हिन्दी- दिवस

                                                   

कवि केसरी जी जब तक गाने बजाने लायक रहे तब तक मंचों पर छाए रहे.  जब गले ने जवाब दे दिया तो 'आपका मंच' संस्था खोल ली. संस्था का काम था उभरते हुए कवियों को कंसल्टेंसी देना, व ज़रूरी साज़ो-सामान की सप्लाई करना. बाज़ार के  बीच चौक पर इस का दफ्तर था.  दफ्तर क्या, यह दस बाइ बारह की एक  दुकान थी, जिस पर जंग खाया, सड़ा-गला साइन बोर्ड झूल रहा था. गाहकों को ज़रा बच कर ही भीतर दाखिल होना पड़ता था.वरना भीतर की बजाय अस्पताल में दाखिल होने के पूरे चांस बने रहते थे. जाने कब बोर्ड सिर पर आ गिरे !

बोर्ड का मजमून कुछ इस तरह था-  हमारे यहां मुशायरों तथा  कवि सम्मेलनों का पूरा सामान रियायती दरों पर हर वक्त तैयार मिलता है. हर साइज़ के गाव तकिये, मनसदें, शॉल, श्रीफल, प्रमाण पत्र और मोमेंटो भी वाज़िब दामों पर मिलते हैं. अचकनें, शेरवानियां व पगड़ियां हर साइज़ व हर रंग की वैसे तो तैयार मिलती हैं मगर स्टॉक न हो तो ऑर्डर देकर हम उन्हें फौरन बनवा देते हैं.
विशेष सूचना- 'अगर किसी को कविता या भाषण लिखना न आता हो तो लेबर रेट पर हमारे यहां कवि, लेखक उपलब्ध हैं जो किसी भी रस की कविता आनन-फानन में लिख डालते  हैं. कविता के अलावा लेख, आत्मकथा, कहानी, वगैरह भी लेबर रेट पर लिखी जाती हैं. अक्सर कवि सम्मेलनों में कवियों को सड़े अंडों , चप्पलों, कांच की बोतलों, जूतों व पत्थरों का सामना भी करना पड़ जाता है. ऐसे नाजुक मौकों के लिये हमने लोहे के कनटोप विशेष ऑर्डर देकर बनवाए हैं. पत्थर तो पत्थर,ये टोप बन्दूक की गोलियों से भी बचा ले जाते हैं. मुशायरों में कई बार स्थिति  नियंत्रण से बाहर चली जाती है और कवियों को सिर पर पैर रख कर भागना पड़ जाता है. इस सूरते हाल से निपटने के लिए हमने खास तरह की जूतियां तैयार कराई हैं जिन्हें पहन कर आप किसी भी गली-कूचे, सड़क या फिर खेतों से फुल स्पीड में भाग कर अपनी कीमती जान बचा सकते हैं. हम  दफ्तरों में भी प्रोग्राम कराते हैं. कवि-सम्मेलनों या मुशायरों के रेट मुंह देख कर तय किये जाते हैं. आसामी तगड़ी टकर जाय तो रेट तबीयत से वसूले जाते हैं. पेमेंट वैसे तो हम एडवांस में लेते हैं मगर जेबें हलकी हों या मुशायरा कराए बगैर खाना हज़म न होता हो तो उधारी भी कर लेते हैं'.

            साइन बोर्ड पर लिखा इतना लंबा मज़मून पढ़ने की हिम्मत बहुत कम लोग कर पाते थे. बारिश से मजमून के जंग खाए अक्षर मिटने भी लगे थे. वैसे यह दुकान इस धुंधले मजमून की वजह से मशहूर नहीं थी. यह तो इस बात से  मशहूर थी कि यहां कवि केसरी बैठते थे, जो किसी ज़माने में हास्य-रस के मंजे खिलाड़ी हुआ करते थे.

            बीते हफ्ते की बात है. चोखे लाल जी इसी नामी-गिरामी दुकान के आगे से गुजर रहे थे. दुकान के भीतर गाव तकिया बिछाए केसरी जी दिन में ही सोम-रस का पान करने मे मशगूल थे. चोखे उनका पुराना लंगोटिया यार था, जो एक सरकारी दफ्तर में हिन्दी अधिकारी था. चोखे  अपने यहां अक्सर कवि-सम्मेलन या फिर मुशायरे कराता रहता था. पिछले कई बरस से वह केसरी को ही बुलवा रहा था. हिन्दी दिवस करीब था पर अभी तक चोखे के यहां से केसरी जी को न्यौता नहीं मिला था.

            चोखे को सड़क से गुजरते देख, केसरी के कान खड़े हो गए. देखते ही चीखे- अबे चोखे, क्यूं टेढ़ा-टेढ़ा जा रहा है ? इस जगे को पहचानता नहीं क्या?

            चोखे ने सुन तो लिया था मगर कान नहीं दिया. चलता रहा.  केसरी जी ने बात का कोई असर होता न देखा तो दौड़े हुए सड़क पर आ पहुंचे. कंधे पर हाथ रक्खा और चोखे को दुकान की तरफ लगे रगेदने.

            भीतर पहुंच कर केसरी जी ने भयंकर सी नॉन वेज़ गाली रसीद की और कहा- जानता हूं. हिन्दी दिवस करीब आ रहा है. इसी से तेरे भाव बढ़ गए हैं. अबे नहीं देना ऑर्डर तो मत दियो, मगर एक पैग तो खींचता जा जालिम.
            सामने बोतल देख, चोखे के सदा गीले रहने वाले होंठ खुश्क होने लगे. जीभ पर कुछ-कुछ होने लगा. मन में कई तर्क-वितर्क उठने-बैठने लगे. बोतल की तरफ हसरत भरी भूखी निगाहों से देखने लगे.

            केसरी तो थे ही मंजे हुए खिलाड़ी. चोखे के भीतर चल रही उथल-पुथल भांपने में कोई गलती नहीं की उन्होने. फटाफट दो पैग बनाए. एक खुद थामा, दूसरा चोखे को थमाया. और फिर दोनों मित्र   सपनों  की रंगीन दुनियां में डूबने उतरने लगे.

            चोखे बोला- मुझे गलत मत समझना यार. मैं तो मारे शरम के छिपा जा रहा था. बात दर असल ये है कि 'हरज़ाई' ने भी 'कविता' नाम से मुशायरे की दुकान खोल ली है.  बॉस से सीधा मिल आया है ससुर. कमीशन भी पूरी चालीस परसेंट दे रहा है. अब बॉस मुझे क्यूं घास डालेगा. तू ही बता केसरी, मैं तुझे मुंह कैसे दिखाता?
            केसरी जी भी घाट घाट का पानी पिये हुए थे. वक्त की नज़ाकत फौरन समझ में आ गई. थोड़ी देर चोखे के अपराध ग्रस्त मासूम चेहरे को निहारा. फिर मुस्करा कर बोले-

-हो गया.
-क्या हो गया ?

            चोखे ने पूछा तो बोले- काम हो गया. तू अभी जा और बॉस को बता कि केसरी पचास परसेंट दे रहा है. मुशायरा कराएगा तो सिर्फ केसरी, चाहे मुफ्त में क्यों न कराना पड़े.

            इस तरह हिन्दी-दिवस की काव्य संध्या हमेशा की तरह केसरी जी ने फिर हथिया ली. हरज़ाई, ठंडी आह भर कर देखते रह गए उन कबूतरों को, जो उनके हाथों  से उड़ कर केसरी की गोद में जा लेटे थे.

            आखिर चौदह सितंबर की शाम भी आ पहुंची. काव्य संध्या कम मुशायरा शुरू हुआ. संचालक थे केसरी जी. कवि ज्यादातर रीतिकालीन थे. उन्हें कविता के कला व भाव पक्ष की जानकारी तो थी, मगर कविताओं के विषय भी रीतिकाल के ही थे. नई चुनौतियों के लिए उन कविताओं में कोई जगह न थी.  

केसरी जी गला खंखारते हुए बोले-
- दोस्तो सबसे पहले मैं दावत देता हूं आज के मशहूर शायर, विद्यापति की परंपरा के रसिक कवि 'सौदाई' को. आप मूल रूप से शृंगार रस के कवि हैं . अपनी बेशकीमती, सिंगार रस से लबरेज़ कविताएं सुना कर आप जड़ चीज़ों तक में प्राण फूंक देते हैं. फिर चेतन जीवों का क्या हाल होता होगा, आप खुद अंदाज़ा लगा सकते हैं. उनके इस हुनर के चश्मदीद गवाह आप खुद ही बनें तो अच्छा रहेगा. आइये सौदाई जी.
            गाव तकिये नंबर पांच पर हलचल हुई. उस पर सौदाई लेटे थे. उठने की उन्होने काफी कोशिश की, मगर कामयाबी न मिली. उम्र उनकी होगी यही कोई पिचासी साल. देख कर लगता था मानों मौत की सज़ा पाए किसी कैदी को काल कोठरी से उठा कर सीधे गाव तकिये पर लिटा दिया गया हो. देह क्या थी, मुट्ठी भर हड्डियों का ढांचा था. बहुत ढूंढने पर भी मांस कहीं दिखाई न देता था. आंखें पाताल लोक पंहुची हुई थीं. रह रह कर उन्हें बेहोशी के दौरे पड़ जाते. एक आदमी पानी का लोटा लिये उनके बराबर में खड़ा था. ताकि जैसे ही उन्हें मूर्छा आए, उनके मुंह पर पानी के छींटे मारे जा सकें.
जब कई बार कोशिश करके भी सौदाई उठ न पाए तो, माइक को ही उनके मुंह तक उठा कर लाना पड़ा. पड़े-पड़े ही वह  बड़बड़ाने लगे-  

मानुष हौं तो वही सौदाइ, बसौं मैं बरेली के बीच बज़ारन
जो पसु हौं तो चोरि घुसौं व करौं सब केसरि खेत उजारन
पाहन हौं तो लगौं कस के कवि केसरि के सिर खून उतारन
जो ठग हौं तो पार करौं कवि केसरि की सब धेनु मंझारन ----

            कहते कहते सौदाई जी को चक्कर आ गया. बेहोशी की हालत में भी उनके होंठों पर मंद मंद मुस्कान थी. बगल में खड़े आदमी ने पानी के कई छींटे मारे, पर छींटों का कोई असर न हुआ. सौदाई कुछ भी सुनने को तैयार न थे. आनन्द के गहरे सागर से बाहर निकल कर नहीं दिये तो नहीं दिये.

            केसरी जी से यह हृदयविदारक दृश्य भला कैसे देखा जाता ? अपने आप से ही बोले - मरता है तो मरने दो साले को. नाइट शिफ्ट करके आया होगा. सबर, संतोष नाम की चीज़ तो बेच खाई है भुक्खड़ ने. इस उमर में भी भकोस  रहा होगा जम के. समझाओ तो सुनने को राजी नहीं.

            फिर ज़रा ऊंचे सुर में बोले- दोस्तो, सौदाई को फिलहाल मूर्छितावस्था में ही छोड़ कर मैं दावत देता हूं कवि चौंच को, जो कविताओं से भी ज़्यादा बगुले की चोंच सरीखी नाक के लिये जाने जाते हैं. उनकी कविता के बारे में कुछ कहना, लफ्ज़ों की तौहीन करना होगा. आप खुद ही भांप लें तो बेहतर होगा.

            यह सुनकर गाव तकिये नंबर चार पर हलचल हुई. कोई छह फुटे 'खली' नुमा एक जीवधारी करवट लेते हुए अंगड़ाए. दरियाई घोड़े सी चौड़ी जम्हाई  ली और फिर डकारते हुए माइक पर पैनी नाक टिका कर बोले-

            प्यारे सरोताओ, आज मुद्दतों बाद ऐसी पबलिक देखी, जो सौदाई को बड़े प्यार से झेल ले गई. अब चन्द चौपाइयां चौंच भी पेश करने की इज़ाज़त चाहता है.
भीड़ से आवाज़ें आईं- इज़ाज़त है.
मंगल ग्रह की सतह से ऊबड़-खाबड़ चौंच के चेहरे पर मुस्कान की धूप खिल उठी. बोले-
गदहा रेंका सुबह सुबह, तुम याद अचानक आए दोस्त
धोबी आया, धोबन आई, धोबी के सब फौजी आए
मेरी यादों के आसमान पर बादल बन कर घिर आए,
या फिर मटियाली ढालों पर,हरी घास चरते तुम आए
स्याह अंधेरी भादों की रातों को दोस्त,
फूट फूट कर जब गीदड़ रोते हैं
मैं भी उनके सुर में सुर दे कर रोता हूं
नहीं ज़रा भी उन लमहों में सो पाता हूं  
बहुत याद आते हो उस सामूहिक रोदन में तुम
बहुत याद आते हो प्रियतम , बहुत याद आते हो........

            इससे पहले कि कवि चौंच कुछ और बोल पाते, एक पत्थर न जाने कहां से आकर उनकी लंबी नासिका के ठीक बीच वाले हिस्से पर आकर टकराया और चूर-चूर हो गया. नकसीर फूट चली. भीड़ में से शुद्ध मांसाहारी गालियों की बौछारें आने लगीं.

-ये पुराना माल कहां से उड़ा लाए केसरी ? बन्द करो ड्रामा. बेवकूफ समझा है लोगों को ? ये कविता है या कविता के नाम पर कलंक ?
 केसरी जी झट से बोले-
            भाइयो, मेहरबानी करके जरा धीरज धरें. चौंच को जानवरों से बड़ा प्यार है. यही वजह है कि  गधे,घोड़े, गीदड़, कुत्ते वगैरह उनकी रचनाओं में ज़्यादा आ जाते हैं. वैसे भी इन जीवों को कविता में जगह तो एक न एक दिन मिलनी ही थी. वह जगह चौंच ने आज दे दी. वैसे तो कुछ गलत नहीं किया है, पर आप जनता जनार्दन हैं. आपका फैसला सिर आंखों पर. इसी लिये अब पेश करता हूं आप के चहेते रोमानी कवि खाकसार को. खाकसार जी वैसे तो शेर व गज़लें कहते हैं मगर आज वे खास तौर से आपके लिये पेश करेंगे शृंगार रस से लबरेज़ कविता. लीजिये पेश हैं खाकसार -

यह सुनने के बाद गाव तकिये नंबर तीन पर कुछ हलचल हुई. अचकन शेरवानी पहने लंबी-लंबी ज़ुल्फें अदा के साथ पीछे झटकते हुए नब्बे साल के खाकसार जी फुर्ती से ज्यों ही उठे कि कमर में चनका पड़ गया. चश्मा एक तरफ तो बत्तीसी का पूरा सेट दूसरी तरफ जा गिरा. मगर श्रोताओं का ऐसा सैलाब पाकर उनका जोश कुलांचे वैसे ही भर रहा था. फिर से संभले. टटोलते हुए चश्मा कब्ज़े में लिया, बत्तीसी को यथास्थान बिठाया व भीड़ की तरफ रूबरू हुए. जी भर कर भीड़ को निहारा. फिर मुसकरा कर बोले-
पेश करता हूं एक कविता, जिसमें प्रेमी अपनी भावनाओं को ऐसे प्रकट कर रहा है-
छिपते सूरज की पीतल जैसी  किरनें हो तुम.
हरी घास पर  लुढ़की बासी शबनम हो तुम.
रंग तुम्हारा काजल पर हो जैसे कच्चा दूध गिरा
चाल आपकी जैसे पारा धरती पर बिखरा.
विग आभास कराता है असली बालों का
बिल्ली आंखें  छुपी हुईं कॉंटेक्ट लेंस के पीछे.
तोते जैसी नाक सर्जरी से बनवाई है
चमकदार बत्तीसी तुमने नई नई पाई है.......

            अभी नायिका का नख-शिख वर्णन कवि खाकसार पूरी तन्मयता के साथ कर ही रहे थे कि भीड़ में खलबली सी मचने लगी. लोग खड़े होकर मांसाहारी गालियों से केसरी जी का अभिनन्दन करने लगे. कोई उन्हें मंच से  नीचे बुला रहा था तो कोई उनकी मां-बहनों का  स्तुतिगान उच्च स्वर से कर रहा था.
            मगर केसरी जी ने भी कच्ची गोलियां नहीं खेली थीं. एक पल में ही मौके की गंभीरता ताड़ गए. बिजली की फुर्ती से खाकसार के हाथों का माइक छीना. उन्हें पीछे धकेला और बोले-
            और जनाब, अब आपकी खिदमत में पेश करता हूं एक ताज़ा तरीन युवा कवि घोंचू बरतानवी को. मुझे यकीन है बरतानवी अपनी निराली अंग्रेज़ियत भरी शायरी से आपका दिल छू लेंगे.
            गाव तकिये नंबर दो पर एक बीमार से युवा कवि सोए हुए थे. अपना नाम सुन कर वह चौंक उठे. फिर जल्दी ही संभलकर बोले -पेश हैं दो कतरे-
सारे जहां से अच्छा बरतानिया हमारा.
 हैं उल्लू हम इसी के, ये बोसतां हमारा.
अंग्रेज़  हम, वतन है बरतानिया हमारा .
सारे जहां से अच्छा इंग्लैंड है हमारा.
यूनान मिश्र रोमां सब मर गए शरम से
बाकी मगर है अब तक नामो निशां हमारा
ये रंग ही तो अपना कालिख से मिल रहा है
दिल तो मगर है अब भी स्टील सा हमारा.
            इसके बाद तो मुशायरे मे हंगामा  बरपा हो गया. जूते चप्पल , पत्थर, लाठी डंडे, गाली गलौज़, जो कुछ भी चल सकता था चला. केसरी जी तो अनुभवी थे. बदन में जान भी बाकी थी. खिसक लिये चुपचाप पतली गली से. मगर सौदाई तो मृत्युशय्या पर थे, चौंच अपनी लंबी नाक पर गड़े चुटीले पत्थर की चोट से बिलबिला रहे थे जबकि  बरतानवी की बल खाती ज़ुल्फों पर कई पत्थर एक साथ मेहरबान हुए थे. समाचार लिखे जाने तक बरतानवी आइसीयू से बाहर नही आए थे.  

            सुना है- इस हादसे के बाद चोखे ने मुशायरों से तौबा कर ली है. उधर केसरी के हौसले अब भी बुलंद हैं. पता चला है कि अगला कवि-सम्मेलन वह अस्पताल के भीतर रखने वाले हैं ताकि हमले में घायल होने वाले कवियों को ज़रूरी चिकित्सा सुविधाएं तत्काल मुहैया कराई जा सकें.

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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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