आप तो जानते ही हैं कि बेचना
भी एक कला है । जिसे यह कला आती है । वह समझ लो कामयाब है । जिन्दगी में मार नहीं
खा सकता । दुनियां के सारे ऐशो आराम उसकी जूतियों पर होते हैं । वह कुछ भी बेच
देता है । उस ‘संन्यासी’ को किसी भी चीज से मोह नहीं होता ।
अब बेचने की बात चली है तो आपको हम बता दें
कि कुछ होनहारों ने गोबर तक बेचा है और कुछ विकासशील प्रतिभाओं ने वह सामान शौक से
खरीदा है । देखा तो यहां तक गया है कि वक्त आने पर लोगों ने ईमान तक बेचा है,
अपना जिस्म बेचा है और आखिरकार अपने कपड़े
– अंडर शर्ट, अंडरवियर तक बेच दिया है ।
बेचने की यह पावन क्रिया 'टू
टायर’ सिस्टम पर टिकी होती हे । पहला टायर निजी तथा
दूसरा सरकारी ।
निजी बिकवाली वह होती है जिसमें बेचने वाला
अपने आप को बेचता है । जैसे कि खुद की जमीन –
जायदाद, खुद के शरीर के हिस्से, ब्लड, किडनी आदि व शरीर के कपड़े, खुद अपना शरीर
तथा आखिरकार खुद अपना जमीर, अपनी इन्सानियत, अपनी साख ।
सरकारी बिकवाली के केस में पहले मशहूर
चीजें बेची जाती हैं । उसके बाद नुमाइंदे ‘खुद’
को बेचते हैं । और सब से बाद में समूचे देश को ही बेच दिया जाता है । न रहता है बांस
और न बजती है बंसरी ।
अब तक हम समझते थे कि हम से अच्छे बिकाऊ
और भी हैं जमाने में । मगर हमारी यह गलतफहमी जल्दी ही दूर हो गई । हुआ यह कि
हमारे वजीरेआजम पिछले साल सौदागरों का गिरोह लेकर अंग्रेजों की मांद में जा घुसे व
दहाड़े – ‘आइ एम हेयर टु सेल इंडिया’ ।
मैं नहीं यहां से कुछ खरीदने
आया ।
पूरे भारत का दांव लगाने आया ।
इसे कहते हैं हिम्मत । पहली बार किसी माई
के लाल ने इतने खुल कर दिल की बात पब्लिक के सामने कही । साठ साल तक हम खरीदते रहे
। क्या कुछ नहीं खरीदा इन गोरों से हमने ? उनकी कबाड़ में पड़ी तोपें,
जंकयार्ड में पड़े जूने टैंक, अपने ही पायलटों की जान लेने वाले फाइटर जेट, उनका यूरिया, उनके फफूंदी – कीड़े लगे गेहूं,
उनके शहीदी ताबूत और उनका गोबर ।
वह भी कोई व्यापार था ? हजारों
करोड़ की विदेशी मुद्रा झोंक कर भी दो चार सौ करोड़ की आमद । ना बाबा ! ये घाटे का सौदा हम जारी नहीं रख सकते । अब तो हम ‘बेचना’ चाहते हैं ।
इस बिकवाली के बयान के बाद मीडिया ने ऐसा
माहौल बना दिया कि मानों हम बड़े भारी, पेशेवर विक्रेता हैं । नारा उछाला गया – ‘बेचो इंडिया बेचो ।‘ नारे का क्या है ? बस बनाया और उछाल दिया । मगर सवाल
उठा – ऐसा बेचने लायक आपके पास है क्या ? ये तो वही बात हो गई – पास में नहीं दाने , अम्मा
चली भुनाने ।
मगर यही सोच गलत है । सही बात ये है कि
बेचने के लिए बनाना जरुरी नहीं है । बनी – बनाई चीजें भी बेची जा सकती
हैं । ऐसी ‘रेडी-मेड’ चीजें अपने यहा
थोक के भाव में हैं ।
आपको जानकर ताज्जुब होगा कि ‘रेडीमेड’ माल हम ग्लोबलाइजेशन से भी काफी पहले से बेचते जा रहे हैं ।
सन साठ के आस पास से हम साइंस के मेंढक,
तिलचट्टे, कछुए, बंदर, तोते वगैरह बेच रहे हैं । इसमें कोई दिक्कत ही नहीं थी ।
माल रेडीमेड के साथ – साथ ‘गार्डन फ्रेश’ भी था ।
बेहिसाब भी था । बस पकड़ा, पैक किया और भेज दिया । कई कलंदर इस बिकवाली की वजह से
रातों – रात सिकंदर हो गए ।
धीरे –
धीरे कानून सख्त हुए । बेजुबान जानवरों की शिपमेंट मुश्किल होने लगी। इसलिए हम अब
जानवरों के स्पेयर पार्ट बेचने लगे । खास आइटम थे – हाथियों
के दांत, हिरन की कस्तूरी, शेर की खाल और भालू का पित्ता ।
कुछ वक्त तक तो सब ठीक –
ठाक चला । मगर बुरा हो – वाइल्ड लाइफ सोसायटी वालों का ।
जानवरों के स्पेयर पार्ट भी हो – हल्ला मचाने लगे । मजबूरन
हमारे उद्योगवीरों को बिजनेस बदलना पड़ा ।
हमारी कई तरह की खासियतों में एक ये भी
है कि हमने हार मान कर बैठना नहीं सीखा है । हमें तन से भले ही कोई हरा ले, मन से
नहीं हरा पाता । और आप तो जानते ही हैं – ‘मन
के हारे हार है, मन के जीते जीत।‘ हमें मार्केट सर्वे से
पता चला कि ‘पुराने माल’ यानी ‘एंटीक’ की भी बाहर काफी मांग है ।
बस फिर क्या था ? हम
मांग पूरी करने में जुट गए । मन्दिरों से हजारों साल पुरानी मूर्तियां विदेश
यात्राओं पर निकलने लगीं । सोने, चांदी, तांबे, अष्टधातु की मूर्तियां, पुराने
सिक्के, शिला-लेख, बेशकीमती ताम्र पत्र, पांडुलिपियां, पुरानी पोशाकें, औजार,
वगैरह भी इस लिस्ट में जुड़ने लगे । म्यूजियमों से चोरी की खबरें आने लगीं ।
मगर बुरा हो इतिहास पुरातत्व प्रेमियों
का । इन आइटमों के बढ़ते एक्सपोर्ट पर लगे खोटी नजर डालने । बुरी नजर लगाने वालों
का मुंह तो सही सलामत रहा, मगर एक्सपोर्ट में लगे उद्योगपतियों का अच्छा भला
मुंह जरुर काला हो गया । फिर एक काला कानून पास हुआ । फिर से एक फलते –
फुलते व्यवसाय को बंद होना पड़ा ।
मगर कहते हैं कि हर बुराई के साथ एक अच्छाई
भी जुड़ी रहती है । ‘पुराने माल’ की तिजारत के साथ अच्छी बात ये हुई कि
बाहर वाले हमारे योगियों, साधुओं के बारे में जान गए । दुनियां में राम और कृष्ण
के चर्चे होने लगे । हवा में उड़ने की टैक्नीक सिखाने वाले ध्यान केन्द्र धड़ाधड़
खुलने लगे । चमत्कार सिखाने वाले साधुओं की दुकानें चल निकलीं । ‘योगा’ का शोर सारे जहान में फैल गया । डालरों की तो
जैसे अपने यहां बरसात होने लगी । कई साधुओं ने तो निन्यानवें रॉल्स – रॉयस कारे, हेलीकॉप्टर व समुद्र में पूरे के पूरे टापू ही खरीद डाले ।
मगर हर सुबर के बाद शाम तो आती ही है,
इस योगा – बिजनेस में भी आई । गोरे धीरे – धीरे समझने लगे कि
उन्हें ‘पप्पू’ बनाया जा रहा है ।
नतीजा यह हुआ कि मार्केट में मंदी आने लगी ।
हमें एक बार फिर स्विच ओवर करना पड़ा । ‘योगा’ के बदले हमने जिंदा गोश्त की तिजारत का शुभारंभ किया । खाड़ी देशों को
लड़कियां भेजी जाने लगीं । शारजाह की ऊंट दौड़ के लिए छोटे –
छोटे बच्चे सप्लाई होने लगे । इसी के साथ इन्सानी गुरदे, खून, आंखें, वगैरह इन्सान
के स्पेयर पार्ट भी एक्सपोर्ट होने लगे । धंधा भले ही मंदा था, मगर चल निकला।
एक बार भारी इनकम का चस्का लग जाए तो
बंदा छोटी – मोटी डील कर नहीं पाता । कहां सौ तोरियां छीलते रहो । इससे बढ़िया एक
कद्दू क्यों न छीलें ? ताकि अच्छी रकम हाथ लगे ।
यही सोच कर हमने अपने खुफिया दस्तावेज
बेचने शुरु किये । अपनी फौज की जानकारी बेची, परमाणु ठिकानों का सारा भेद बाहर
भेजा । इस कारनामें से गोरे खुश हुए ।
हमारा उत्साह बढ़ा । हम मुल्क के हिस्सों
को बढ़ – चढ़ कर गोरी कंपनियों के लिए खोलते गए।
और आज वह शुभ घड़ी आ पहुंची कि हम इंडिया
की ‘प्रभुसत्ता’ लेकर ही ग्लोबल मार्केट पहुंच गए हैं
। हमें पक्का यकीन है कि, कोई न कोई दरियादिल खरीददार हमें जरुर टकर जाएगा । अपनी
कठपुतली सरकार बिठाकर हमारे द्वारा, अपने लिए, हम पर राज करेगा ।
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