इस लेख मे कही गई सारी बातें प्राचीन
विद्वानों द्वारा पहले ही कह दी गई हैं । नई बात सिर्फ यह हो सकती है कि इस लेख मे
आधुनिकतम वैज्ञानिक जानकारी को प्राचीन भारतीय जानकारियों के साथ मिला कर देखने की
कोशिश हुई है। लेकिन यह भी हो सकता है कि ऐसी कोशिश पहले हुई तो हो पर मेरी जानकारी मे न हो।
जीव की लोकयात्रा से हमारा तात्पर्य यह है
कि जीव कभी नष्ट नहीं होता । वह पृथ्वी लोक को छोड़ता है तो किसी दूसरे लोक मे वहां
की परिस्थितियों के अनुसार शरीर धारण कर लेता है। इस प्रकार अनंत काल तक जीव की यह
यात्रा चलती रहती है । यह बात
श्रीमद्भवत्गीता में इस प्रकार कही गई है-
वासांसि
जीर्णानि यथा विहाय नवानिगृह्णाति नवानि देहि ।
तथा
शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देहि ॥
(अध्याय 2, श्लोक 22)
अर्थात जिस प्रकार
वस्त्र पुराना हो जाने पर त्याग दिया जाता
है व नया वस्त्र पहन लिया जाता है, उसी प्रकार आत्मा भी पुरानी व जीर्ण
हो चुकी देह को त्याग कर नवीन देह धारण करती है ।
जीव
: सबसे पहले “जीव” शब्द को
समझें, तब आगे की बात करेंगे । जीव को आत्मा भी कहते हैं। इसमे चेतना
(consciousness) है
। इसी चेतना के कारण पांच तत्वों से बनी देह जीवित कहलाती है । इसके अभाव मे देह
मृत कहलाती है । जीव के गुणों के बारे मे
श्रीमद्भगवद्गीता मे कहा है –
नैनं
छिंदंति शस्त्राणि, नैनं
दहति पावक: ।
नैनं
च क्लेदयन तापो नैनं शोषयति मारुत:॥
(अध्याय 2,
श्लोक 23)
“अर्थात
आत्मा को न तो अस्त्र शस्त्रों से काटा जा सकता है,
न
आग से जलाया जा सकता है, न
जल से भिगोया जा सकता है और न वायु से सुखाया जा सकता है”।
लेकिन जो शरीर हमे दिखाई देता है – उसे
अस्त्र शस्त्रों से काटा जा सकता है,
आग से जलाया जा सकता है, जल
से भिगोया जा सकता है तथा वायु से सुखाया भी जा सकता है ।
मतलब कि यह जीवित देह दो विपरीत गुणों वाली
सत्ताओं का मेल है। एक वह सत्ता है जो इंद्रियों से अनुभव की जा सकती है- आंखों से
दिखाई पडती है, कानों से उसके द्वारा उत्पन्न ध्वनि सुनी जा
सकती है, नाक से उसकी गंध सूंघी जा सकती है, जीभ
से उसका स्वाद जाना जा सकता है,
छूकर उसके भौतिक गुणों का अंदाज लगाया जा सकता है। दूसरी
सत्ता वह है जिसे इंद्रियों से अनुभव नही किया जा सकता । जो न आग से जलती है न हवा
से सूखती है, न हथियारों से कटती हैऔर न पानी से भीगती है
। ये पानी, ये हवा, ये
आग ये काटने- छिदने योग्य शरीर- जो पृथ्वी तत्व से बना है, ये
सब पांच तत्व हैं। इनमे आकाश का जिक्र नही मिलता । मतलब कि चार तत्वों -आग, हवा, पानी, मिट्टी
को आकाश ने धारण किया हुआ है,
इसलिए आकाश का जिक्र नही
है। जबकि आत्मा, जिस पर इनका असर नही पड़ता, वह
आकाश से भी सूक्ष्म है। उसे आकाश धारण नही कर सकता। बल्कि उसी ने आकाश को स्वयं मे
धारण किया हुआ है।
तो पांच तत्वों से बना ये शरीर तो नष्ट हो
सकता है, लेकिन इनके संयोग से बने शरीर में रहने वाले जीव को नष्ट होना कैसे माना जाए? नष्ट
होना यानी किसी चीज का अपने मूल तत्वों मे अलग हो जाना, बंट
जाना । लेकिन जो चीज मूल तत्वों से भी
सूक्ष्म हो वह किसमे बंटेगी ?
मतलब कि उसके नष्ट
होने जैसी स्थिति की तो कल्पना ही नहीं की
जा सकती ।
अब देखें कि सांख्य योग के अनुसार जीवित
मानव देह में जीव के अलावा और कौन कौन सा तत्व पंच भूतों से सूक्ष्म हैं ?
सांख्य दर्शन कहता है कि जीवित देह चौबीस
तत्वों से बना है- पांच कर्मेंद्रियां, पांच
ज्ञानेंद्रियां, दस उनके विषय, इक्कीसवां
मन, बाईसवीं बुद्धि, तेईसवां
अहं, और चौबीसवां आत्मा या जीव. इनमें इक्कीस से चौबीस तक के
तत्व पंच भूतों से नहीं बने हैं क्योंकि ये इंद्रियों से नहीं जाने जा सकते। मन
आंख से नही दिखाई देता,
मन की बात कान से नही
सुनाई देती। मन की गंध का आज तक किसी ने
अनुभव नही किया । मन का स्वाद भी जीभ नही ले सकती क्योंकि वह सामने किसी चीज के
रूप मे नही है । इसी तरह बुद्धि है,
अहं है और जीव है ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि सांख्य दर्शन मे
उल्लिखित चौबीस तत्वों मे से बीस तत्व तो भौतिक स्वरूप मे विद्यमान हैं तथा चार
तत्व (मन, बुद्धि, अहं
तथा जीव) पराभौतिक स्वरूप मे मौजूद रहते हैं । ये चार तत्व भले ही भौतिक देह मे
मौजूद रहते हैं लेकिन ये देह से बाहर भी निकल सकते हैं । क्योंकि भौतिक देह इनमे
है, ये भौतिक देह मे नहीं हैं ।
लोक यात्रा : देह छूटने पर
भी ये चार तत्व – मन, बुद्धि, अहं
और जीव, प्राय: इकट्ठे ही रहते हैं। इसी संगठन को सूक्ष्म शरीर
कहते हैं। चार तत्वों का यह संगठन अर्थात यह सूक्ष्म शरीर देह से अलग होने के बाद
भी कायम रहता है, क्यों?
आखिर वह कौन सा कारण है कि ये चार तत्व –
मृत्यु के बाद भी (अर्थात पंच भौतिक देह
से अलग होने के बाद भी ) परस्पर इकट्ठे रहते हैं, अलग
नहीं होते ?
इन चार तत्वों में सबसे निचले पायदान पर
रहता है “मन” । जब तक स्थूल शरीर रहता है तब तक कर्मेंद्रियां व ज्ञानेंद्रियां भी
रहती हैं । इंद्रियों के विषय भी तभी तक सार्थक होते हैं। मन का संपर्क सभी इंद्रियों व उनके विषयों रूप
रंग रस गंध शब्द आदि से भी बना रहता है । काम
क्रोध लोभ मोह अहंकार – ये जो पांच विकार चेतन मनुष्य मे पाए जाते हैं, उनका
भी सबसे पहले प्रभाव मन पर ही पड़ता है।
तीन गुणों- सत, रज, तम
का मन पर प्रभाव भी स्थूल शरीर के अस्तित्व के कारण ही होता है । तात्पर्य यह है
कि सत, रज, तम
– ये त्रिगुण तथा काम, क्रोध, मद, लोभ
.मोह- ये पांच विकार भौतिक देह के कारण ही मन को प्रभावित करते हैं । त्रिगुणात्मक
वृत्तियों के अनुरूप ये पांच आवेग तत्संबंधी इंद्रियों को उनके विषयों मे प्रवृत्त
होने के लिए प्रेरित करते हैं। इस प्रेरणा में मन, बुद्धि
और अहं का भी योगदान होने के कारण अच्छे
या बुरे कर्म मे प्रवृत्ति होती है। इन कर्मों का
अच्छा या बुरा प्रभाव मन को
प्रभावित करता है।
तो स्थूल
शरीर द्वारा किये गए कर्म का मन पर ही सबसे पहले प्रभाव पड़ता है । जब सूक्ष्म शरीर स्थूल शरीर से
अलग हो जाता है तब भी मन पर कर्म का प्रभाव बचा रह जाता है. जैसे
कि किसी फूल के टूट जाने के बाद वह मुरझा जाता है व बाद मे सूख जाता है किंतु उसकी
खुशबू समाप्त नहीं होती,
उसी तरह स्थूल देह के नष्ट
होने के बाद भी मन पर इंद्रियों के संसर्ग के कारण जो अच्छा या बुरा प्रभाव पड़ा था, वह
नष्ट नहीं होता, बल्कि सूक्ष्म शरीर मे भी प्रभावी रहता है ।
अक्सर लोग कहते हैं “अच्छाई या बुराई ही
साथ जाती है, धन दौलत यहीं रह जाती है” इस लोकोक्ति मे भी
यही निहितार्थ है कि स्थूल देह से अलग होने के बाद सूक्ष्म शरीर भी उन सभी
अच्छाइयों या बुराइयों को अपने मे धारण किये हुए होता है जो उसकी जीवित देह मे
मौजूद थीं । जैसे स्थूल देह का सारथि मन होता है ठीक वैसे ही सूक्ष्म शरीर का
सारथि भी मन ही होता है। अर्थात सूक्ष्म शरीर मे भी मन ही शेष तीन तत्वों (बुद्धि, अहं
तथा जीव) को बांधे रखता है। गीता मे भगवान कृष्ण कहते हैं- इंद्रियाणां मन:
अस्मि । अर्थात इंद्रियों मे मै मन हूं । अर्थात इंद्रियां भले ही पांच बताई
गई हों लेकिन एक इंद्रिय और भी होती है जिसका संबंध स्थूल शरीर के किसी भाग विशेष
से नहीं होता। इस छठी इंद्रिय का नाम मन है। मन को इंद्रियों का राजा इसीलिए कहा
गया है कि मन के आधीन ही सभी इंद्रियां काम करती हैं। साथ ही मन अन्य सभी इंद्रियों के कार्य भी कर सकता है
तथा इंद्रियों के स्थूल स्वरूप के अभाव में सूक्ष्म शरीर मे भी सभी इंद्रियों के विषयों में प्रवृत्त हो सकता है । अंतर इतना ही है कि स्थूल
शरीर मे तो स्थूल इंद्रियां अपने विषयों से भौतिक रूप में जुड़ती हैं किंतु सूक्ष्म
शरीर में मन उन स्थूल इंद्रियों के विषयों से जुड़ने की बजाय उनके गुणों से जुड़ता
है, क्योंकि विषयों के गुण सूक्ष्म होते हैं तथा मन द्वारा
ग्राह्य हैं । उदाहरण के तौर पर नासिका का विषय है गंध । गंध पृथ्वी तत्व का गुण
है। तो स्थूल शरीर मे नासिका पुष्प या
किसी भी गंधयुक्त वस्तु के संपर्क मे आती है ।
यह गंध उत्पन्न करने वाला पुष्प घ्राणेंद्रिय का विषय हुआ तथा उसके विषय- गंध को नासिका
ग्रहण करती है, जबकि सूक्ष्म शरीर की स्थिति मे मन नासिका
की भूमिका निभाते समय सीधे घ्राणेंद्रिय के विषय अर्थात गंध को ग्रहण कर लेता है। पुष्प
से उसका संपर्क हो या न हो इससे अंतर नहीं पड़ता । बगैर आंख के भी मन दर्शनेंद्रिय
(आंख) के विषय अर्थात रूप को देख सकता है । उन रूपों को भी, जिन्हे
स्थूल आंखों की सीमित क्षमता के कारण देख पाना संभव न था । उन गंधों का अनुभव भी
कर सकता है जिन्हें स्थूल नाक ने कभी नहीं सूंघा। उन स्वादों
को भी चख सकता है जिन्हें स्थूल जीभ ने कभी नहीं चखा। उन वस्तुओं का स्पर्श भी कर
सकता है जो स्थूल नहीं हैं ।
सारांश यह है कि इस चराचर जगत की सभी
वस्तुएं पांच तत्वों से ही बनी हैं। हर वस्तु मे ये पांच तत्व अलग अलग अनुपात मे
मौजूद होते हैं । सभी तत्वों के गुण भी उस वस्तु मे मौजूद रहते हैं । उन्हीं गुणों
को अपने अपने विषयों के अनुसार पांचों स्थूल ज्ञानेंद्रियां अनुभव करती हैं ।
लेकिन जब स्थूल शरीर नहीं रहता तब स्थूल ज्ञानेंद्रियां भी नहीं रहतीं। जैसा कि
पहले कहा गया है- ऐसी स्थिति में इंद्रियों का राजा मन उस वस्तु के तत्वों के
गुणों से सीधे संपर्क मे आता है । ग़ुण भी मन की ही भांति सूक्ष्म होते हैं।
इसका मतलब यह हुआ कि जिस भौतिक जगत मे हम
रहते हैं वह भौतिकी के नियमों के सीमित दायरे मे कैद है ।
लेकिन मन का कार्यक्षेत्र इस भौतिक जगत की सीमाओं के बाहर भी है। इस भौतिक जगत मे
कोई भी वस्तु प्रकाश के वेग से अधिक तेज़ नहीं चल सकती, लेकिन
मन पर यह नियम लागू नही होता। मन प्रकाश की गति से भी लाखों गुना तेज गति से चलता
है। बल्कि सच तो यह है कि मन काल (Time) से परे है- कालातीत है । केवल काल ही नहीं
मन देश (Space) से भी परे हुआ क्योंकि देश अर्थात दूरी (Distance) भी पृथ्वी तत्व का भौतिक गुण है और मन अन्य चार तत्वों की भांति पृथ्वी तत्व से भी सूक्ष्म है।
इस विचार पर जरा और विस्तार से मनन करें तो विदित
होता है कि यह अनंत, असीम पंच भौतिक जगत मन के बाहर नहीं, बल्कि
मन के भीतर स्थित है। सब कुछ भीतर ही है। जो कुछ हम बाहर देख रहे हैं वह स्थूल आंखों की नजर मे
बाहर जरूर है किंतु मन की आंखों से देखने पर पता चलता है कि यह सारा चराचर जगत मन
के भीतर ही समाया हुआ है। शायद तभी इस सृष्टि को ब्रह्मा जी की मानसिक सृष्टि कहा
गया है । पुराण कहते हैं कि इस सृष्टि की रचना ब्रह्मा जी ने अपने मन से की थी । गीता मे भगवान
कृष्ण जो विराट रूप अर्जुन को दिखाते हैं उसका भावार्थ संभवत: यही था कि जब मन
इतना शक्तिशाली है कि वह पंचभौतिक सृष्टि को स्वयं मे धारण किये हुए है तो फिर मैं अर्थात
परम आत्म तत्व कितना शक्तिशाली होऊंगा,
जिसने स्वयं मन को भी धारण
किया हुआ है? मतलब कि यह संपूर्ण सृष्टि चाहे जड़ हो चाहे
चेतन – यह मुझमे ही समाई हुई है। स्थूल शरीर या सूक्ष्म शरीर तभी कार्य कर रहे हैं
जब मेरा प्रतिनिधि जीव उनमे अवस्थित है । अपने इस ब्रह्मांड का आरंभ और इसका अंत
मुझमे ही है। मन के सारे कार्य व्यवहार,
बुद्धि के सारे चमत्कार
अहं के सारे विराट पर्वत मुझमे ही समाए हुए हैं । और जीव तो मेरा ही स्वरूप है ।
तो फिर जो कुछ तू करेगा,
वह तू कहां कर रहा होगा, वह
तो तुझसे करवाया जा रहा होगा। भले ही तुझे लगे कि तू कर्म करने के लिए स्वतंत्र है, लेकिन
वह स्वतंत्रता भी पहले से ही तय है । अत:
तू यह मत समझ कि तू इन कौरवों को मारेगा। ये तो मेरे द्वारा पहले ही मार दिये गए
हैं। तुझे तो केवल माध्यम बनाया गया है इन्हे मारने का ।
एक शब्द है टेलीपैथी । आप किसी के बारे मे
सोचते हैं, और वह व्यक्ति उसी समय आपके सामने आ जाता है
। यह कैसे हुआ ? इसी घटना को पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों ने
टेलीपैथी नाम दिया है । यह एक उदाहरण है कि मन कैसे दर्शनेंद्रिय –आंख की भूमिका
निभाता है। मन सूक्ष्म है। उसके लिए देश काल का कोई अर्थ नहीं। स्थूल आंखें तो
वस्तु को तब देखेंगी जब वस्तु स्थूल रूप मे सामने आएगी, लेकिन
मन सूक्ष्म होने के कारण उस वस्तु की उपस्थिति जान लेता है तथा बुद्धि को संकेत दे
देता है । बुद्धि में उस वस्तु की उपस्थिति तत्संबंधी विचार के रूप मे प्रकट हो
जाती है ।
अत: मन, बुद्धि
या अहं भी तभी तक सार्थक हैं जब तक परम सूक्ष्म तत्व “जीव” उनके साथ है । मृत देह
मे मन, बुद्धि अहं नहीं देखे जाते क्योंकि आत्म तत्व उसमे नही
है । अब वह देह मात्र पांच भूतों का ढेर है । धीरे धीरे इसके सभी भूत या तत्व अपने अपने स्वरूपों में
विलीन हो जाएंगे ।
गीता मे भगवान कृष्ण के विराट रूप से अल्बर्ट आइंस्टाइन का वह सिद्धांत भली प्रकार
सिद्ध हो जाता है जिसमे उन्होने कहा था कि घटनाएं (Events)सुनिश्चित
हैं । घटनाएं पूर्वनिर्धारित (Already decided) हैं।हमें उनसे
होकर मात्र गुजरना होता है। जैसे कि दिल्ली से ट्रेन से देहरादून जा रहे हैं तो
गाज़ियाबाद, मेरठ, मुजफ्फर
नगर, सहारनपुर,
रुड़की, हरिद्वार
रास्ते मे मिलेंगे ही और हमे उनसे होकर गुजरना होगा ।
तो मन दस
इंद्रियों द्वारा किये गए कार्यों से प्रभावित होता है- यह निश्चित हो गया
। मन पर उन कर्मों का जो प्रभाव पड़ता है वही प्रभाव सूक्ष्म शरीर मे भी मन के साथ
मौजूद रहता है। यही प्रभाव तय करता है कि यदि वह सूक्ष्म शरीर पुन: स्थूल शरीर धारण
करना चाहे तो उसे किस योनि मे प्रवेश मिलेगा? आशय
यह है कि सूक्ष्म शरीर मे जीव को रोके रखने मे सबसे बड़ी भूमिका कर्मों के प्रभाव
की है। अर्थात कर्म बंधन ही जीव को सूक्ष्म शरीर से बांधे रखता है। यही बंधन जीव
को मन, बुद्धि व अहम से अलग नही होने देता है ।
अगर कर्मों का यह बंधन शिथिल हो जाय या नष्ट
हो जाय तो क्या होगा ? जैसे पिंजरे का दरवाज़ा खोलने पर पिंजरे मे
कैद पक्षी उड़ जाता है, ठीक उसी तरह कर्मों का बंधन टूटने पर आत्म
तत्व मन बुद्धि व अहं से मुक्त जाता है । इस अवस्था को कारण शरीर कहते हैं । आत्म
तत्व से मन के अलग होते ही गत जन्मों में किये गए कर्मों का प्रभाव भी आत्म तत्व
से पृथक हो जाता है । इस अवस्था के बाद आत्म तत्व अर्थात जीव अपने विराट स्वरूप -
परमात्मा मे विलीन हो जाता है। इसी स्थिति को मोक्ष कहा गया है ।
इस प्रकार हमने देखा कि जीवित देह के एक ही
काल मे दो स्वरूप हैं। एक स्थूल शरीर के रूप मे तो दूसरा सूक्ष्म शरीर के रूप में
। स्थूल स्वरूप पर तो भौतिकी के सभी नियम लागू हो जाते हैं किंतु सूक्ष्म शरीर पर
ये नियम लागू नहीं होते । इस तर्क से सिद्ध होता है कि सूक्ष्म शरीर प्रकाश की गति
से लाखों गुना तेज चल सकता है ।
सही शब्दों मे कहें तो
सूक्ष्म शरीर का विस्तार पंच भौतिक प्रकृति के कण कण तक होता है। अत: देश और काल (Space and Time) का
कोई अर्थ सूक्ष्म जगत मे नही रह जाता । स्थूल जगत मे जिसे हम वर्तमान भूत भविष्य
के रूप मे जानते हैं – वही काल (समय) सूक्ष्म जगत मे तीन रूपों मे नही, बल्कि
एक ही रूप मे रहता है। जीव स्वेच्छा से अपने वर्तमान से भविष्य में या भूत मे
विचरण कर सकता है। जिन्हे हम स्थूल जगत मे जन्म जन्मांतर कहते हैं वे सभी जन्म
जन्मांतर सूक्ष्म जगत मे मात्र घटनाएं रह जाती हैं जिन्हें सूक्ष्म शरीर
एक ही काल मे अलग अलग घटनाओं की तरह अनुभव करता है ।
स्थूल जगत मे प्रकाश की गति ही काल नापने का
पैमाना है। प्रकाश की गति से कम गति वाले आकाश –काल के त्रिविमीय ब्रह्मांड (Three dimensional space) में ही स्थूल
जगत सिमटा हुआ है। सारे भौतिक नियम इसी भाग में लागू होते हैं । लेकिन इस गति के
आगे जो ब्रह्मांड का भाग है वह भौतिक विश्व से परे है। उसे पराभौतिक जगत(metaphysical world) कहा जा सकता है । वहां भौतिकी के नियम लागू
नही होते ।
इस दृष्टि
से देखें तो सूक्ष्म शरीर क्षणमात्र मे ब्रह्मांड
के किसी भी ग्रह, किसी भी उपग्रह तक पहुंच सकता है। यह
ब्रह्मांड के उन ग्रहों पर भी जा सकता है जिनमें पृथ्वी की तरह जीवन मौजूद है। ये
ग्रह पृथ्वी से तीस चालीस प्रकाश वर्ष से लेकर हजारों लाखों प्रकाश वर्ष तक दूर तो
हैं ही। अगर हम स्थूल शरीर द्वारा उन ग्रहों पर जाना चाहें तो प्रकाश की गति से चल
कर भी वहां तक पहुंचने मे हमें हजारों लाखों वर्ष लग जाएंगे।
तो जीव की लोक लोकांतरों की यह यात्रा तीन प्रकार
से संभव है। पहली यह कि प्रकाश की गति के निकटतम गति से चलने वाला अंतरिक्ष यान बनाया
जाए. आज के वैज्ञानिक इसी प्रकार से जाने का प्रयास कर रहे हैं । दूसरे जब यह
पंचभौतिक देह जीर्ण होकर स्वयं छूट जाती है तथा तीसरे जब ज्ञान, तप
, योग,
औषधि आदि विधियों से सिद्ध गुरु की कृपा से सूक्ष्म
शरीर को स्थूल से बाहर निकालने की विधि मालूम हो जाए।
यह संपूर्ण ब्रह्मांड पांच तत्वों का ही
सम्मिश्रण है, चाहे
ब्रह्मांड की कोई भी आकाशगंगा हो,
कोई भी सौर परिवार हो या
फिर कोई भी ग्रह या उपग्रह । जीवन के स्वरूप अलग हो सकते हैं किंतु चेतन तत्व का
व्यवहार तो सारी सृष्टि में एक जैसा ही होगा । सूक्ष्मजगत के क्रियाकलाप तो सभी
लोकों मे एक जैसे ही होंगे। मेरा मानना तो यह है कि चेतन, अवचेतन
अर्धचेतन –जैसी अवस्थाएं केवल स्थूल शरीर तक ही सीमित हैं। सूक्ष्म शरीर मे चेतना सभी
योनियों मे एक समान ही होती है । एक मूल स्तर है जहां पहुंच कर हम पाते हैं कि
योनि चाहे कोई भी हो चेतना सभी प्राणियों मे एक समान ही होनी चाहिए। क्या हम दावे
के साथ कह सकते हैं कि एक कोशीय अमीबा की चेतना और हमारी चेतना अलग अलग हैं? मैं
मानता हूं कि हम यह भी नहीं कह सकते कि अमीबा और हमारी चेतना का स्तर एक समान है।
तो फिर चेतनाओं के जो विभिन्न स्तर हमे विभिन्न प्राणियों मे दिखाई पड़ते हैं वे
उनकी स्थूल देहों की सीमाओं के कारण होने चाहिएं, तथा
केवल तभी तक प्रभावी रहने चाहिएं जब तक
स्थूल योनि मे वह प्राणी है। कुत्ता
तभी तक कुत्ता है जब तक कि वह कुत्ते के शरीर मे है। उसकी चेतना भी यदि पूर्ण
विकसित नही है तो उसी देह की सीमाओं के
कारण। जैसे ही वह देह छूटी,
उसकी चेतना भी देह की
सीमाओं से मुक्त हो जाती है । देह की सीमाओं से यहां तात्पर्य यह है कि मानव योनि
की अपेक्षा कुत्ते की योनि मे मष्तिष्क का विकास कितना है। मानव की भांति उसकी
बोलने की अभिव्यक्ति की प्रणाली अलग है। ऐसे
ही सुनने, सूंघने,
चखने की इंद्रियां भी शरीरगत सीमाओं के कारण मनुष्य की अपेक्षा कम या अधिक हो सकती
हैं । किंतु जैसे ही देह अलग होती है चेतना के गवाक्ष अन्य सभी प्राणियों की भांति
एक समान खुल जाते हैं।
देखने मे तो यह भी आया है कि शारीरिक सीमाओं
के बावजूद कई मानवेतर प्राणी पूर्ण विकसित मानव की भांति व्यवहार करते हैं। वे
आपकी भावनाओं को बखूबी समझते हैं । आप उस प्राणी के प्रति क्या भाव रखते हैं- वह
प्राणी समझता है। इस संदर्भ में
भागवत्पुराण मे वर्णित श्रीकृष्ण के बचपन की घटनाएं प्रमाण हैं। श्रीकृष्ण जब गाय चराते हुए वन में
वंशी बजाते थे तो मनुष्य ही नहीं,
गायें, अन्य
वन्य पशु, पक्षी आदि भी उनके पास आकर इकट्ठे हो जाते
थे । यह केवल वंशी की धुन का चमत्कार नहीं था, बल्कि
श्रीकृष्ण का प्राणिमात्र के प्रति करुणा प्रेम
व सहानुभूति की भावना का परिणाम भी था।
देह विभिन्न थें,
शारीरिक सीमाएं भी भिन्न
थीं किंतु सभी योनियों की चेतना उसी देह मे रहते हुए भी पूर्ण विकसित होकर एक स्तर
पर आ जाती थी ।
किसी भी वस्तु मे चेतन तत्व ही तय करता है
कि वह जड़ है या नहीं । चेतन तत्व में जीवन होना चाहिए, वृद्धि
होनी चाहिए, गति होनी चाहिए, आस
पास के वातावरण के प्रति सजगता होनी चाहिए । जबकि जड़ वस्तुओं मे व्यवहार इसके
विपरीत होगा । अर्थात एक पत्थर हजारों
वर्षों से एक ही जगह पर निश्चल पड़ा है। उस पर धूप गर्मी बरसात शीत किसी का भी कोई
प्रभाव नहीं । उसका आकार,
उसका वजन कुछ भी नहीं बदलता । यह माना कि उस पत्थर के कण
कण मे भी चेतना है । किंतु उन अरबों खरबों चेतनाओं का पुंज वह पत्थर स्वयं एक इकाई
के रूप मे चैतन्य नहीं है। इसका मतलब कि जड़ मे भी चेतना है लेकिन स्थूल रूप मे नही, बल्कि
सूक्ष्म रूप में , समष्टि रूप मे नहीं किंतु व्यष्टि रूप में ।
इसका मतलब यह भी है कि चेतना के इस
ब्रह्मांड मे दो स्तर हैं- एक प्राथमिक (Primary level) स्तर
तथा दूसरा द्वितीयक स्तर
(Secondary level).
प्राथमिक स्तर पूरी सृष्टि
के जड़ और चेतन मे व्याप्त है,
जबकि द्वितीयक स्तर चेतन
प्राणियों में देखा जाता है। हो सकता है कि चेतना के इससे भी विकसित स्वरूप इस
ब्रह्मांड में मौजूद हों,
किंतु उनसे अभी हमारा(यानी
चेतन प्राणियों, विशेषकर मानव का) संपर्क नही हो पाया हो। जैसे किसी केंचुए के लिए यह दुनिया द्विविमीय (two dimensional) है जबकि एक पक्षी के लिए यह दुनिया त्रिविमीय (three dimensional) है। और मानव के लिए तो यह दुनिया आज की
तारीख मे चतुर्विमीय (
four dimensional) है। मानव से भी
विकसित प्राणियों के लिए यही ब्रह्मांड पांच, छह
या अधिक विमाओं वाला भी हो सकता है।
तीन विमाओं वाले विश्व भौतिकी के नियमों के
आधीन काम करते हैं। चार विमाओं वाले विश्व मे वर्तमान, भूत, भविष्य
जैसी स्थितियां नहीं रहतीं। चतुर्विमीय ब्रह्मांड में भूत, भविष्य
तथा वर्तमान काल के समान नहीं बल्कि घटनाओं के समान व्यवहार करते हैं ।
किंतु त्रिविमीय विश्व से चतुर्विमीय विश्व
तक इस भौतिक शरीर से कैसे पहुंचा जा सकता है ? प्रसिद्ध
भौतिक विज्ञानी अल्बर्ट आइंस्टाइन के समीकरण के अनुसार –किसी भौतिक वस्तु का वेग
प्रकाश के वेग के बराबर या उससे अधिक नहीं हो सकता । क्योंकि तब उस वस्तु का द्रव्यमान
अनंत हो जाएगा.
M=mo/ 1-v2 /c2
लेकिन काल से ही भूत भविष्य व वर्तमान का
विभाजन किया गया है । काल से तात्पर्य उस चतुर्विमीय ब्रह्मांड से है जिसका एक
अक्ष काल तथा दूसरा अक्ष दूरी है । काल अक्ष से ही यह तय होना है कि क्या वर्तमान
से बाहर जा पाना संभव है?
जिस चतुर्विमीय ब्रह्मांड
में हम रहते हैं उसकी अधिकतम सीमा प्रकाश की गति है । यह त्रिविमीय भौतिक ब्रह्मांड
प्रकाश की गति के भीतर ही निहित है । प्रकाश की गति के रूप में “काल अक्ष” ही इसकी एक सीमा है । इस सीमा के बाहर वाले
ब्रह्मांड के नियम इस त्रिविमीय ब्रह्मांड के नियमों से बिल्कुल अलग होने चाहिएं।
इन दोनो ब्रह्मांडों को भौतिक व पराभौतिक ब्रह्मांड कहा जा सकता है ।
वास्तव मे यह कहना भी गलत है कि ब्रह्मांड
दो हैं। ब्रमांड वस्तुत: एक ही है। अंतर सिर्फ इतना है कि हम इसके एक सीमित भाग को
ही अनुभव कर सकते हैं। हमारे सभी नियम इसके एक छोटे से भाग पर ही लागू होते हैं।
ब्रह्मांड के इस सीमित भाग के बाहर जो
असीम, अव्यक्त भाग है उससे हमारा संपर्क नहीं हो सकता क्योंकि
प्रकाश की गति से तीव्र कोई भौतिक गति हमारे पास नहीं है। फिर उस विश्व मे प्रवेश
कैसे हो सकता है ?
पुराणों मे एक कथा आती है कि काशी के नरेश
त्रिशंकु जीते जी इसी पंच भौतिक देह में स्वर्ग जाना चाहते थे। उन्होने उस समय के
प्रख्यात ब्रह्मर्षि वशिष्ठ से प्रार्थना की कि मुझे सदेह स्वर्ग भेज दीजिए ।
वशिष्ठ जी ने यह कार्य करने मे असमर्थता जताई । फिर उन्होने राजर्षि विश्वामित्र
से प्रार्थना की । राजर्षि ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली । अपने योग बल से वह
त्रिशंकु को स्वर्ग भेजने लगे । इंद्र ने सोचा कि ऐसा हुआ तो सारी व्यवस्था ही गड़बड़ा
जाएगी । अत: उन्होने अपने योगबल से
त्रिशंकु को ऊपर आने से रोका। इधर नीचे से ऊपर जाने के लिए विश्वामित्र की शक्ति
उधर ऊपर से नीचे जाने के लिए देवराज इंद्र की शक्ति। परिणाम यह हुआ कि त्रिशंकु न
नीचे आ सके और न ऊपर ही जा सके। वह स्वर्ग और पृथ्वी के बीच मे ही लटके रह गए ।
इस पौराणिक कथा से इतना तो स्पष्ट है कि कोई
भौतिक वस्तु त्रिविमीय विश्व से चतुर्विमीय विश्व मे प्रवेश नही कर सकती । यही बात
तो आइंस्टाइन ने भी अपने सापेक्षता के सिद्धांत मे सिद्ध की है। त्रिविमीय विश्व
मे दोनो अक्ष केवल दूरी (Displacement)
पर आधारित हैं, जबकि
चतुर्विमीय विश्व मे एक अक्ष दूरी तथा दूसरा अक्ष काल(Time) पर आधारित है । c=l/t
L=ct. यदि त्रिविमीय विश्व से चतुर्विमीय विश्व मे प्रवेश करना
है तो काल अक्ष (Time axix) को तोड़ना होगा। अर्थात यदि कोई वस्तु प्रकाश
की गति से तेज गति से चल सके तो वह त्रिविमीय विश्व से बाहर जा सकती है।
लेकिन आइंस्टाइन ने सैद्धांतिक रूप से सिद्ध
किया था कि कोई भौतिक वस्तु प्रकाश के वेग से अधिक वेग से नही चल सकती । इसका सीधा
सा मतलब यही निकलता है कि कोई भौतिक (विशेषकर जड़) वस्तु त्रिविमीय विश्व से
चतुर्विमीय विश्व मे प्रवेश नही कर सकती ।
तो फिर इस ब्रह्मांड के विभिन्न क्षेत्रों
मे यह जीव कैसे भ्रमण करता है ?
जैसा कि हम पहले देख चुके हैं- मानव शरीर के
दो भाग हैं – पहला जड़ स्वरूप पंच भौतिक शरीर तथा दूसरा चेतन स्वरूप सूक्ष्म शरीर ।
इस सूक्ष्म शरीर के निर्माण मे पंच भूतों का प्रयोग नहीं है। क्योंकि हम पहले ही
देख चुके हैं कि मन, बुद्धि अहम तथा जीव पांचों भूतों से सूक्ष्म
हैं। मन, बुद्धि अहम तथा जीव के समग्र रूप को ही हम सूक्ष्म शरीर
कहते हैं।
अब समझ मे आ रहा है कि भारतीय षड दर्शन मे एक
शाखा योग क्यों है. योग ही वह जैव भौतिकीय प्रौद्योगिकी है जिसकी सहायता से चेतना को
व्यष्टिगत स्थूल शरीर से निकाल कर सूक्ष्म
शरीर के रूप मे समष्टिगत ब्रह्मांड मे भेजा जा सकता है. अर्थात योग व्यष्टि और समष्टि के बीच का पुल है.
पतंजलि प्रणीत पातंजल योग दर्शन मे विस्तार से यही बताया
गया है कि कैसे कोई साधक योग विज्ञान की सहायता से इस भौतिक देह से सूक्ष्म शरीर को
अलग करके ब्रह्मांड मे विचरण कर सकता है. जैसे कि चौरासी सिद्ध काल दंड का खंडन करके
आज भी ब्रह्मांड मे विचरण कर रहे हैं—खंडयित्वा काल दंडं, ब्रह्मांडे विरचंति ते.....
महर्षि पतंजलि का उद्देश्य
केवल स्थूल से निकल कर सूक्ष्म मे प्रवेश करते हुए इस अनंत ब्रह्मांड की असीमता का
साक्षात्कार करना मात्र नहीं था. वह तो चाहते थे कि प्राणी अपने सूक्ष्म शरीर को इस
अनंत विराट सत्ता मे एकाकार ले. अर्थात सूक्ष्म शरीर से भी मन बुद्धि अहम को त्याग
कर मन जीवात्मा से मिल जाए और यह जीवात्मा अंतत: विश्वात्मा मे लीन हो जाय.
इसके लिए योग दर्शन
मे तीन चरण हैं- समाधि पाद , विभूति
पाद और कैवल्य (मोक्ष). आसन प्राणायाम आदि अष्टांग की सहायता से मन को इंद्रिय सम्पर्क
से अलग कर अंतर्मुखी बनाया जाए. कुछ काल के अभ्यास से मन की चंचलता खत्म हो कर स्थिरता
आने लगती है. मन की गति बहिर्मुखी न रह कर अंतर्मुखी हो जाती है. जब मन इंद्रियों के
सहवास से स्वयं को अलग कर लेता है तब वह अपनी अथाह शक्ति को पहचान लेता है. असंभव क्रियाएं
संभव होने लगती हैं. संकल्प शति देह पर हावी हो जाती है. साधक संकल्प मात्र से अपने
शरीर को भारी,
हलका, छोटा बड़ा बना सकता है.
इसी अवस्था का नाम है
विभूतिपाद. ग्रंथों मे वर्णित अष्ट सिद्धियां तथा नौ निधियां उसे इच्छा मात्र से मिल
जाती हैं. अब सूक्ष्म शरीर स्थूल देह से पृथक होने के लिए तथा ब्रह्मांड मे विचरण करने
मे सक्षम हो जाता है........(क्रमश)
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