भोला

                                             

कथा अभी अभी शुरू हुई  है. बुजुर्गों के साथ पंडित जी के बगल में बैठा भोला कथा सुन रहा है.
---- उस साल भी ऐसी ही कथा कराई थी बुधई ने. भगत जी की पूरी पन्द्रह बीघा जमीन उसे बटाई पर जो मिली थी. वैसी बढ़िया जमीन पूरे इलाके में न थी. पानी फिरती, सड़क से लगी दोमट जमीन पाकर बुधई की खुशी का ठिकाना न था. छह आदमियों का  परिवार अब मजे में पल जाएगा. कुछ नहीं तो कटकटा कर हर फसल पर बीस-पच्चीस मन अनाज तो कहीं नहीं गया. वह मन ही मन सोचने लगा था कि ‘भोला की स्कूल जाने की जिद भी अब पूरी हो सकती है. बरसात में नदी का कच्चा पुल बह जाएगा तो लोग भी तो बच्चों को पीठ पर लाद कर नदी पार कराते ही हैं. मैं भी करा लूंगा. स्कूल दूर तो है. साल के घने जंगल के बाद खेतों की मेड़ से होकर जाना पड़ेगा. पर उसकी खुशी है तो जाएगा.’
नया तख्ती बस्ता लिए, कुरता पाजाम पहने, नंगे पांव ही, –भोला स्कूल जाने लगा. उसके साथी कई बार स्कूल से भाग कर नदी में नहाते. बागों से अमरूद, आम चुराते. कभी खेतों में छिप कर गन्ने चूसते तो कभी जंगल की सैर करते, पर भोला तो अपनी पढ़ाई में ही मगन रहता था.    
    गांव के बगल से बहती वही नदी आज पानी की लकीर सी लगती है, पर कभी ये किनारों तक भरी रहती थी. तब यहां धोबी घाट था. शहर से आकर धोबी यहां कपड़े धोते. गर्मियों में डंगर-ढोर यहीं पानी पीते, और घंटों नहाते रहते. बच्चे नदी किनारे खड़े पेड़ पर चढ़ जाते, पत्तों में छिप कर खूब खेलते, पके हुए गूलर खाते और फिर कूद जाते गहरी, मटियाली नदी में. पर घनी डाल पर  बैठा भोला तब भी किताब पढ़ता रहता.....
पुरानी यादों का गवाह, गूलर का वह पेड़ आज भी खड़ा है. कथा सुनता भोला जब भी उस पेड़ की तरफ  देखता है,  दर्द भरी मुस्कान उसके होंठों पर तैर जाती है. कौन जाने बचपन के वे खूबसूरत दिन उसके जेहन में ताजा हो जाते हों.
पूस की हड्डियां कंपाती उन रातों में,  जब सारा गांव जब अंधेरे में डूबा होता, तो किशोर भोला, बुधई के साथ भगत जी के खेतों में  पानी लगा रहा होता.बर्फीले पानी में रात भर खड़े खड़े उसके नंगे पैर सुन्न हो जाते. अमराई से  सियारों के रोने व  कुत्तों के भौंकने की आवाजें सन्नाटे को चीर जातीं. पर भगत जी को कौन समझाए.पानी न लगा तो कह देंगे- तुम निकम्मे हो. तुम्हारे बस की खेती नहीं. जाने किसे दे दें बटाई पर ! फिर छह  आदमियों का टब्बर क्या खाएगा और क्या पहनेगा.
और हुआ भी एक दिन यही. रेट बढ़े तो भगत जी ने जमीन बेच दी. जिस जमीन पर बुधई ने कई साल खून पसीना बहाया, जहां धान गेहूं की बालियां  हवा से झूमा करतीं, मकई के हरे भुट्टे और रसीले गन्ने राहगीरों को ललचाते, दूर तक फैले सरसों के पीले खेत जहां मन मोह लेते - वहां हवेलियां खड़ी होने लगीं. कच्ची गोहर अब पक्का गोला बन गई. गोहर  के दोनो तरफ अमरबेल से ढकी करौंदे, सम्हालू और बेशरम की बाड़ें, खूबसूरत सफेद फूलों से लदी चमेली की हरी बेलें, भीनी भीनी खुशबू बिखराती जंगली गुलाब की झाड़ियां, हल्के गुलाबी फूलों पर मंडराती मधुमक्खियां,निंबौलियों से झकाझक लदे बकाइन के पेड़, घनी शाखाओं पर चहचहाती चिड़ियां - सभी तो खो गए थे यादों के गुमनाम पन्नों में. उनकी जगह खिंच गए थे लोहे के कटीले तार और ईंट-पत्थरों की सख्त दीवारें.  
बटाई के खेत छूट गए. घर की दो बीघा  जमीन ही बाकी बची  थी. उसी में घर था, उगाड़ थी, और साग-सब्जी का बाड़ा भी. रबी और खरीफ तो दूर, दलहन या जायद की फसल तक उस टुकड़े से उठाना मुमकिन न था. ले दे कर सारा बोझ बैलगाड़ी पर आ गया. उसी बैलगाड़ी से बुधई किसी के गन्ने कलेसर(क्रेशर) तक पहुंचा आता. कभी जंगल से लकड़ियां ढोता, किसी के धान कुटवा लाता, तो कभी गांव के दुकानदारों का सौदा-सामान बाजार से उठा लाता.   

चौमासे में बैलगाड़ी भी खड़ी हो गई. एक बैल को खुरपका हो गया. घर का पहलौटा बछड़ा था. हल पर चलता भी खूब था. अजवाइन, मेथी, गुड़-जिसने जो कहा, वही दिया. डाक्टरों को भी दिखाया, पर बैल नहीं बचा. पूरे चार हजार में दूसरा बैल आया. साहूकार ने पांच रुपए सैकड़े पर कर्ज दिया था. 
उस रोज की बात है. स्कूल से थका हारा भोला घर पहुंचा ही था. मां के हाथ से मकई की गरम गरम रोटी और चटनी लेकर वह खाने बैठा ही था कि साहूकार गालियां देता हुआ वसूली करने आ धमका. बुधई बैलों को सानी देना छोड़ हाथ जोड़े, गिड़गिड़ाता रहा, पर साहूकार तो जैसे पागल हो उठा था. बुधई ने पैर पकड़ लिए पर वह नहीं माना.  बैल खोल कर ले जाने लगा. उस रोज पहली बार भोला को गुस्सा आया था. साहूकार के हाथ से उसने झटक कर बैलों की रस्सी छुड़ा ली और वापस खूंटे पर बांध दिया. तब जाकर साहूकार महीने भर की मोहलत देने पर माना.
वादे के मुताबिक महीने भर में बुधई ने कर्ज तो उतार दिया, पर एक बीघा जमीन बिक गई. जिस जमीन पर बुधई का बचपन बीता था,जो उसके बाप-दादा से चली आ रही थी, उसी के जब दो टुकड़े हुए, तो बुधई को ऐसा लगा जैसे उसके शरीर के ही दो टुकड़े हो गए थे. उसकी पुश्तैनी जमीन जमीन के बीचों-बीच अब एक दीवार उठ चुकी थी. दीवार के पार जो जमीन कल तक उसकी थी, आज उसका मालिक कोई और बन चुका था. बुधई के पास बच गया सिर्फ घर, सब्जी की पांच-सात क्यारियां, गोशाला, आंगन और आंगन में खड़ा नीम का पेड़, जिसकी छाया में बैठना भोला को अच्छा लगता था.

कर्जा चुकाने के बाद थोड़ा सा पैसा बच गया था. गांव में  कई  लोगों ने कच्चे घर तोड़ कर पक्के घर बना लिए थे. भूसे में दबी चिंगारी की तरह बुधई के दिल मे भी पक्के मकान की इच्छा दबी हुई थी. चार पैसे हाथ में आए तो वह चिंगारी धधक उठी. उसने भी दो पक्के कमरे उठा दिये. पर लिंटर पड़ने से पहले ही पैसा खत्म हो गया.  
बैलगाड़ी की आमदनी तो गरम तवे पर पानी की बूंद थी, जो गिरते ही उड़ जाती. और खर्चे जंगल की आग थे, जो किसी भी तरह काबू मे न आ पाते थे. बुधई की तबीयत अब बिगड़ने लगी. गुमसुम सा नीम तले खाट बिछा कर पड़ा रहता. भोला की हालत उस चींटे सी हो गई, जो मकडी के जाल में फंसता जा रहा हो. जो छूटने की हर कोशिश में और उलझ जाता हो. कभी भरपेट खाना न मिल पाता तो कभी स्कूल की फीस न भरने से नाम कट जाता. .....
कथा अब भी चल रही है.  साधु नाम का वैश्य श्री सत्यनारायण की कथा का संकल्प भूल जाता है. किनारे आते ही उसकी नाव में रखा धन अदृश्य हो जाता है. तब उसकी पत्नी कथा का संकल्प दोहराती है. धन वापस आ जाता है. -------
साधु नामके वैश्य का बुरा वक्त तो टल गया, पर भोला का बुरा वक्त टलने को कतई तैयार न था. स्कूल की फीस, बीमार माता-पिता का इलाज. भाई-बहनों की जिम्मेदारी, बड़की की शादी, नमक-तेल, और आए-गए के खर्चे-  इतना खर्चा बैलगाड़ी की कमाई से कैसे उठता ! नौबत यहां तक आ गई कि एक दो रोज तो सारा कुनबा भूखा ही सोया. रात के अंधेरे में नत्था के घर से आटा आया, तब जा कर  चूल्हा जला.
वक्त का तकाजा था. मन मार कर भोला को स्कूल छोड़ना पड़ा. छोटिया भी बीच में पढ़ाई छोड़ कर गांव के ‘टेलर मास्टर जी’ की दुकान में सिलाई सीखने लगा. छुटकी ने पास की कॉलोनी में झाड़ू पोचे के घर पकड़ लिए. बड़की ने आधे पर चार-पांच डंगर पाल लिये.
पर खर्चे तब भी आमदनी से बहुत ज़्यादा थे. मां का दमा बढ़ता ही जा रहा था. एक बार खांसी शुरू होती तो रुकने का नाम ही न लेती. काफी इलाज चला, पर दमा जान लेकर ही गया. उधर बुधई की तबीयत भी अच्छी न थी. बाहर से यही कहता कि मैं ठीक हूं, पर बुखार टूट कर न देता. इधर कुछ रोज से वह  भोला पर ब्याह के लिए जोर भी डालने लगा. पिता की खुशी के लिए भोला को झुकना ही पड़ा.  
फिर वही हुआ, जिसका डर था. भोला के फेरे फिरने के महीने भर बाद ही बुधई चल बसा.
कैसी विडंबना थी ! जब भोला को खुश होना चाहिये था, तब वह बेहद दुखी था. किसी दुनियां में खोया हुआ, उदास, वह पिता की चिता से उठती लपटों को देख रहा था. रिश्तेदार कई थे, पर हौसला देने वाला कोई न था. भीड़ के बीच वह अकेला था.  
समस्याओं के चक्रव्यूह में भोला पूरी तरह घिर चुका था. अन्यायपूर्ण व्यवस्था के खिलाफ जिन्दगी और मौत की आखिरी लड़ाई लड़ रहा था. कभी भी खबर आ सकती थी कि निहत्थे भोला को व्यवस्था के दु:शासनों, शकुनियों व दुर्योधनों ने मिल कर बेरहमी से मार डाला.
 कथा का आखिरी अध्याय चल रहा है.
काफी रोज बीत गए. एक दिन भोला सड़क पर मिल गया. ट्रैक्टर चला रहा था. ट्रॉली पर बजरी भरी थी. पता चला, उसने पांच बिस्वा जमीन बेच कर पुराना ट्रॉली ट्रैक्टर खरीद लिया था. जुताई गहाई के अलावा वह ईंट बजरी की ढुलाई का काम भी करने लगा. दिन-रात, सुबह-शाम, कुछ नहीं देखा. जो भी काम मिला, जी-जान से किया.
पैसा आया तो उसने पांच बीघा जमीन खरीद ली. जमीन बंजर थी, पर भोला दिहाड़ी मजदूर से किसान बन गया. बंजर टुकड़ा भोला की मेहनत से सोना बन गया. खूब अनाज बरसने लगा. पर तभी भोला के खेत के नजदीक से सड़क पास हो गई. सड़क बनने की खबर से ही उस तरफ जमीन का भाव चार गुना बढ़ गया. भोला ने जरा भी वक्त नहीं गंवाया. फौरन सौदा कर दिया. बहुत रोका मीरा ने, पर भोला नहीं माना तो नहीं माना. आखिर मीरा चुप हो गई.    
 पैसा आया तो भोला ने बीस बीघा दरियाबुर्द जमीन कौड़ियों के भाव खरीद ली. कभी उस जमीन में नदी बहा करती थी. पर साल दर साल उसका पानी घटता गया. जमीन निकलती गई. बेहिसाब पत्थर थे उसमें. और रेत-बजरी की तो जैसे वहां खान ही थी. रेत, पत्थर चुगवा कर उसने अच्छे दामों में बेच दिए. फिर दरजनों ट्रालियां कच्चा गोबर और अच्छी मिट्टी डाल कर उसने जमीन सुधार ली. जमीन के बीच में लंबी कतारों पर उसने पॉपलर के सैकड़ों पेड़ लगाए तो नदी की तरफ लेमन ग्रास के झुंड रोप दिये. जमीन के आखिरी किनारों पर उसने जेट्रोफा की घनी बाड़ उगा दी.
 पॉपलर के पत्ते जाड़ों में झड़ कर खेत में कंपोस्ट खाद का काम करते. लेमनग्रास व जेट्रोफा के फल ठेकेदार खुद आकर उठा ले जाते. यह आम के आम और गुठली के दाम जैसी बात थी. कभी जो जमीन बिल्कुल बंजर थी, अब वह सोना उगलने लगी.
इसी बीच उसने सप्लाई का काम भी शुरू कर दिया. वह नदी के ठेकेदारों से थोक में पत्थर, बजरी उठा लेता. रेट बढ़ते तो भारी मुनाफे पर बेच देता.  
 भोला की आमदनी के कई जरिये हो गए. इस बीच उसके यहां दो बच्चे भी हुए. बच्चे कब बड़े हुए, कब स्कूल जाने लगे, उसे पता ही न चला. उसकी आंखों में तो एक ही सपना था, जिसे वह तेजी से हकीकत में बदल रहा था.
इलाके की ढालू जमीनों के भाव भी बेतहाशा बढ़ने लगे. उन ढलानों को समतल करने का काम भी फायदेमंद था. भोला के पास बेहिसाब काम था, पर उतना काम ट्रैक्टर नहीं खींच पाता था.  वक्त गंवाए बगैर भोला ने  लोन से  डोज़र खरीद लिया. डोजर आने से आमदनी को तो जैसे पंख ही लग गए. अब वह सड़क बनाने के ठेके भी लेने लगा.......
कथा खत्म हो चुकी है.

आरती के बाद पूजा की थाली घुमाई जा रही है. ग्राम प्रधान- फूल मोहम्मद भीड़ का हाथ जोड़ कर अभिवादन कर रहे हैं. भोला के कंधे पर हाथ रख कर वह कहते हैं- भाइयो, अपने लिये कौन नहीं जीता. अपनी आस-औलाद के लिए भी चार पैसे कौन नही जोड़ता.  पर इंसान वो है जो सिर्फ अपना ही घर न भरे. औरों का दर्द भी महसूस करे. जो दौलत के साथ साथ इंसानियत को भी तवज्जो दे.
भाइयो, हमारे गांव में स्कूल नहीं था. नदी पार करके बच्चे काफी दूर स्कूल जाते थे. ऐसे में स्कूल का ये नायाब तोहफा भोला जी ने हमारे बच्चों को पेश किया है. इस स्कूल में गरीब बच्चों से कोई फीस नहीं ली जाएगी. उन्हें कपड़े और किताबें और दिन का  खाना मुफ्त मिलेगा. ग्राम सभा भी इस में पूरी मदद करेगी.
इस नेक काम के लिए हम भोला भाई  के एहसानमंद हैं और तहे दिल से इनका शुक्रिया अदा करते हैं.         
स्कूल  का मैदान खचाखच भरा है. सैकड़ों तालियां बज रही हैं. हाथ जोड़े, संकोच से गड़ा भोला  कह  रहा है- भाइयो, पत्तल बिछ गए हैं. आइये मिल बैठ कर खाना खाएं. 

  

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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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