पीठ पर चिपके अवांछित
लोक के वेताल को ढोता हुआ
निरुपाय
तंत्र हूं मैं ।
तंत्र हूं मैं ।
निष्प्रयोजित लोक के इस
भार को यूं लाद कर
और कितनी दूर तक मैं जा
सकूंगा-
कह नहीं सकता ।
अनवरत चलते प्रगति के यज्ञ
में
दे चुके हो लोक तुम
पूर्णाहुति
हड्डियों के एक ढांचे के
सिवा
संपदा के नाम पर
कुछ नहीं बाकी तुम्हारे
पास ।
लोक अब तुम बोझ हो मुझ तंत्र
पर
एक पग भी चल नहीं पाता
तुम्हारे भार को लेकर विकल
हूं मुक्ति पाने को
तुम्हारे अस्थिपंजर
से ।
लोक के कंकाल तुमसे
प्रार्थना है-
ज़िंदगी के चंद लमहे और दे दो ।
छोड दो मुझको मेरे ही हाल
पर ।
तुम्हारे बोझ से विचलित
हुआ जाता -तुम्हारा मित्र
तंत्र हूं मैं ।
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