वसंत

                

शीतलता  के गहन अतल दु:खमय सागर से बाहर आकर
मकर व्यूह को तोड़ सूर्य ने
भयाक्रांत निस्तेज थरथराते गुलमोहर को देखा ।
आत्मग्लानि से खिन्न  विपन्न वह गुलमोहर
 मगरमच्छ के  खूनी जबड़ों में जकड़े
 गजेंद्र की मोक्ष कामना  के समान
हाथ जोड़ मानो पढ़ता  था सहस्रनाम ।
दिनमणि की कृपा दृष्टि  
पड़ गई अंतत: मलिन दीन गुलमोहर पर 
हीन लौह को स्पर्श मिला पारस गुटिका का
हरे नए कोमल चमकीले
चिकने पत्तों के आभूषण भरने लगे अंग अंगों पर ।
भांति भांति की चिड़ियों को मिल गया बसेरा
शाखाओं पर दहके अंगारों जैसी
मोहक, मनभावन मंजरियां दमक उठीं ।
अब वसंत में कितना खुश लगता गुलमोहर !

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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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