कश्मीर की खूबसूरती देख कर एक
मुगल बादशाह ने कहा था –
अगर धरती पर कहीं स्वर्ग है तो यहीं है, यहीं है, यहीं है ।
काश ! उस बादशाह को मुंबई
की लोकल में बैठने का मौका मिला होता तो
वह कहता – अगर दुनिया में कहीं स्वर्ग है तो वह मुंबई की
लोकल में है । मुंबई की लोकल में है ।
मुंबई की लोकल में है ।
हो सकता है शुरु –
शुरु में लोकल में आपकों स्वर्गीय अनुभूति न भी हो । कई बार आंवले का स्वाद व
बड़ों की बात का असर बाद में पता चलता है । मुंबई की लोकल में चलने का दिव्य सुख
भी कइयों को बाद में महसूस होता है । इसलिए थोड़ा धीरज भी रखना पड़ सकता है ।
अब यही क्या छोटी बात है कि आप
ट्रेन में चढ़ते नहीं, चढ़ा दिये जाते हैं । उतरते नहीं उतार दिये जाते हैं ।
एक बार भीड़ द्वारा डब्बे के भीतर
ठूंस दिये जाने के बाद आप बेफिक्र हो जाते हैं । क्यों न हों आखिर ? अब
लोकल से उतरने तक आपकी क्या गत बनेगी – उसे आपसे ज्यादा
कौन समझ सकता है ? ज्रैसे गुड़ का स्वाद गूंगे से बताया नहीं
जाता, सिर्फ अनुभव किया जाता है । वैसे ही आपके चढ़हने से उतरने तक के बीच का हाल
सिर्फ आप ही जानते हैं । वैसे आपकी स्थिति काफी कुछ उस गन्ने जैसी होती है जिसको
रस निकालने की मशीन के तंग बेलनों के बीच बलपूर्वक धकेला गया है ।
आपको पसीना बहाने के लिए न तो
जॉगर्स पार्क जाना है, न जिस जाना है और न सोना बाथ लेना है । इन स्थानों में
जाने का फल आपको लोकल के भीतर घुसते ही मिलना शुरु हो जाता है । आपसे सटे जिस्मों
से जब पसीने के पतनाले बह रहे हों तो आपकी देह भी ज्यादा देर रुक नहीं पाती ।
उसमें भी जगह – जगह से पसीने के सोते फूटने लगते हैं । संगता का असर होना भी चाहिए ।
अब पसीना निकला है तो उसकी गंध भी
निकलेगी । अपना पसीन लाख बदबूदार क्यों न हो, बुरा नहीं लगता । आखिर है तो अपने
ही जिस्म का हिस्सा । मगर पड़ोसी जिस्मों से उठी पसीने की दुर्गंध चुप नहीं
बैठती, नथुनों से होती हुई दिमाग पर चढ़ कर चीखने लगती है ।
देखा गया है कि हर जिस्म के पसीने
की गंध अलग होती है । जो बदन नहाए होते हैं – उनसे निकले पसीने की ‘बू’ ‘सो-सो’ होती है । तीन चार स्टाप तक उसे आप झेल जाते
हैं। मगर जो शरीर नहाने धोने में यकीन नहीं रखते – उनके तन
बदन से उठे भभके आपकी बरदाश्त करने की अग्नि – परीक्षा ले
लेते हैं । उस अलौकिक दुर्गध का नासिकापान करने के बाद भी जो प्राणी धैर्य नहीं
खोता – वह योगी नहीं तो और क्या है ? उसका वजन कितना है ? उसे बीमारी कौन सी है या फिर वह
किस पेशे से ताल्लुक रखता है ?
यात्रा के दौरान पसीने के अलावा आप
अपने बिल्कुल करीब गर्म – गर्म सांसे भी महसूस करते हैं । पसीने की गंधों की तो फिर भी एक लिमिट
होती है । आप को आइडिया होता है की पसीने की दुर्गंध किस हद तक टुच्ची हो सकती
हे । जबकि मुंह से छोड़ी जा रही उसांसों की गंध – सीमा तय
करना अभी संभव नहीं हो सका है । बस इतना समझ लीजिए कि जितने मुंह उतनी गंधें
। और मुंह कितने हैं आस पास – इसका सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है । देखना मुमकिन नहीं । क्योंकि
उसके लिए आपको मुंह घुमाना पड़ेगा । मुंह घुमाने लायक आसमान आपको मयस्सर नहीं । आप
तो फीज़ हैं । हिल – डुल तक नहीं सकते । आने वाले हर स्टॉप
पर मुखों की संख्या बढ़ती ही जानी है । चित्र – विचित्र गंध
वाली सांसों की गिनती भी बढ़ेगी । और गरदन घुमाकर यहां – वहां
देख लेने की आपकी हसरत मन की मन में रह जायेगी । क्योंकि गरदन हिलाना हो जायेगा
तब पहले से भी मुश्किल ।
गर्म सांसे छोड़ रहे जिस्मों के
भीतरी इलाके में क्या उथल –
पुथल चल रही है – आप अच्छी तरह पढ़ लेते हैं । किन फेफड़ों
में टी बी किस स्टेज में है, कौन से फेफड़े दमे से ग्रस्त हैं ? किन गलफड़ों में तमाखू या खैनी दबी
है । किन कल्लों में पान ठूंसे गये हैं । - ऐसी
कई जानकारियां आपको बगैर देख मिल जाती हैं ।
उन गर्म सांसों के साथ किस –
किस बीमारी के कीट आपके फेफड़ों की बेटिकट यात्रा कर चुके हैं – उस वक्त आपकों पता ही नहीं चलता । बाद में जब आपको हल्की खांसी होती
है, रोज शाम को हल्का बुखार आने लगता है, थकावट महसूस होती है, खांसी में खून
गिरने लगता है, तब कहीं जाकर आप जान पाते हैं कि आपके फेफड़ों में भी उन बेटिकट
मुसाफिरों ने झोंपड़े बना लिये हैं । उन्हें बेदखल करना अब असंभव नहीं तो मुश्किल
जरुर हो गया है ।
लोकल के भीतर ठेले जाने के बाद आपको
कई काम एक वक्त में निपटाने पड़ते हैं । जैसे छत से लटके कुंडे कस कर पकड़े रहना ,
बशर्तें गलती से खाली मिल जाए । दूसरे कंधे पर लटके बैग को महसूस करते रहना ।
तीसरे जेबों में पड़े बटुए, क्रेडिट कार्ड, नोट, मोबाइल वगैरह टटोलते रहना । कलाई
पर बंधी घड़ी से से भी टच में रहना कि वह बंधी है या उतर कर किसी और कलाई पर तो
नहीं जा बंधी । कांख में दबे अखबार को भी आपको पल – पल महसूस करना होता
है कि वह कांख में है या नहीं । कहीं ऐसा तो नहीं कि अखबार सरक कर बगल वाले सज्जन
की कांख में दबा हो और आप खामखाह अपनी बगलें दबाये बैठे हों ।
इतनी सारी जगहों पर एक ही काल –
खंड में चेतना को टिकाये रखना बच्चों का खेल नहीं है । ये तो योग की साक्षात
सिद्धि है । वरना ये मन । कई जगह रहा दूर से एक जगह भी पल भर टिकता । टिक जाय तो
समझिये कोई अनहोनी घट गई । लोकल के सफर का
सबसे बड़ा लाभ यही है कि आप चित्त की वृत्तियों का विरोध करना सीख जाते हैं । यही योग है । ये हमने नहीं पतंजलि ने कहा है – योगाश्चित्तवृत्ति निरोध: ।
मगर देखने में आता है कि फिर भी
आपका कभी बटुआ साफ होता है, कभी घड़ी तो कभी चेन खिंच जाती है । घबराइये नहीं ।
कारण सिर्फ इतना है कि चोरी करने के वक्त चोर आपसे ज्यादा एकाग्र था । योग तो भई
सीधे सीधे कंसंट्रेशन का खेल है । भविष्य में आपकी गिरह न कटे, इसका तरीका एक ही
है – चोर से ज्यादा चैतन्य रहना । और यही आभास आप लोकन – यात्रा में बढ़ाते रह सकते हैं । और हां । चीजों के खोने का गम जरा भी न
करें । चीजें तो आनी-जानी हैं । आती – जाती रहेंगी ।
कुछ यात्रियों ने नीरस योग से बचने
का तरीका भी ढूंढ निकाला है । ये लोग दिमाग को पार्टीशन कर लेते हैं । एक हिस्से
से ये अपनी चेतना को बटुए, चेन, बैग, घड़ी आदि से जोड़े रहते हैं । तो दूसरे हिस्से
से भविष्य की योजनाएं बनाते रहते हैं । जैसे कि अगर टू बीएचके का फ्लैट अंधेरी
में बुक करुं तो हर महीने कितनी किश्त जायेगी । या फिर अगर बच्चे को मैनेजमेंट
कोटे से एडमिशन मिला तो चार – पांच लाख की रकम कहां कहां से इकठ्ठी की
जा सकती है ? या फिर अगर दफ्तर में आप कमाई वाली कुरसी पर
हैं तो मन ही सोच सकते हैं कि किस फाइल में क्या नोटिंग देने से नोट आने लगेंगे ।
अपने विभाग की दाद आप खुद ही देते हैं कि वाह ! क्या आइडिया
आया ?
अभी कई आइडिये जाने की राह पर होते
हैं, कि आपकी छठी इन्द्री बताने लगती है कि आपका स्टॉप आने वाला है । ये काम
वैसे आपकी कर्मेंन्द्रिय यानी आंखों को करना था, मगर अफसोस । आंखें देखें कहां और
देखें क्या । आप तो बेहिसाब जिस्मों के बीच दबे हैं । जहां न आंखों की पहुंच हैं
तो, न रोशनी की । सारा लोड छठी इन्द्री पर पड़ता है ।
जब आप लोकल में नये –
लये आते हैं तो उतरने के एक – दो स्टॉप पहले से ही विकास की
तरफ सरकने लगते हैं । इंच – इंच कर लक्ष्य की तरफ इड़ते हैं
। फिर भी ---------वाले की फब्तियां सुननी पड़ती हैं ।
पुराने होने के बाद आप को अपनी
बेवकूफी का अहसास हो जाता है । जिस्मों को दायें – बायें ठेलकर बाहर
निकलना भी कोई उतरना हुआ ? ये प्रोफेशनल का तरीका नहीं है ।
ये नौसिखिये तरीका है। जरा याद कीजिए -
चढ़ते व्रकत कौन सा प्रयास किया था आपने ? बस इतना किया था कि चढ़ने वाले सैलाब के आगे आ
खड़े हुए थे । उसके बाद काम काम था भीड़ का, जो आपकों फुटबाल की तरह किक मार कर भीतर
ले आयी थी ।
ठीक वही तकनीक पेशेवर लोकल यात्री
उतरते वक्त भी इस्तेमाल करता है, और बगैर ताकत खर्च किये बाहर प्लेटफार्म पर आ
गिरता है । कभी – कभी जब लोकल में बम फटते हैं तो भीड़ गायब हो जाती है ।
उन कष्टकारी दिनों में आपको खुद ही
चढ़ना पड़ता है । भीतर आकर मन जार – जार रोने को होता है । न वह पसीनों की
तीखी बदबू, न गर्म – गर्म दुर्गंध युक्त सांसें । न अपनी
किसी आइटम का ध्यान करने की जरुरत, और न उकड़ू बैठने का मौका । किसी सीट से आवाज
आती है भाई साहब इस वाली सीट पर बैठिये । यहां अच्छी हवा आ रही है । अब आप मकान
की किश्तों या बच्चे के दाखिले पर कैसे सोचें ? आपको तो अंधेरे में सोचने की आदत है । कुंडे
पकड़े, हवा में लटकते हुए सोचने की प्रैक्टिस है । फिर उतरते वक्त भी खुद चल कर बाहर आना ? आह ! कहां गये वे मजबूत धक्के, जो ऐसे वक्त पर
गोली के वेग से आपको प्लेटफार्म पर ला पटकते थे ।
लुटे –
पिटे से जब आप घर पहुंचते हैं, चिड़चिड़े होकर बच्चों पर बरसते हैं तो पत्नी पूछती
है – क्या हुआ ? तबीयत तो ठीक है न ?
आपका थका –
हुआ जवाब होता है – आज लोकल खाली थी ।
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