खूनी बंदगी

       
छोटे बच्चे,
वाकिफ नहीं थे जो किसी भी बंदगी  से ।
उन्हीं बेफिक्र मासूमों का
पिता था मैं ।  
कुछ और भी मेरी तरह के बदनसीब
खूंटों पर बंधे थे आस-पास
दुधमुहें मासूम नन्हें लाड़लों, संबंधियों  के साथ  ।
 ढल गई जब सांझ काली रात आई ।
फिर रात भी ढलने लगी ।
पौ लगी फटने ।
लगा होने
खून से तर सामने का आसमान ।
तभी आहट हुई कुछ द्वार पर ।
घूम कर देखा ।
लाल आंखें  हाथ में एक तेज़ खंजर
मुट्ठियां भींची हुईं ।
वह पास आया ।
खोल कर खूंटे से मुझको खींच ले जाने लगा ।
मासूम बच्चे रो रहे थे, मांगते थे भीख मालिक से ।
रस्सी तुड़ा कर साथ आने की मशक्कत कर रहे थे ।
खींच कर बंदा मुझे ले जा रहा था ।
मासूम बच्चों को बिलखता छोड़ कर
मैं नहीं जाना चाहता था ।
पर नहीं वह संगदिल बंदा पसीजा ।
तिल तिल  रेतकर
तड़पा तड़पा कर चीर डाला मेरे जिंदा जिस्म को
बंदगी के नाम पर 
 

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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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