहर में अपनों के
नाम पर चाचा के सिवा उसका था भी कौन। पर वह कर भी क्या सकता था । भीगी आंखों से
चाचा को विदाई दी उसने ।
धीरे-धीरे सिंघल साहब उसे अपने साथ
सुलाने लगे । वह दिन भर का थका गहरी नींद में सो जाता । कभी उसकी नींद खुलती तो वह
सिंघल साहब को अपने पास पाता । खिसिया कर वह कहते – बेटा अकेले मुझे डर लगता है ।
पता नहीं क्यों, उसे भी सिंघल साहब से
डर लगने लगा । और एक दिन बगैर उन्हें बताए वह चुपचाप घर छोड़कर चला गया । घृणा और
ग्लानि से उसका कोमल मन भर आया । दिन में वह भूखा-प्यासा वह सड़कों पर भटकता और
रात को फुटपाथ पर सो जाता । एक रोज सड़क पर भटकते हुए उसकी नजर एक साइन बोर्ड पर
पड़ी । लिखा था बाल वनिता आश्रम । खुला अहाता था । भीतर कुछ बच्चे खेल रहे थे ।
डरते-डरते वह गेट के भीतर चला गया । सामने कुर्सी पर अधेड़ से सज्जन बैठे थे । उन्होंने
पास बुलाया, गौर से देखा और बोले–खाना खाएगा बेटा ?
उसने हां में सिर हिला दिया ।
कई दिन बाद उसे पेट भर कर खाना मिला था । दाल चावन, सब्जी,रोटी सभी कुछ ।
खा-पीकर जब वह जाने लगा तो उन्होंने
पूछा – क्या करता है बेटा ?
-
बेरोजगार हूं ।
-
नौकरी करेगा ?
-
जी हां ।
उसे मन मांगी मुराद मिल गई थी ।
एक बार फिर उसके जीवन की धारा मंथर गति से ही सही, पर आगे बढ़ने लगी थी । पंद्रह सौ रुपये
महीना और मुफ्त खाना रहना । और क्या चाहिए
। पूरे पैसे वह घर भेज सकता था । हर साल पांच सौ रुपये की बढ़ोत्तरी भी थी
।
पुराने हादसों को भयानक सपने की तरह
भुलाकर एक बार फिर वह जी जान से काम में जुट गया ।
बाल वनिता आश्रम के प्रधान झांगड़ा जी अब
वृद्ध हो चले थे । धीरे धीरे बाहर के काम वे उस पर छोड़ने लगे । कचहरी से अनाथ
बच्चियों के प्रमाण पत्र बनाने हो, उनके शादी-ब्याह के मामले हों, या फिर बैंक
में नकदी जमा करने के काम हों – सभी कुछ वह बड़ी होशियारी से करता ।
इसी दौरान उसने प्राइवेट हाई स्कूल व
इंटर की परीक्षा भी पास कर लीं । उसका वेतन भी बढ़कर चार हजार हो गया था । एक भाई
फौज में भरती हो गया व छोटी बहन की भी शादी धूम धाम से पड़ोस के गांव में हो गयी ।
अभी उसकी उम्र बाईस साल ही थी । वह
ग्रेजुएशन करना चाहता था । फिर् किसी अच्छे कंपीटिशन में बैठना चाहता था । लेकिन
माता-पिता शादी के लिए जोर डालने लगे । उन्हें पोते का मुंह देखने की जल्दी थी,
जबकि वह अच्छी नौकरी की तैयारी करना चाहता था ।
इस जद्दोजहद में उसे माता-पिता की जिद
के आगे झुकना पड़ा । शादी के दो दिन बाद ही वह काम पर आ गया ।
झांगड़ा जी ने धीरे धीरे बैंक के सारे
काम उसे सौंप दिये । बैंक से पैसे निकालना, जमा करना – सब कुछ वही करने लगा । उसने महसूस किया कि
आश्रम से आने वाली दान की रकम तो बहुत ज्यादा होती है, पर बैंक जमा होने वाली रकम
बहुत कम होती है । दान की रसीदों औरबैंक की जमा रसीदों में यह फर्क क्यों आता है – वह समझने लगा । फर्जी खर्चों की लंबी चौड़ी रसीदों का पेमेंट आश्रम के
पैसे से धड़ल्ले से क्यों होता है – यह भी उसकी समझ में आने
लगा था । झांगड़ा जी की बेटी का करोड़ों की लागत से मकान कैसे बन रहा है – यह भी वह जानने लगा था । पर सबसे ज्यादा हैरानी तो उसे तब हुई जब उसे
पता चला कि झांगड़ा जी की भी बैंक में साठ लाख की फ़िक्स डिपॉजिट है ।
उसी दौरान उसने बगुला भगत बने झांगड़ा जी
का दूसरा रुप भी देखा था । अनाथ बालिकाओं को काम पर भेजना । मुंह खोलने पर उन्हें
लातों घूंसों से मारना, उनकी शादी ब्याह के लिए आया नकद पैसा उन्हें न
देना, और कई बार तो उनके नाम पर आया सूखा
राशन व कपड़े बाहर ही बाहर बेच देना – अब उसे दिखाई देने लगा था ।
वह अत्याचार को देख कर भी अनदेखा करता
रहा । पर भीतर ही भीतर उसकी आत्मा उसे कचोटती जरुर रहती थी । उसे गांधी जी की यह
बात बिल्कुल सही लगती कि अत्याचार को देखकर चुप रहने वाला भी अत्याचारी होता है
।
आश्रम के कामों से उसे झांगड़ा जी के साथ
बाहर भी जाना पड़ता था । आश्रम में तीन बहने भी थीं । बड़ी बहन का विवाह शहर के ही
ब्राह्मण विधुर से हो गया । जबकि छोटी बहन को एक कसाई ने पसंद कर लिया । कसाई की
पत्नी कुछ ही रोज हुए जल कर मर गई थी । लोग दबी जुबान से कहते थे कि वह मरी नहीं थी,
मारी गई थी ।
ऐसे आदमी के साथ मासूम बच्ची का विवाह
किये जाने पर उसे सख्त ऐतराज था । उसने झांगड़ा जी के इस फैंसले का तुरंत विरोध
किया ।
झांगड़ा जी गरजे ।
मैं इन बच्चियों का गार्जियन हूं ।
दूसरे हम आर्यसमाजी हैं , जात पांत नहीं मानते ।
इस पर वह बोला – अगर ये आपकी अपनी बेटियां होतीं तो क्या
आप ऐसा करते ? सोचिए- कल ये बहने एक दूसरे से कैसे मिल
सकेंगी ? इनके बीच खान पान शादी ब्याह आना-जाना कैसे हो
पाएगा ।
कोर्ट जाने की उसकी धमकी से झांगड़ा जी
ने वह विवाह तो रोक दिया था लेकिन दोनों के बीच एक स्थायी दुश्मनी का भाव जन्म
ले चुका था ।
और एक रोज जब उसने झांगड़ा जी से आश्रम
में अपना परिवार लाने की इजाजत मांगी तो उन्होंने साफ इंकार कर दिया ।
बीच की खाई धीरे-धीरे बढ़ रही थी ।
कुछ ही रोज बाद एक मोटी रकम दान में आई,
जिसे झांगड़ा जी ने अपने खाते में जमा कराने को कहा । उसने इंकार करते हुए कहा कि
यह आश्रम का पैसा है, आश्रम के खाते में जाएगा ।
झांगड़ा जी जे दुनिया देखी थी । आदमी की
कमजोरी को दुहना खूब जानते थे । फौरन बोले – बेटा तुम कल ही अपना परिवार घर से ले आओ । देखो आजकल शिक्षा ही सब कुछ है
। बच्चे यहां रहेंगे तो अच्छी तालीम पाएंगे । पहाड़ में रहे तो जीवन में कुछ नहीं
कर पाएंगे । जाओ ये पैसे मेरे खाते में जमा कर आओ ।
उसने गरजकर कहा था – सॉरी झांगड़ा जी मैं वो नहीं हूं ।
फिर तो झांगड़ा जी का भी असली चेहरा
बेनकाब हो गया । उन्होंने गुस्से से कांपते हुए उसे उसी वक्त नौकरी से निकाल
दिया था ।
वह एक बार फिर सड़क पर आ गया था ।-------------------------
घर आ गया है । गाड़ी रुकते ही बलबीर चौंक
कर मेरी तरफ देखता है । मैं मुस्कराते हुए पूछता हूं – फ्लैश बैक अभी भी चल रहा है या खत्म हो
गया ?
सुनकर वह झेंप जाता है और मुस्करा कर
कहता है – कभी मेरी कहानी भी
लिखना सर । बहुत उतार चढ़ा व देखे हैं मैंने ।
जरुर लिखूंगा बलबीर । ये मेरा वादा है । कह कर हम दोनों लॉन में
रखी कुर्सियों पर बैठ जाते हैं । थोड़ी ही देर में पत्नी गरमा गरम चाय लेकर आती है
– और पूछती है – बलबीर, कब ला रहे हो बच्चों को ?
कृतज्ञता से गड़ा जा रहा बलबीर कहता है – दीदी, कल आ रहे हैं बच्चे । कल से वह आपका
भीतर बाहर का सारा काम संभाल लेगी । खेती और गाय भैंस के काम में वह बड़ी तेज है ।
मैं बाहर नौकरी करुंगा, वह आपके साथ मदद करेगी । बच्चों को यहीं पास में एडमिशन
दिला दूंगा ।
पर सब कुछ वैसा ही नहीं हुआ । उसके दो
प्यारे बच्चे अगले ही रोज आ गए । उसकी भोली भाली पत्नी ने आते ही घर का सारा
काम संभाल लिया । बलबीर नौकरी तलाशने लगा । हां, बच्चों का एडमिशन उसने पास के स्कूल
में नहीं किया ।
तीसरे दिन की बात है । मैं दफ्तर से आया
तो बलबीर बेचैनी से मेरा इंतजार कर रहा था । चाय पीते हुए मैंने कहा – कहो बलबीर, क्या बात है ।
सिर झुका कर, हाथ जोड़ते हुए बोला – सर माफ कीजिए, कल हम जा रहे हैं ।
मगर कहां । मैंने पूछा तो वह बोला – सर आश्रम से निकलने के बाद मैं एक दुकान
में काम करता था । वही दुकानदार मुझे कल से फिर बुला रहा है । तनख्वाह साढ़े चार
हजार महीना और रहना खाना फ्री ।
सुनकर मैंने कहा – लेकिन तुम तो जुबान के पक्के इंसान मालूम
पड़ते थे । तुमने वायदा किया था कि अब मैं
कहीं नहीं जाऊंगा । हम आपके साथ ही
रहेंगे। आपके हर दुख –सुख मे आपके साथ खड़े होंगे । अब ये अचानक क्या हो गया ?
इस पर वह कुछ देर खामोश रहा । फिर धीरे से
बोला- सॉरी सर, मैं वो भी नहीं हूं ।
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