पूजाघरों
में मोम की प्रतिमा होती नहीं अक्सर ।
वो पत्थर की होती है.
वो पत्थर की होती है.
भले
ही मोम की प्रतिमा बड़ी ही खूबसूरत क्यों न हो ,
भले
ही मोह लेती है,
उतर जाती दिलों में,
उतर जाती दिलों में,
देखने
भी बड़ी जीवंत लगती है मगर,
जब भी किसी ने कामना की मोम के बुत से
दिये
की आंच से गल कर ,बदल कर
ढल
गई वह मोम की प्रतिमा भयानक से किसी अनजान चेहरे में -
जिसे
पहचान पाना था बहुत मुश्किल ।
जबकि
पत्थर से बनी प्रतिमा पिघलती ही नहीं ।
शक्ल
सूरत भी नहीं उसकी बदलती ।
आज भी है ठीक वैसी जिस तरह कल थी।
और
मुमकिन है कि कल भी ठीक ऐसी ही रहेगी ।
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