सातवां फेरा

             
                                                                                      
ये तो हमने कई बार सुना था कि ऊपर वाला जब देता है, छप्पर फाड़ कर देता है. मगर लेता भी वह छप्पर फाड़ कर ही होगा- ऐसा हमने सपने में भी न सोचा था.

लाला धरम दास जी ने भला क्या बिगाड़ा होगा किसी का ? पहली ज़्यादती तो यही हुई उनके साथ कि उन्होने वैश्य परिवार में अवतार लिया. दुकान के गल्ले को जो भलामानुष राम की चिड़िया राम का खेत समझता हो उस संत पुरुष से मुनाफे की उम्मीद करना भला कहां की इन्सानियत थी. आप तो पिछले कई जन्मों से  रघुनाथ जी के ही भक्त थे. ऐसी लगन मन में लगी हुई थी कि कोर्स की किताबें बस्ते में हिफाज़त से बन्द रख कर आप चौबीसों घंटे रामायण, गीता, हनुमान चालीसा का सस्वर पाठ करते रहते.
दूसरी, तीसरी, चौथी--- बाद में जितनी भी गलतियां, या कहिये ज़्यादतियां ऊपर वाले ने लाला जी पर बरपा कीं- वे सब इसी पहली गलती की कोख से जन्मी थीं. न लाला धर्मात्मा होते, न दसवीं में दस बार फेल होते. न उनका पाणिग्रहण लगभग डेढ़ क्विंटल गोश्त की मालकिन शैला देवी से होता. और बच्चे हर वक्त आपको पूजाघर में ध्यान लगाए बैठे न देखते तो हर क्लास में सिर्फ एक साल ही लगाते- यों आपके दस वर्षीय रिकॉर्ड के पीछे लाठी लेकर न पड़े रहते. और दुकान में भी ताला-बन्दी की जो नौबत कई बार आई थी, वह भी न आती. उधारखाते को लोग धर्मखाता न समझ बैठते.

घर के इस पवित्र वातावरण का प्रभाव यह पड़ा कि उनकी प्यारी बिटिया  हाईस्कूल रूपी खाई को  तीसरी बार किसी तरह गिरते पड़ते टापने के बाद शहर के एक 'विख्यात' काल सेंटर में लग गई. नौकरी के एक महीने बाद ही बिटिया का स्नेह संपर्क अपने किसी साथी से भी जुड़ गया. संपर्क स्थापित होते ही  आना जाना बढ़ा, सैर सपाटे बढ़े, डेटिंग पर जाया जाने लगा.और साल भर होते न होते दोनो खुले आम हाथ में हाथ डाले लाला जी की दुकान के सामने से गुज़रने लगे. मुफ्त खोर गाहकों से  घिरे लाला जी आंखों को  किराने के डब्बों के पीछे छिपाते फिरते. बाद में तो बात यहां तक बढ गई कि वह नौजवान लाला जी की दुकान से ही महीने की राशन भरवाने लगा, और वह भी उधारखाते में.
चलो यहां तक भी लाला जी झेल ही रहे थे, मगर जब वे दोनो रहने भी साथ साथ लगे तो लाला जी के कानों पर जूं रेंगी. राधिका बिटिया नौकरी के बाद शुरू में तो एकाध दिन छूड़ कर घर की सुध ले लेती, पर अब तो वह हफ्ते में सिर्फ इतवार के रोज़ आती, मां के घुटनों के दर्द का ज़ायज़ा लेकर फौरन लौट जाती. बिटिया से लाला जी बचने की पूरी कोशिश करते, मगर फिर भी टकरा जाते तो बगलें झांकते हुए गाने लगते -सिरी रामचन्द किर्पालु भजमन---.
वैसे ऊपर वाले की कृपा से लाला जी काफी तगड़ा हाज़मा रखते थे, और ये तो क्या, इससे बड़े बड़े अपमान भी हंसते हुए झेल जाने की ताकत रखते थे. मगर रिश्ते दारों व बिरादरी वालों की पाचन शक्ति इतनी प्रबल न थी. राह चलते लाला जी पर लोग फब्तियां कसने लगे, फोन आने लगे, एसएमएस आने लगे, जिनमे उनकी  बिटिया के नित नए, दुस्साहसी कारनामों का आलंकारिक वर्णन रहता. लाला जी के पास मौन नाम का जो अचूक ब्रह्मास्त्र था उसी के बूते अब तक वे सारे हमले झेलते आ रहे थे. मगर हमले थे कि थमने की जगह बढते ही चले गए. अब तो आलम ये था कि लोग घर पर आ कर चाय भी पीते व खरी खोटी भी सुना जाते.

हद तो तब हुई जब गुप्ता जैसा इंसान भी आ कर आंखें तरेर गया. कहता था- लाला, अब तो पानी नाक से ऊपर उठ चुका. या तो इस कलमुहीं का संस्कार कर, नहीं तो बिरादरी से निकलने को तैयार होजा. कुछ पता है- तेरी बेटी पेट से है ? वो भी आठ महीने की ? पांच-सात रोज में शादी न की तो समझ ले क्या हो जाएगा. कुंआरी बेटी को लोग मां कहें, तुझे अच्छा लगेगा ? अरे बेटियां मेरी भी भागी थीं. और एक नहीं, दो नहीं तीन नहीं, चार चार भागी थीं. मगर ऐसे छाती पर बैठ कर मूंग नहीं दली किसी ने. बिचारियों ने जो भी अच्छा बुरा किया छिप कर किया, बाहर किया.

यह सुन, लाला धरम दास जी के हाथ खुद ब खुद जुड़ गए. फूटे सुर में भर्राए- भैया मरने जीने में गोत-बिरादर  ही काम आता है. ये टोपी तुम्हारे पैरों पर है. पहना दो चाहे उछाल दो. मेरी तो अकल काम नही करती. और तुम्हारी भाभी को तो क्या कहूं. सिर्फ भकोसने से मतलब है भागवान को. दिन में दस बार चरती है. खा पी कर सो जाती है. मैं क्या क्या देखूं.

लाला को यूं आत्म समर्पण की मुद्रा में पा कर गुप्ता जी की छाती फूल गई. अभयदान देने की मुद्रा में दांयां हाथ भगवान विष्णु की तरह खुद ही उठ गया. बोले- लाला, तुम अपनी ही लेकर क्या बैठे हो, ज़रा मेरी तरफ देखो. क्या क्या नहीं सुना होगा मैने ? तुम्हारी तो एक है. मेरी तो चार थीं. खैर ! जो हुआ सो हुआ. अब ऐसा करो कि चटपट हरद्वार जाकर इसके फेरे फिरवा दो. जहां एक बार फेरे फिरे नहीं कि, तुम्हारा ग़ड़ा कांटा निकला नहीं. फिर दुनियां कुछ नहीं कहेगी. और फिर भी भौंकती है तो भौंकती रहे. तुम चौड़ी तान कर सोना.   

लाला जी का चेहरा खिल उठा. जैसे बुझते दिये में किसी ने तेल डाल दिया हो.
अगले ही रोज़ परिवार समेत लाला जी रेल गाड़ी पर चढ़ते देखे गए.  किसी को कानो कान खबर न हुई कि वह अचानक गए कहां.

ट्रेन में लाला जी बिल्कुल खामोश थे. उनकी गरदन परमानेंट खिड़की की तरफ मुड़ी हुई थी. रास्ते में जो भी मंदिर मस्ज़िद पड़ते, वह हाथ जोड़ लेते. कोई नदी पड़ती तो जेब से  पैसे निकाल कर पानी में बहा देते. मगर जब कोई बस्ती आती तो नज़ारा कुछ और ही होता. सजी सजाई, मरियल घोड़ियों पर तने बैठे, मुकुट-झालरें झलकाते दूल्हे ही दूल्हे नजर आते. कान चीर देने वाली बैंड की धुनों पर अद्धे चढ़ाए युवक बेतहाशा नाच रहे थे. ऐसा लगता मानों उन्हें अच्छी तरह पता है कि वे क्यों नाच रहे हैं. लाला जी का अबोध शिशु सा मन भी मचल उठा, पर वह संभल गए. उन्हें याद आ गया कि इस वक्त वे मामूली छोकरे नहीं एक परिवार के मुखिया हैं. जगह जगह तने शामियानों को देख देख कर एक ठंडी आह उनके होंठों से निकल जाती. हाथ जोड़ मन ही मन  वह अपर बर्थ की तरफ देखते हुए कहते- हे रघुनाथ जी, एक बार इस कुलटा के फेरे फिरवा दो बस्स. फिर तो पानी चाहे बरफ हो, गंगा मैया में गोते मार कर ही लौटूंगा. ज्यादा से ज्यादा नमूनिया ही तो होगा.

खयालों की सुपरफास्ट पर लाला जी उड़े जा रहे थे कि  तभी पैसेंजर एक झटके के साथ हरद्वार रेलवे स्टेशन पर खड़ी हो गई.  बाहर निकले तो दस बज रहे थे. निकलते ही लालाइन का फतवा ज़ारी हुआ- हम पहले डट कर खाना खाएंगे. जो भी होगा उसके बाद होगा.
इस अध्यादेश के बाद लाला जी की क्या हिम्मत कि संशोधन पेश करते. चुपचाप मंज़ूरी की मुहर लगा दी.
किसी ठीक ठाक से होटल को तलाशते बाज़ार से गुज़रने लगे. कई बारातें अगल बगल से गुज़र रही थीं. शामियानों से खाने के सजे हुए पांडाल झांक रहे थे. कइयों पर तो खाना शुरू भी हो चुका था. कहीं चाट दही के खोमचे थे तो  कहीं चाइनीज़, कहीं जूस बार थे तो कहीं सूप बार. कहीं इंडियन तो कहीं कंटीनेंटल. लाला जी की रसनेंद्रिय से पानी की धाराएं फूट चलीं पर फौरन घूंट गए. बचपन की यादें मानस पटल पर कौंधीं, खो गए यादों में, जब बारातों में घुस कर वे तबीयत से गुलाब जामुन उड़ाया करते, या मटर पनीर पर जम कर हाथ साफ किया करते. कोई पूछता तक न था कि किसके बेटे हो.किसकी तरफ से हो.

लाला जी के मन में तर्क उठा कि अगर वे किसी शामियाने में घुस जाएं व शालीनता के साथ लाइन में लग कर प्लेट भर लें तो आज भी कोई उन पर शक नही कर पाएगा. क्यों कि उनकी सूरत आज भी भोली भाली है. पर अगले ही पल इस नीच विचार को उन्होंने जंगली घास की तरह उखाड़ फेंका. सोचने लगे कि इस आखिरी उमर मे ये सब सोचें ही क्यों? सोचोगे तो फिर करने का जी करेगा. और करोगे तो पकड़े भी जा सकते हो. और पकड़े जाने का मतलब होगा ज़िन्दगी भर कमाई इज़्ज़त लुटा बैठना.
इस बेवकूफी भरे विचार पर वह खिसिया कर मुस्कराने लगे--- इज़्ज़त ! कैसी इज़्ज़त ? वह तो एक लुटिया थी, जो इस होनहार औलाद ने कभी की डुबो दी.
तभी उन्हें अपनी हैसियत का होटल नज़र आया. सपरिवार भीतर पधारे.  भूख से सबका बुरा हाल था. खाना आते ही भूखे शेर से टूट पड़े.
खा पीकर जब बाहर निकले तो रात के ग्यारह बज रहे थे. मारे सर्दी के पसलियां खड़ खड़ा रही थीं. लालाइन बार बार लाला जी की धोती खींच कर खुसफुसा रही थी कि दाएं बाएं किसी पंडे पर भी नज़र रखो. आजकल तो पंडितों का भी अकाल पड़ गया है.
काफी दूर तक चलने के बाद एक ब्राह्मण देवता के दर्शन हुए. झोला कंधे पर लटकाए वह लड़खड़ाते चले आ रहे थे.
लाला जी ने दौड़ कर घुटनों के बल बैठ उनके कीचड़ाक्रांत चरण कमलों का पूजन किया. फिर बड़ी कातर आवाज़ में बोले- हे ब्रह्मा जी, घोर विपत्ति में हूं. रक्षा करो.

- क्या है ? पंडित जी का सिंहनाद सुन, लाला जी के सब्र का बांध टूट गया. सिसकते हुए बोले- प्रभो, क्या आज मेरी बेटी क्वांरी ही रह जाएगी. कृपा करो भगवन.
-मैंने ठेका ले रखा है क्या ?  पंडित जी फिर गुर्राए. लाला जी ने पैर और कस कर पकड़ लिये, व मन ही मन बोले, बेटे ऐसे कैसे निकल जाएगा तू. फिर धाड़ मार कर बोले- प्रभो, दया करो. जितनी दच्छिना कहोगे, दूंगा. पर ये काम निपटा दो.
आर्तनाद सुन, ब्राह्मण दिल पसीज गया. चल दिये  मन्दिर की तरफ.
इधर दुल्हन बनी बिटिया के पेट में दर्द  होने लगा. हाथ से कस कर पेट दबाए मुश्किल से चल रही थी. पीठ सहलाती मां धीरज बंधा रही थी- बेटी थोड़ा और सबर रख ले. एक  फेरा बचा  है। उसके बाद डिलीवरी होगी तो कोई कुछ नहीं कह सकता।  मंज़िल आ गई. भला किनारे लग कर भी कोई डूबता है ?

इस सबसे बेखबर पंडित जी ने दूल्हे-दुल्हन को एक चुन्नी से बांध, अलाव के चक्कर काटने का हुक्म सुनाया. बीच बीच में वह मंत्र जैसी कोई चीज़ पढ़ते रहे.
तकरीबन बेहोशी की हालत में पंडित जी ने किसी तरह छह फेरे फिरवा दिये. पर इसके आगे न तो वाणी ही उनके वश में रही और न  ही वे खड़े रहने के काबिल बचे. अपनी हालत भांप कर पंडित जी ने घंटी शंख व शालिग्राम झोले में भरे व गिरते पडते उठ कर चल दिये.
अगले आदेश की प्रतीक्षा में खड़े वर वधू उन्हें देखते रह गए. लाला फिर दौड़े व ब्राह्मण देव के चरण कमलों से लिपट गए. बोले - हे दया निधान, जैसे आपने छह फेरे फिरवाए, बस वैसे ही सातवां फेरा भी फिरवा दीजिये. बड़ी कृपा होगी.

लाला को झटकते हुए पंडित जी बोले- अरे मूर्ख ! इसे रहना होगा तो  छै में भी रह लेगी. नहीं रहना होगा तो सात में भी भाग जाएगी.

और फिर किसी निर्मोही सन्यासी की तरह बगैर पीछे देखे पंडित जी अंधेरे में बढ गए.

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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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