छोटे बच्चे,
वाकिफ नहीं थे जो किसी भी बंदगी
से ।
उन्हीं बेफिक्र मासूमों का
पिता था मैं ।
कुछ और भी मेरी तरह के
बदनसीब
खूंटों पर बंधे थे आस-पास
दुधमुहें मासूम नन्हें
लाड़लों, संबंधियों के साथ ।
ढल गई जब सांझ काली रात आई ।
फिर रात भी ढलने लगी ।
पौ लगी फटने ।
लगा होने
खून से तर सामने का आसमान
।
तभी आहट हुई कुछ द्वार पर
।
घूम कर देखा ।
लाल आंखें हाथ में एक तेज़ खंजर
मुट्ठियां भींची हुईं ।
वह पास आया ।
खोल कर खूंटे से मुझको
खींच ले जाने लगा ।
मासूम बच्चे रो रहे थे, मांगते थे भीख मालिक से ।
रस्सी तुड़ा कर साथ आने की
मशक्कत कर रहे थे ।
खींच कर बंदा मुझे ले जा
रहा था ।
मासूम बच्चों को बिलखता
छोड़ कर
मैं नहीं जाना चाहता था ।
पर नहीं वह संगदिल बंदा
पसीजा ।
तिल तिल रेतकर
तड़पा तड़पा कर चीर डाला
मेरे जिंदा जिस्म को
बंदगी के नाम पर
·
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