शीतलता
के गहन अतल दु:खमय सागर से बाहर आकर
मकर
व्यूह को तोड़ सूर्य ने
भयाक्रांत
निस्तेज थरथराते गुलमोहर को देखा ।
आत्मग्लानि
से खिन्न विपन्न वह गुलमोहर
मगरमच्छ के
खूनी जबड़ों में जकड़े
गजेंद्र की मोक्ष कामना के समान
हाथ
जोड़ मानो पढ़ता था सहस्रनाम ।
दिनमणि
की कृपा दृष्टि
पड़
गई अंतत: मलिन दीन गुलमोहर पर ।
हीन
लौह को स्पर्श मिला पारस गुटिका का
हरे
नए कोमल चमकीले
चिकने
पत्तों के आभूषण भरने लगे अंग अंगों पर ।
भांति
भांति की चिड़ियों को मिल गया बसेरा
शाखाओं
पर दहके अंगारों जैसी
मोहक, मनभावन मंजरियां दमक उठीं ।
अब
वसंत में कितना खुश लगता गुलमोहर !
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें