हलो दोस्त ! कैसे हो ?
कई दिन
बीत गए, तुम से
बात ही
नहीं हुई ! बात तो
दूर, तुम्हारे
दर्शन तक
नहीं हुए ! ऐसा लगा
जैसे कि
हम दोनों
धरती के
दो किनारों
में रहते
हैं, जो
एक दूसरे
के बिल्कुल
अपोजिट हैं. किसे यकीन
होगा कि
इतने करीब
रह कर
भी हमें
एक दूसरे
से मिले
इतना लंबा
अरसा गुजर
गया है ? एनी वे .
मेल भेजने
का मेन
कारण यही
है कि
आज मैं
जरा फुर्सत
में हूं
और मुझे
तुम्हारी याद
आ रही
है. याद
भी मुझे
तुम्हारे लेख
से ही
आई है, जो आज
के अखबार
में छपा
है. और
उस लेख
का शीर्षक
है- आगे
बढ़ने के
लिए ?. इस
लेख मे
तुम बताते
हो कि
आगे बढ़ने
के लिए
उल्टा सीधा
जो कुछ भी
करना पड़े, सब जायज
है. नैतिकता
अनैतिकता कुछ
नहीं होती. होती सिर्फ
दो चीज़ें
हैं- कामयाबी
या फिर
नाकामयाबी.
बड़ा ही
बोल्ड लेख
है यार ! तुम ऐसा
कब से
लिखने लगे? तुम तो
बड़े आदर्शवादी
हुआ करते
थे !
देख लो
बौस ! मैं
भी कितना
सेलफिश हूं ? ये भी
नही सोचा
कि इस वाहियात मेल
को पढ़ने
का तुम्हारे
पास वक्त
होगा भी
या नहीं? पर सच
तो ये
है कि
मैं तुम्हारे
एंगल से सोचना ही
नही चाहता. अगर मैं
तुम्हारे वक्त
की टेंशन
करने लगा
तो सेंटीमेंटल
हो जाऊंगा
और अपने
दिमाग मे
भरा ये
सारा जंक
डेटा तुम्हारे
दिमाग मे
अपलोड नही
कर पाऊंगा.
पुराने दिन
याद करके
मुझे तुम
पर हंसी
आ रही
है. कितने
ऊंचे ख्वाब
पाले हुए
थे तुमने
भविष्य को
लेकर ? मैं
आइ.ए.एस. अफसर
बनूंगा, समाज
में जितने
भी भ्रष्ट
लोग हैं
सबको ठिकाने
लगा दूंगा. ये जो
हमारे यूथ
पश्चिम की
नकल करके
मार्डन बने
जा रहे
हैं -इन्हें
बताऊंगा कि
तुम्हारा पास्ट
कितना ग्लोरियस
था! जब
ये अंग्रेज
भेड़ चरा
रहे थे, भाले लेकर
खालें पहने
जानवरों का
शिकार करते
जंगलों मे
भटक रहे
थे, तब
तुम्हारे पुरखों
ने वेद
लिख डाले
थे ! वेद ! यानी हाइएस्ट
इंटेलेक्चुअल अचीवमेंट
ऑफ द
ह्यूमन बींग
सो फार ! जिन्हें आज
भी सही
ढंग से
नहीं समझा
जा सका !
और ऐसा
मानने वाले
तुम, अपने
बच्चों को
अंग्रेज़ी स्कूलों
में पढ़ा
रहे हो ! ट्यूशन लगा
रहे हो
इंगलिश की ! टेनीसन, शैली, वर्ड्सवर्थ कीट्स, बॉयरन पढ़ा
रहे हो
उन्हे ! क्रिश्चियन
मिश्नरीज़ के
जिन स्कूलों
के खिलाफ
तुम बचपन
में विष
उगला करते
थे, आज
उन्हीं स्कूलों
में बच्चों
को एडमिशन
दिलाने के
लिए तुम
क्रिश्चियन बनने को
भी तैयार
हो !
बड़ी वकालत
किया करते
थे तुम
तो हिन्दी
हिदुस्तान की ! बड़े भारी
भारी दोहे
सुनाया करते
थे -बिन
निज भाषा
ज्ञान के, मिटै न
हिय की
शूल !, या
फिर-जिसको
न निज
गौरव तथा
निज देश
का अभिमान
है, वह
नर नहीं
वह पशु
निरा, और
मृतक समान
है ! या
फिर-भगवान
भारत वर्ष
में गूंजे
हमारी भारती ! नहीं तो--आवहु रोवहु
सब मिलि
भारत भाई, भारत दुर्दशा
देखि न
जाई ! ये
लेक्चर पिलाने
वाले तुम
आज वेस्टर्न
कल्चर, वेस्टर्न
टेक्नोलॉजी की
वकालत करने
लगे ! कहां
गए तुम्हारे
वेद? कहां
है वह
हाइएस्ट एवर
अचीवमेंट ?
तुम कहा
करते थे
कि पैसा
ही सब
कुछ नहीं
होता लाइफ
में ! वैल्यूज़
भी मायने
रखती हैं. पैसे की
हवस की
तुलना तुम
उस पागल
घोड़े से
किया करते
थे जिस
पर एक
बार बैठ
गए तो
जिन्दगी भर
भागते ही
रहना होगा. घोड़ा रुकेगा
नहीं, और
तुम उतर
पाओगे नहीं !
ऐसा कहने
वाले तुम
आज उसी
घोड़े पर
बैठे सरपट
दौड़े जा
रहे हो ! उतरने का
नाम ही
नहीं लेते !
दौलत के
नशे में
तुम कितना
डूब गए
हो- मुझे
मालूम है
यार. जिस
भी शहर
में ट्रांसफर पर
तुम गए, वहीं एक
फ्लैट खरीद
लिया. शेयरों
में लाखों
रुपया लगा
दिया, नौकरी
में भी
मौका मिलते
ही अल्लम-गल्लम करने से
नहीं चूके, मुफ्त का
माल जहां
भी हाथ
लगा, सब
डकार लिया. किताबें लिखीं, कहानी कविता
लिखीं, कवि
सम्मेलनों से
भी काफी
माल इकट्ठा
किया. प्रॉपर्टी
का काम
भी किया, ट्यूशन तक
पढ़ाया. कहने
का मतलब
है कि
पैसा कमाने
के लिए
तुमने क्या
नहीं किया? कितने मुखौटे
नहीं लगाए ?
बीच मे
सुना था
तुम पॉलिटिक्स
मे उतर
रहे हो. क्या हुआ
उस प्रॉजेक्ट
का? टिकट
क्यों नहीं
मिला? मेरे
ख्याल से
तुम टिकट
खरीद नहीं
पाए होगे. स्टेट लेवल
का ही
टिकट आजकल
लाखों में
बिकता है, फिर सेंटर
का टिकट
फ्री मे
कौन तुम्हें
दे देता? और तुम्हारी
आदत मैं
जानता हूं. तुम रहे
होगे फ्री
टिकट के
चक्कर में !
सुना है
अब तुम
साधू महात्माओं
के साथ
जा जाकर
उपदेश देने
लगे हो. मैने तुम्हारे
उपदेश अभी
टीवी पर
देखे तो
नहीं , मगर
सुना है- अच्छा बोल
लेते हो. तुम्हारी कनवींस
कर देने
वाली वही
पुरानी स्टाइल
रंग दिखाने
लगी है. मटीरियलिज़्म के
खिलाफ जब
तुम बोलते
हो तो
लोग वाकई
विरक्त हो
जाते हैं. कइयों ने
तो तुम्हारे
गुरु लोगों
से दीक्षा
भी लेनी
शुरू कर
दी है. कई औरतें
अपना घर-बार छोड़
कर तुम्हारे
कार्यक्रमों में, तुम्हारे गुरुओं
के आश्रमों
मे नाचने भी
लगी हैं. मान गए
बेटे तुम्हें
! अच्छा नचा
लेते हो ! जैसे ही
कोई मुर्गा
अपनी प्रॉपर्टी
तुम्हारे गुरुओं
के आश्रमों
के नाम
करता है, तुम फौरन
गुरु जी
से अपनी
कमीशन रखवा
लेते हो !
वक्त भी
क्या चीज़
है? पुराने
कपड़ों की
तरह आदमी
अपने आदर्श
कैसे बदल
लेता है- वो भी
चंद कागज़
के टुकड़ों
के लिए- ये भी
तुमसे ही
सीखना था ! कोई बता
रहा था
कि आजकल
तुम जिस्मानी
ताकत के
नुस्खे भी
घोट घोट
कर देने
लगे हो
और तुम्हारे
इस आइटम
की सेल
रोज़ के
रोज़ बढ़ती
ही जा
रही है.
अब बस
भी करो
यार. तुमने
तो सारी
हदें ही
पार कर
दीं. कुछ
तो नैतिकता
के अपने
पुराने स्लोगन
याद रखो ! क्या वे
उपदेश सिर्फ
दूसरों को
सुनाने के
लिए थे?
पुराने दोस्तों
को तुमसे
शिकायत है
यार. अभी
कुछ रोज
पहले नीटू मिला
था. जहां
तुम चीफ
गेस्ट बन
कर गए, वहां वह
बेचारा चपरासी
था. तुमने
तो उसे
पहचानने से
तक इंकार
कर दिया ! क्या
चपरासी बनते
ही नीटू, नीटू नहीं
रहा? या
फिर अफसर
बनते ही
क्या तुम, तुम नहीं
रहे ? इतना
हलकापन? और
बातें इतनी
बड़ी-बड़ी? क्या ये
हिप्पोक्रेसी नहीं
है?
कहां भटक
गए यार? ठीक है, टेम्प्टेशंस अच्छे अच्छों
को पानी
पिला देती
हैं फिर
तुम हम
हैं किस
खेत की
मूलियां ! मगर
इतना भटकाव
भी तो
जमता नहीं
बौस ! एटलीस्ट
तुम जैसे
साधू टाइप
लोगों पर
तो बिल्कुल
नहीं.
अभी परसों
अपना लंगोटिया
यार डॉक्टर
गुप्ता मिला
था. तुम्हें
शायद पता
हो या
न हो, बता रहा
था कि
तुम एक
साइकियाट्रिक केस
बन चुके
हो. तुम
पर वो
रिसर्च करना
चाहता है. उसके मुताबिक
तुम अब
नॉर्मल इंसान
नहीं रह
गए हो. बोलो
क्या जवाब
दूं गुप्ता
को ?
मुझे यकीन
है तुम्हारा
जवाब होगा
कि गुप्ता
पैसे दे
दे तो
मैं उसका
केस बनने
को तैयार
हूं.
तुमने वो
मोहन राकेश
का आधे-अधूरे नाटक
देखा होगा. नहीं देखा
तो देख
लेना. हम
मीडियम क्लास
के लोगों की
असलियत उतार
के रख
दी है
भाई ने. वह नाटक
नहीं मोहन
राकेश नाम
के एक
मीडियम क्लास
के आदमी
की सच्ची
ट्रेजेडी है, जिसे उसने
काले कोट
वाले के
नाम से
बयान किया है.
सच तो
ये है
कि तुम, मैं, नीटू
या हमारा
कोई और
साथी-सब
काले कोट
वाले ही
हैं. मगर
उस सिचुएशन
से बाहर
निकलने का
क्या कोई
और तरीका
नहीं हो
सकता ?
जरा सोचना
यार ! तू
बुद्धिजीवी है, कोई न
कोई हल निकाल
ही लेगा.
एक बात
और है, जो तूने
मुझे नहीं
बताई, पर
मुझे पता
चल गई
है. सुख
सुविधा बटोरने
के चक्कर
मे तू
बिक गया
है. घटिया
से घटिया
वल्गर से
वल्गर पिक्चर
बनाने का वादा
भी तूने
एक सी
ग्रेड वाले
बैनर से
कर लिया
है- मगर
नाम बदल
कर. पता
है उस
टाइप की
फिल्म का
टिकट कौन लोग
खरीदते हैं? वे खरीदते
हैं जो रोज
कुआं खोदते
हैं और
रोज़ पानी
पीते हैं. जिनके आने
की इंतज़ार
मे सारा
कुनबा झुग्गी
के बाहर
बैठा एक
एक पल
गिनता रहता
है कि
जब बाप
आएगा, तब
आटा आएगा, तब भूख
की आग
बुझेगी. मगर
बाप को
तो तूने
बिठा दिया
पिक्चर हॉल
में यार ! वही आम
आदमी जिसकी
आवाज़ संसद
में उठाने
के नाम
पर तू
एमपी के
टिकट के
जुगाड़ में
है, वही
आदमी तेरे
टेलेंट के
बल पर
पिक्चर हाल
में बैठा
निर्वस्त्र शरीरों
को देख
कर सीटियां
बजा रहा
है ! कच्ची
दारू पीकर
मतवाला हुआ
जा रहा
है ! यही
इंटेलेक्चुअल कंट्रीब्यूशन
देने वाला है
तू सोसायटी
को ?
तू सोच
रहा होगा
कि आज
मुझे हो
क्या गया
है? क्यों
तुझे नंगा
करने पर
तुल गया
हूं ?
मगर मेरी
भी क्या
गलती है ? इतने साल
बाद आज
तुझसे रू-ब-रू
हुआ हूं. दिल मे
जो कुछ
भी तुझे
लेकर इकट्ठा
हो गया
था आज
उसे निकालने
का मौका
मिला है
तो कैसे
चूक जाऊं ?
अरे ! ये
क्या ! तू जा
रहा है ! अभी मंत्रालय
से फोन
आया कि
तेरी किताब
को अवार्ड
के लिए
एक्सेप्ट किया
जा रहा
है. मगर
एक छोटी
सी शर्त
के बाद. शर्त ये
कि तू
आम आदमी
के लिए
लिखने का
नाटक भी
करना छोड़
दे. और
तूने फोन
पर ही
हामी भर
ली !
जा यार. बिकता रह
बार बार. मगर अब
तेरे मुह
से बार
बालाओं की
बुराई अच्छी
नहीं लगेगी. मत करना
कभी उनकी
बुराई. वे
प्रोफेशनली तुझसे
ज्यादा ईमानदार
हैं . वे
बिकती हैं
तो सरे
आम बिकती
हैं. बेइज़्ज़ती
भी झेलती
हैं.
और तू ! बिकना भी
चाहता है, और इज़्ज़त
दार भी
बने रहना
चाहता है. जा यार
जा. तेरा
क्लास करेक्टर
है ही
ऐसा.
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