होता दर असल ये था कि जब भी हम कहावतों के बारे में सोचते तो वही दो चार घिसी
पिटी कहावतें जेहन में उभरा करतीं - जैसे कि धोबी का
कुत्ता घर का न घाट का, दिल्ली दूर
है, आंख के अंधे, नाम नयनसुख, नौ दो ग्यारह होना या फिर न नौ
मन तेल होगा न राधा नाचेगी वगैरा वगैरा.
इन मुहावरों का तड़का जब भी हम किसी
रचना में लगाते तो नतीजा होता ढाक के वही तीन पात. जिस ज़ायके की हम उम्मीद किया करते, वह न आ पाता. लगता था
कि जैसे कहावतें लुट-पिट चुकी हैं, उनमें जो धार, जो तासीर हुआ करती थी, वह रफूचक्कर
हो चुकी है. हमें यह भी लगता कि जैसे वह घड़ी आ पहुंची है- अब जीर्ण-शीर्ण कहावतें त्याग कर नई कहावतें
धारण की जानी चाहिएं .
मगर नई कहावतें आएं कहां से ? वे कोई
खालाजान के घर में तो रखी न थीं कि गए और उठा लाए. दिमाग के मरियल गधे-घोड़े चारों तरफ दौड़ाए. आखिर
ध्यान आया अपने बचपन के दोस्त वेदपाठी का. कहने को आप एक
सरकारी स्कूल में पढ़ाने की नौकरी बजाते थे, मगर पढ़ने-पढ़ाने में आपकी
दिलचस्पी कभी रही हो- ऐसा हमें याद नहीं आता. यह नौकरी रूपी जी का जंजाल तो
आपको इसलिए पालना पड़ा, ताकि पहली तारीख को पगार नामक जो एकमुश्त रकम आसानी
से मिल जाती है, वह मिलती रहे. वरना जहां तक सवाल है आत्मा का, वह तो आपकी केवल गोबर में रची बसी थी. स्कूल में हाजिरी
लगाने के फौरन बाद कक्षाओं में जाने की जगह आप सीधे घर की राह पकड़ते. घर आते ही
आपकी बांछें खिल जातीं. बड़े प्यार से भैंसों के पीठ-प्रदेश पर हाथ फिराते, उनकी कुशल-क्षेम पूछते, मानो
मुद्दतों बाद मिले हों. फिर शुरू हो जाती रोज की दिनचर्या. उन्हें दुहना, खिलाना-पिलाना,
नहलाना,घास काटना, गोबर उठाना आदि आदि. रात गए तक यह कर्म-योग चलता रहता. कब दोपहर
हुई, कब शाम ढली, कब रात हुई- आपको भनक तक न लगती.
इस
कर्म-योग से आपको कभी फुर्सत मिली हो, ऐसा
कोई किस्सा भी हमारी याददाश्त में नहीं
आया. आता भी कब और कैसे ? घर में आपके डेयरी जो खुली थी. मुर्रा आदि नाना नस्लों
की भैंसें, हरियाणवी, साहीवाल, जर्सी, फ्रीजन, देसी आदि कई प्रजातियों की गाय
माताएं, अनेक साइजों की बछड़ियां तथा काले-भूरे झोटे-झोटियां आपकी गोशाला के नवरत्न थे. बताते हैं धन्वंतरि
वैद्य जड़ी- बूटियों से बातें करते थे. आप भी गाय-भैंसों को सामने पाकर रंभाने लगते
थे.
प्रेम की ऐसी तुरीयावस्था में आपसे किसी
और काम की उम्मीद करना मानवाधिकारों की खुलेआम हत्या करने जैसा ही था. फिर भी एक काम ऐसा था, जिसके लिये आप कुछ लमहे
चुरा ही लेते थे. गोसेवा के अलावा नई कहावतों को जन्म देना भी आपके जीवन की साध
थी. थोड़े ही समय में हजारों नई कहावतें रच कर आपने लिम्का बुक में अपने नाम की जगह
बुक करवा ली थी.
हमें तो फ्रेश कहावतों की ज़रूरत थी ही. सोचा -वेदपाठी
जी के कहावत भंडार से कुछ नायाब मोती चुग लिए जाएं. इसी बहाने जरा देख भी लें कि कौन कौन से गुल खिलाएं
हैं उन्होने कहावतों के खेत में.
वेदपाठी
जी के भवन पर जब हम पहुंचे, अंधेरा नहीं छंटा था. नीम पर बैठा उल्लू अभी तक बोल रहा था. भवन के भीतर से
नासिका गर्जन की अनेक प्रकार की गगन भेदी आवाजें आ रही थीं. लगता था- मानों
भीतर खर्राटों की प्रतियोगिता चल रही है. एक बार तो लगा कि हम बुरी घड़ी पर घर से निकले
हैं. अत: वापस लौट जाएं. फिर पागल मन को
समझाया कि रे मूर्ख मन, खर्राटों को इतनी सीरियसली लेता ही क्यों है? बात सिर्फ
इतनी सी है कि आज छुट्टी है, इसीलिए वेदपाठी फेमिली अभी तक लंबी तान कर सो रही है.
और मन बेचारा मान भी गया.
मन के मान जाने के
बावजूद हम बड़ा बेआबरू सा फील कर रहे थे. इसीलिये लौटने का डिसीजन दोबारा ले लिया. वेदपाठी
जी के कूचे से अभी हम निकला ही चाहते थे कि गोशाला से मांसाहारी गालियों की बौछार आई. गालियों की विषय वस्तु थी- गाय-भैंसों की माताएं
व बहनें, जिनकी स्तुति बड़ी ही आलंकारिक भाषा-शैली में हो रही थी. हम जिज्ञासा रोक
न पाए. जानने की इच्छा हुई कि गोष्ठ में
बैठ कर यह शब्दशिल्पी शृंगी ऋषि की
भांति आखिर कौन सी साधना कर रहा है.
गोशाला में झांका. देखते
क्या हैं कि आप घुटनों तक लंबा जांघिया व गाढ़े की बंडी धारण किये, खूंटे से बंधे
जीवों की दीर्घ व लघु शंकाओं का तसले भर
भर कर निवारण करने मे लीन थे. कर्मयोग की इसी
ध्यानावस्था में आपके श्रीमुख से वे वैदिक सूक्त फूट रहे थे जिन्हें आम बोलचाल की भाषा में गाली कहते हैं.
- 'ये क्या मित्र, आप
भी तबेले में ! माना कि पगार से काम नहीं
चलता. तुम्हारा क्या, किसी का भी नहीं चलता. सेंसेक्स भले ही पाताल में जा रहा हो,
कीमतें तो ऊपरवालों की मेहरबानी से ऊपर ही जा रही हैं. महंगाई से लड़ने का क्या यही
तरीका बचा था? स्कूल में ऊपर की कमाई का कोई जरिया नहीं मिला. अरे और कुछ नहीं तो आठ
दस ट्यूशन ही झटक लेते. इस व्यवसाय में तो इज़्ज़त की इज़्ज़त है और पैसे का पैसा.
मेरी नॉलेज में ऐसे कितने ही टीचर हैं जो
कभी फटीचर थे, पर ट्यूशन के बूते आज लाखों छेत रहे हैं. और आप हैं कि अब तक वराह
शिशु की भांति गोबर में सने हुए हैं.
वेदपाठी जी का गाली-पाठ
रुक गया. क्रोधाग्नि पर जैसे टैंकरों पानी पड़ गया. खिसिया कर मुस्कराए और देह से गोबर
छुड़ाते हुए उवाचे - मेरी छोड़िये, अपनी बताइये. कैसे पधारे ?
हमने भी बगैर भूमिका
बांधे कहा-महाराज, इस वक्त आप जिस केसरिया बाने में सने हैं, उसे देखते हुए 'आपकी कैसे छोड़ दूं'. पर अभी तो मैं खुद मुसीबत
में हूं.
मुसीबत कैसी ? मेरे हाथ का कुछ काम है तो
बताइये. अभी बजा लाता हूं. वेदपाठी जी
पूरे जोश में बोले.
हमने कहा- महाराज, रचनाओं में थोक के
भाव कहावतें डालता हूं, पर टेस्ट नहीं आता. लगता है मसालों की तरह कहावतों का
स्वाद भी जाता रहा. सुना है, आप आजकल नई कहावतें रच रहे हैं.
मारे खुशी के वेदपाठी जी का सीना
फूल गया. बोले- आप काफी समझ दार प्राणी मालूम होते हैं. वो कहते हैं न कि काजी
की मारी हलाल होती है. ये बात बिल्कुल
सही है. अरे जो कहावत हम बनाएंगे, बस वही कहावत होगी, बाकी सब बकवास. वैसे हम कहावतों
की रचना स्वांत: सुखाय करते थे, क्यों और
कोई उन्हें समझ ही नहीं पाता, मगर आप गुनी गाहक हैं. खाली कैसे जाने दूं ? कहावतों
के सैंपल देकर ही विदा करूंगा. एक बिल्कुल मौलिक, अप्रकाशित व अप्रसारित कहावत है-
अकल के कुत्ते फेल होना. ये आपकी रचनाओं से मेल भी खाती है. आपकी रचनाओं
में यों फिट होगी जैसे खुद आपने ही बनाई
हो.
हमने
तैश में आते हुए कहा- माफ करें जनाब, आपके
इस टुच्चे विचार से गधा भी सहमत नहीं हो सकता कि मेरी रचनाओं का स्टैंडर्ड इस
कहावत के जितना घटिया है. खैर,ये तो बात बाद में आएगी. पहले
इस सिरफिरी कहावत का मतलब तो भौंकिये.
वेदपाठी जी मुस्कराए - हर चीज़ में
मतलब नहीं खंगाला करते वर्मा. कुछ चीज़ें बेमतलब भी होती हैं.
हमने उनकी बात से
इकरार करते हुए कहा- कुछ ही क्यों, मेरे
हिसाब से तो ज़्यादातर चीज़ें बेमतलब होती हैं.
पर ये कहावत तो आपने बनाई है न ! ये कैसे बेमतलब हो सकती है.
वेदपाठी जी बोले- वज़ा फरमाया आपने.
इस कहावत का ताल्लुक सीधा दिमाग़ से है. जब दिमाग़ का दही होने लगे, तो समझ
जाइये कि अकल के कुत्ते फेल हो गए.
-चलिये, एक मिनट को आपकी बात मान भी लें,
मगर जनाब इस कहावत में नया क्या है. अकल पहले भी हुआ करती थी,अकल आज भी है. कुत्ते
पहले भी थे, कुत्ते आज भी हैं. क्या यही लुटा-पिटा, थका-थकाया सैंपल धरा था हमारे
लिये ?
वेदपाठी जी बोले- ऐसा नहीं है. चलो दूसरा सैंपल देता
हूं. क्या याद रखोगे दोस्त. कहावत है- तेल तो तिलों से ही निकलेगा. इस पर भी हमने नाक –भौंह सिकोड़ कर कहा- अरे इसमे
भी क्या नया है. वही तिल तो वही तेल. वेदपाठी जी बोले- तो फिर सुनिये-उपभोक्ता
का मोबाइल व्यस्त होना.
मुस्करा कर हमने कहा-ये हुई न बात !
मोबाइल तो वाकइ पहले नहीं थे. पर जनाब, मतलब इसका भी निल बटा सन्नाटा है.
वेदपाठी जी बोले- मतलब साफ है. स्वार्थ न होने
पर इग्नोर मारना. आप लाख चाहते रहें बतियाना, मगर जनाब, हमारी इच्छा न होगी तो हर
बार व्यस्त रहेगा हमारा मोबाइल.
हमारे पास सिवाय 'हां'
में खोपड़ी हिलाने के कोई चारा नहीं बचा था. वेदपाठी जी धीरे धीरे फॉर्म में आ रहे थे. बोले-
एक और कहावत लो- गरारियां घिस जाना यानी
घुटने दुखना. इस कहावत की आखिरी स्टेज है- कटोरियां हाथ में आ जाना.
कहावत का भावार्थ पूछने
के लिए हमने मुंह खोला ही था कि तभी एक भैंस उठी और ठीक वेदपाठी जी की नाक तले निर्लज्जता
से, बगैर कोई पूर्व नोटिस दिये धारा-प्रवाह शंकाएं प्रकट करने लगी. वेदपाठी जी तो
तपे बैठे थे. मांसाहारी गालियों का स्वास्तिवाचन पुन: आरंभ हो गया. बोले- चलो बाहर
चलें. ये गधे की बच्चियां क्या जानें कि हम
किस डेप्थ पर हैं. सारे सौंदर्यबोध पर गोबरापात कर दिया साली नें.
हम बाहर आए. आंगन में नीम तले
प्लास्टिक की कुरसियां पड़ी थीं. बैठ गए. वेदपाठी जी ने गला उठा कर सुर साधा- काकलीबेटी,
जरा चाय तो लाना, अंकल आए हैं.
फिर हमारी तरफ मुड़ कर बोले- वर्मा इन
चौपायों में अपनी हालत तो हो गई है सांप छछूंदर जैसी. गरम दूध न उगले बनता है, न
निगले. कहते हैं न, अंधे से दोस्ती करो. घर भी छोड़ के आओ. जानते हो वर्मा
हमारी इस ताज़ी कहावत का मतलब ? वेदपाठी जी
ने हमारी तरफ मुस्करा कर देखा. हमने भी फौरन रिबाउंड मारा- जनाब, हम वो
दोस्त नहीं हैं.
वेदपाठी जी बोले- एक और कहावत है-रूट की सभी
लाइनें अस्त होना. मतलब कि कहीं से भी
उधारी मिलने की उम्मीद न होना.
ठीक तभी भीतर से गृहयुद्ध की कर्णभेदी ध्वनियां सुनाई पड़ीं. एक
बच्चा गरज रहा था- साले, बत्तीसी उखाड़ कर हाथ में दे दूंगा. दूसरा गुर्रा
रहा था- चुप कर बेमौसम की भविष्यवाणी. गरजता तो ऐसे है कि जाने कितना बरसेगा . मगर
कभी छींटा तक नहीं पड़ा. ज़्यादा मत
रेंकियो मेघदूत की औलाद. बता दिया. हां.
हमने पूछा- वेदपाठी जी, ये सब क्या
है ? समझाते क्यों नहीं?
क्या बताऊं वर्मा. वेदपाठी कराहे- चावलों का मांड़ बन चुका है. नहीं मानते
उल्लू के पट्ठे. कहता हूं- सुबह उठ कर मुंह -हाथ धो लो. कहते हैं - शेर मुंह
नहीं धोते. कहता हूं, किताब निकाल कर पाठ याद करो. कहते हैं- बूढ़े तोते रटा
नहीं करते. लो कल्लो बात.
तभी बादल फटने सा एक
भयानक स्त्री-नाद गूंजा- रग रग फट रही है, पोरी पोरी पिरा रही है. सोने भी
दो पिल्लो, क्यों भौंकते हो.
चाय लिये आती काकली मुड़ कर चीखी- अरे
ममी, मत समझाओ. हैं तो ये कल के
जोगी, पर पेट में जटा पूरी है. फिर भुनभुनाने लगी- गधों के पीछे जाना, अपने कब्जे
खुलवाना.
बच्चों व पत्नी के
मुखारविंद से ऐसी नायाब कहावतें सुन, हमारे सब संदेह मिट गए. दिल बाग, तो दिमाग
हिमताज हो उठा. लायक पिताओं की नालायक संतानें ही अब तक हमने देखी थीं. ये पहला
मौका था जब हमें जीनियस पिता की सुपर जीनियस औलादों का पुण्य दर्शन हो रहा था.
हमने काकली का सिर सहलाते हुए कहा- चाय रहने दे बेटी, ये तो घर में भी पी लूंगा. बस
मेरे पास बैठ कर कुछ और कहावतें सुना दे.
काकली चहकी- अरे वर्मा अंकल, जहां बांस डूब चुके, वहां
पोरियों की क्या गिनती ! मैं तो कहती
हूं- न छीले कोई सौ तोरियां, बस एक कद्दू छील ले. पता नहीं कैसे थे वो लोग,
जो मरा हाथी भी सवा लाख में भेड़ देते थे. एक हमारे पापा हैं. सारे डंगर
फिरी में लेने को तैयार हैं पर कोई दे तो. मीठा मीठा गड़प गड़प, कड़वा कड़वा थू थू.
पीने को लपर लपर, उठाने को ना नुकर. है कोई हमारे पापा जैसा सच्चा गोभक्त ? आखिरी सांस तक उन्होनें गोबर उठाने की कसम
खाई है. उनका एक ही नारा है- तुम मुझे गोदान करो, मैं तुम्हें दूध बेचूंगा. जब
तक सूरज चांद रहेगा, गइया तेरा नाम रहेगा. देश भक्त तो आपने बतेरे देखे होंगे,
पर हमारे पापा जैसा गुसाईं आपको न टकरा होगा.
काकली बगैर
अर्धविराम,पूर्णविराम, कौमा के दौड़ी जा रही थी. वेदपाठी जी का मुंह खुला था. सरपट दौड़ती
बिटिया की कैंची सी चलती जुबान को पलक झपकाए बगैर, निहारे जा रहे थे. खुशी की बिजलियां बीच बीच में उनके चेहरे पर दमक उठतीं.
उन्हें गर्व हो रहा था कि ऐसी होनहार कन्या के वह पिताश्री हैं.
तभी भीतर से भीमकाय देह धारिणी
श्रीमती दंडपाणि वेदपाठी दरियाई घोड़े सी जम्हाती, ह्वेल मछली सी अंगड़ाती, स्टील के
पाइप जैसी उंगलियां चटकाती द्वार पर प्रकट हुईं. करीब दोसौ किलोग्राम के इस
मानवाकार मांस पिंड को देख कर हम सहम गए. छठी इन्द्री रूपी अलार्म लगातार बजने
लगा. संदेश था- वर्मा बेटे, काफी मुफ्त की कहावतें डकार चुके. अब चुपचाप पतली
गली से निकल लो. इसी में तुम्हारी हड्डी-पसलियों व हाथ पैरों का भविष्य सुरक्षित है.
इस संदेश का विवेचन अभी हम कर ही रहे
थे कि वेदपाठी जी हमारे कान से मुंह सटा कर खुसफुसाए, ' ये जो छोटा हाथी द्वार पर आप
देखते हो, ये सिर्फ ट्रेलर है मेरे दोस्त. असली फिल्म तो अभी शुरू होनी बाकी है.
वेदपाठी
जी की आधी बात अभी गले में ही थी कि अचानक हमें भूकंप के ताकतवर झटके की अनुभूति
हुई. घूम कर द्वार की तरफ देखा. देखते ही
गले से चीख पैदा हुई, पर बाहर का रास्ता भूल कर गले में ही अटक गई. श्रीमती वेदपाठी
के पीछे से उनका विराट रूप झांक रहा था. डायनासॉरनुमा इस जीव के
वज़न का अनुमान लगाना बेकार था. बस इतना जानना काफी था कि श्रीमती वेदपाठी
की यह सहोदरा भी मुख्यद्वार से बाहर आने की
ताबड़- तोड़ कोशिश कर रही थी. उसकी फौलादी भुजाओं के वज्र सरीखे आघात से मुख्यद्वार रह
रह कर थरथरा उठता. उसकी भौंहें धीरे धीरे हंसिये का आकार ग्रहण करने लगी थीं. लंबे
बैंगनों जैसे मोटे होंठ भिंचने लगे थे. बिल्लौर जैसी मोटी मोटी आंखों में खून के
डोरे खिंचने लगे थे. स्त्री के चेहरे पर जिस लज्जा व कोमलता की उम्मीद पुरुष वर्ग करता है, उसका
दूर दूर तक अता-पता न था. चेहरा किसी
बोल्शेविक की तरह भावशून्य, सपाट व इस्पाती हो चुका था. लगता था जैसे खली की बहन
डब्लु डब्लु एफ के अखाड़े में उतर कर जौर दिखाने चली आ रही हो.
पहले तो श्रीमती वेदपाठी जैसा
भारी-भरकम देहवैभव, फिर उनके पीछे लहराता आ रहा गोश्त का असीम सागर ! फिर उसके बाद
! क्या उसके बाद भी ऐसी कोई आइटम और बची होगी !
उस भयानक स्थिति की
कल्पना मात्र से हमारा साहस टूट गया. इससे पहले कि मदमाते वनैले
हाथियों का वह झुंड द्वार उखाड़ता हुआ हम तक पहुंचता, हम सिर पर पैर रख कर उसी
रास्ते से भाग खड़े हुए, जहां से थोड़ी देर पहले ही हम इस दुर्घटना क्षेत्र में पहुंचे
थे.
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें