शेरू


                    
        शेरू को पहचानने में मै गलती नहीं कर सकता ।  वही झबरीले,केसरिया बाल, गठीला, भोटिया बदन, और उजले पैर ।  आँखों से झाँकता गहरा आत्मविश्वास । अगले पैरों पर चेहरा टिकाए, सुकून के साथ झोपड़ी के बाहर बैठा हुआ था शेरू ।  

अभी मैं झुग्गी के सामने आकार खड़ा ही हुआ था  कि भीतर से एक आदमी निकला । शेरू को रोटियां देकर वह मेरी तरफ देखने लगा, मानो पूछ रहा हो- कौन हो, कहाँ से आए हो, क्या काम है ? मैने कहा-- एक बार शेरू को तुम्हारे साथ देखा था. तभी से पहचानता हूं.
- पर आपको इसका नाम कैसे मालूम ?
- नाम तो मुझे पता नहीं, बस शेर जैसा रंग देखा तो शेरू कह दिया । है न इसका रंग शेर जैसा ।
-आपका  अंदाज़ा ठीक निकला ।  इसका नाम शेरू ही है- कहते हुए वह आदमी मुस्कराने लगा ।   

- शेरू तुम्हें कहीं मिला था क्या ?  बात चीत जारी रखने के मकसद से मैने पूछा तो फीकी हंसी उसके होंठों पर तैर गई ।  बोला- लंबा किस्सा है, कहां तक सुनाऊं ?

कुछ याद करके कभी वह मुस्कराता, कभी उदास हो जाता. फिर जल्दी ही वह सामान्य हो गया और बताने लगा-

--- पहाड़ में रहते थे हम । नाव से लोगों को गंगा पार कराया करते थे।  उस रोज घाट से लौटते हुए रास्ते में यह मिला। मुश्किल से चार-पांच दिन का रहा होगा ।  आँखें भी पूरी तरह खुली नहीं थीं । लगातार रो रहा था ।  पता चला- इसकी मां को बाघ उठा ले गया है ।  पालने के मकसद से मैं इसे घर ले आया ।

-तब से यह तुम्हारे साथ है ?
-हां. पर एक दो बार शेरू से बिछड़ने की नौबत भी आई थी । गंगा पर बांध बनने से सैकड़ों गाँव डूब गए। हमारा गांव भी उनमें से एक था । गंगा का घाट, गाँव का घराट, घाटियों में बसे गांव, नीचे गधेरे तक फैले सीढ़ीदार खेत, चीड़, बांज, बुरांस व देवदार के जंगलों से ढके वे हरे  पहाड़, जहां हम घास, लकड़ी लेने जाया करते थे - सभी हमेशा के लिए गहरी झील में डूब गएहमें भेज दिया गया देहरादून के उस वीरान इलाक़े में, जहाँ की जमीन बिल्कुल बंजर थी। न कहीं पानी, न सड़क, जमीन में जहाँ खोदो  रेत ही रेत, पत्थर ही पत्थर ।
आखिर वह दिन आ ही गया कि जब पहाड़ छोड़ कर हमें अपने नए ठिकाने देहरादून आना पड़ा । शेरू को बस में जगह नहीं मिली । पर इसकी हिम्मत देखिये- देहरादून तक बस के पीछे भागता रहा ।   
हमारे साथ पहाड़  के कई और परिवार भी आकर बसे थे । पथरीली ज़मीन को उपजाऊ बनाने में बड़ी मेहनत करनी पड़ी । आस-पड़ोस के गाँवों के जानवर फसल उजाड़ने आते तो थे, पर  रखवाली शेरू के जिम्मे थी ।  पूस की ठंड हो या सावन-भादों की झड़ी, जेठ की दोपहर हो, या अंधेरी रात, क्या मजाल कि कोई जानवर खेत में घुस जाय ? शेरू अकेला ही उन्हें काट काट कर बेहाल कर देता खेतों से दूर खदेड़ देता ।

जिस रोज बेटी की शादी हुई, शेरू सवेरे से ही खामोश था । बारात जाने लगी तो कार के पीछे भागने लगा । मुझ पर भी भौंका । शायद कह रहा था कि बिटिया को ले जा रहे हैं । खड़े क्या हो ? रोकते क्यों नहीं ?

बच्चों के नाम पर एक बेटी ही थी । वह ससुराल चली गई तो अपना मन भी उठ गया ।  जी में आया कि सब कुछ बेच कर कहीं दूर चला जाऊं ।  सावित्री ने भी सलाह दी कि - सीधे बम्बई  चलते हैं ।  नई ज़िन्दगी वहीं शुरू करेंगे ।  

बात मुझे जंच गई । जब अपना पहाड़ छूट ही गया तो क्या देहरादून और क्या बम्बई । घर-बार बेच कर बम्बई जाने का पक्का फैसला कर लिया । दलाल मेरा इरादा भांप गए । चीलों की तरह मंडराने लगे । आखिर एक दिन सौदा हो गया ।    

          जितना भी पैसा मिला था- सारा  सावित्री के बैंक  खाते में जमा कर दिया । बस पंद्रह बीस हजार रास्ते के लिए अलग रख लिये. हफ्ते भर बाद बम्बई जाना था ।  घर, जमीन, गाय-बैल तो बिक गए थे पर शेरू का क्या होगा- यह बड़ा सवाल बाकी था। मेरी  इच्छा थी कि शेरू भी हमारे साथ बम्बई चले ।
सावित्री का कहना था - रहने देते हैं । कुत्ता ही तो है ।  लोग तो मतलब के लिए इन्सानों तक को छोड़ देते हैं ।
पत्नी  के विचार इतने नीच होंगे- मुझे उम्मीद न थी । शेरू पहाड़ से हमारे लिये दौड़ा आया? और अब हम उसे बेसहारा छोड़ दें ! मैने साफ कह दिया कि शेरू भी साथ चलेगा ।  

इस पर सावित्री तिलमिला कर  बोली- तुम्हें कुत्ता मुझसे भी ज़्यादा प्यारा है ? तो फिर ठीक है ।
कह कर वह भूखी ही सो गई थी.

अगले दिन बाजार के काम निपटा कर मैं घर लौटा तो अंधेरा था. दरवाज़े लापरवाही से खुले थे. चीज़ें यहां-वहां बिखरी पड़ी थीं. शेरू ज़मीन पर मुंह टिकाए उदास बैठा था. पड़ोसी से पता चला कि सावित्री उसी दलाल के साथ कहीं निकल गई थी, जिसने ज़मीन बिकवाई थी.-------

कहते कहते वह चुप हो गया. दर्द की रेखाएं उसके चेहरे पर गहरा गईं. मैने बात बदलते हुए  कहा--फिर क्या हुआ ?

-फिर होने को बचा ही क्या था? वह रुपए पैसे सब ले गई थी. मैं ठगा रह गया. सारे सपने चूर चूर हो गए. किसी को मुंह दिखाने लायक न रहा. मुझे लगा कि ये सब शेरू के कारण हुआ. सारा गुस्सा इसी पर उतरा. बहुत मारा इसे. यह रोता रहा. मार खाता रहा. पर भागा नहीं.
          रात को, मैने भी चुपचाप, घर छोड़ दिया. एक बार पीछे देखा- शेरू आ रहा था. सोचा, जब औरत ही छोड़ गई तो कुत्ता क्या साथ देगा. और जब साथ छूटना ही है तो कल क्या,  आज ही छूट जाए. मैने पत्थर मार कर उसे भगा दिया. थोड़ी देर बाद फिर पीछे देखा- यह आ रहा था.
दूसरी बार भगाने की हिम्मत न पड़ी. इसे साथ लिये, ट्रक पर बैठ कर बंबई को चल पड़ा. चौथे दिन हम दोनों दहिसर नाके पर उतरे.  

दोपहर का वक्त था. हवा में काफी उमस थी. दिमाग काम नहीं करता था कि - कहां जाऊं ? बड़ी हसरत से देखा सपनों के शहर को, जहां नई ज़िंदगी शुरू करने के ख्वाब पाले थे. क्या चाहा और क्या मिला -इसी उधेड़ बुन में पांव खुद ब खुद बढ़ गए, पता नहीं कहां से, कहां के लिए. शाम तक भटकता रहा. फिर थक कर बैठ गया. जहां बैठा, वहां और भी लोग थे, मेरी ही तरह लुटे-पिटे, ठगे गए. कोई पापी पेट भरने की जुगत में लगा था तो कोई सोने की तैयारी में था. उन्हें देख कर हिम्मत बढ़ी. मुझे लगा- मैं अकेला नहीं हूं. हालात के मारे दुनियां में और भी हैं.

पास के झुणका भाखर से खाना लिया. पेट की आग बुझाई. फिर सड़क पर ही लेट गए दोनों. नींद कब आई- पता ही न चला. सुबह फिर वही दिनचर्या. सड़कों पर बेवजह भटकना. रात को फुटपाथ  पर सो जाना. न कोई उमंग, न कुछ करने की इच्छा. जेब खाली हो गई. फाके पड़ने लगे. एक दिन पेट की आग बेकाबू हुई तो हाथ फैलाने को जी चाहा. पर तभी एक सवाल भीतर से उठा-- मांगता क्यों है ? हाथ पैर नहीं हैं क्या ?

 उसी दिन से काम खोजने लगा. यहां से गुजर रहा था. देखा- कॉलोनी बन रही है. काफी लोग काम पर लगे थे. मुझे भी दिहाड़ी पर काम मिल गया. ये झोंपड़ी भी बना ली.

तो बाबू जी, इस तरह एक तूफान, जो मेरी  ज़िन्दगी में उठा था-वक्त के साथ धीरे-धीरे थमने लगा. पुराने जख्म भरते रहे. 'पीठ पर लदे ज़िन्दगी के वेताल' को मैं फिर ढोने लगा’-कह कर वह कुछ देर ठहर गया। फिर धीरे धीरे बोला-
कुछ अरसे के बाद मैने गौर किया कि शेरू के बर्ताव में फर्क आ रहा था. कभी वह बेचैन हो जाता. कभी मुंह उठा कर कुछ सूंघने लगता, जैसे किसी जानी पहचानी गंध की टोह ले रहा हो. कभी वह कुनकुनाने लगता, जैसे कुछ याद करके रो रहा हो. कभी अचानक कहीं देखने लगता.

           अभी पिछले हफ्ते की बात है. सवेरे से ही बादल छाए थे. रुक रुक कर बारिश हो रही थी. तभी ये भौंकता हुआ तेज़ी से भागा. आम तौर पर शेरू  ऐसा नहीं करता था. मैं भी पीछे -पीछे गया. देखा- एक औरत की धोती  खींच कर यह झोंपड़ी की तरफ ला रहा था. पहचानने की कोशिश की तो आंखों पर यकीन नहीं हुआ. वह औरत और कोई नहीं, सावित्री थी. तार तार हो गए मैले कपड़े, उलझे, बेतरतीब बाल, गहरी, धंसी आंखें, सूख कर कांटा हुआ मैला बदन, खपच्चियों से पतले हाथ, जिन पर उभरी रस्सियों सी मोटी-मोटी नसें- साल भर में ही क्या हालत हो गई थी उसकी !

मेरी तरफ पीठ करके वह फूट फूट कर रोने लगी. नफरत तो बहुत हुई, गुस्सा भी बहुत आया, पर क्या करूं? पुराने रिश्ते इतनी जल्दी भुलाए भी तो नहीं जा सकते. फिर परदेस की बात थी. आंसू पोंछे. चुप कराया. समझाया कि - अब मिट्टी डाल दे. गलती जिसकी भी थी, हो गई तो हो गई। सोच ले -उस रोज मर गई थी तू. आज शेरू ने तुझे दूसरा जनम दिया है.
          ---- शेरू के केसरिया, झबरीले बालों को प्यार से सहलाते हुए वह एक बार फिर खामोश हो गया. उसके मुँह की तरफ टकटकी लगाए मैं इंतज़ार करता रहा. मुझे उम्मीद थी कि कुछ रुक कर वह फिर बोलेगा. लेकिन वह खामोश ही बैठा रहा. शायद कहने को कुछ बचा भी नहीं था.

बस एक बार नज़रें उठा कर उसने मुझे देखा. बहुत कुछ कह रही थी उसकी आँखों की गहराई।  कुछ देर वह मुझे देखता रहा. फिर चुपचाप, काम पर चल पड़ा. उसके पीछे थी सावित्री और सबसे पीछे था शेरू.

मैं देर तक देखता रहा शेरू को, जो दोनों के पीछे, पूंछ हिलाता, बड़ी शान से इठलाता चला जा रहा था.
(समाप्त) 
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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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