सेज़ और सूली ! हैं न दो बिल्कुल उल्टी बातें ! सेज़, यानी बिस्तर. मखमली अहसास
! लेटते ही सारे दुख दर्द भूल जाए इंसान.और सूली ! ज़मीन पर गड़ा लोहे का खंबा, जो
ऊपर से सुई की तरह पैना है. सुई की नोक पर
बैठने या लेटने की कल्पना ही कितनी खौफनाक है ! मगर कबीर कह रहे हैं तो इंकार भी नहीं किया जा
सकता.
इस व्यंग्य के खत्म होते न होते हम इस नतीजे पर शायद पहुंच ही जाएं कि सूली
के ऊपर सेज़ बन सकती है या नहीं ?
बात शुरू की जाए ऐसे लोगों से, जो हर बात को -अच्छे और बुरे, दोनो कोनों से
देखने के आदी होते हैं. ये नहीं कि बस गुडी गुडी देखा और ले लिया डिसीज़न. मान लो
आप की भैंस पानी में जा बैठी और बाहर आने के बिल्कुल मूड में नहीं है तो 'ऐसे लोग'
फौरन कहेंगे-
अरे हमने तो पहले ही कहा था मत खरीदो भैंस. मगर माने कहां ? अपनी ऐंठ पर
रहे. ले आए पूरे तीस हजार की. चलो ले ही आए थे तो भूरी लाते. मगर आप लाए निपट
स्याह. भुगतो अब बेटा.
किसी का बच्चा फेल हुआ तो कहेंगे-
अरे हमने तो पहले ही देख लिये थे इस लौंडे के लच्छन. कहा भी था मत बरबाद
करो पैसे.चिपका दो किसी गैराज में. चार पंचर भी लगाएगा दिन भर, तो पेट तो पाल
लेगा. मगर नहीं माने. अब चूसो बेटा. गांठ का पैसा गया.साल बरबाद हुआ. चार के बीच
नाक कटी सो अलग.
ऐसे मीन-मेख टाइप जंतु एसईज़ेड नामक महा क्रांतिकारी विचार को भी नहीं
बख्शते. अगर आपने गलती से एसईज़ेड की तारीफ उनके आगे कर दी तो आपकी खैर नहीं. फौरन
पलट कर जवाब देंगे-
अजी एसईज़ेड तो आड़ है आड़. असली इरादा तो ज़मीन हड़पने का है. किसकी इंडस्ट्री
? कैसा विकास ? बस, मौके की ज़मीनें देखीं और भेज दिया एसईज़ेड का प्रस्ताव. सरकार तो विकास के लिये पहले ही कमर कसे बैठी
थी. प्रस्ताव आते ही बहस हुई. मामूली नोक-झोक के बाद प्रस्ताव पास हो गया.
प्रस्ताव एसईज़ेड का क्या पास हुआ, प्रस्ताव हजारों किसानों का उनकी ज़मीनों से बेदखली का पास हो गया.
मान लो आप तर्क देते हैं- कि भई एसईज़ेड बनेगा तो कई रोज़गार भी तो पैदा
होंगे. जो उजड़ेंगे, उन्हें नौकरियां भी तो मिलेंगी.
इस नहले पर ये मीन-मेख टाइप लोग दहला मारेंगे-
अजी ये नौकरी वौकरी की बातें सब आइ-वाश हैं. धोखा हैं. गांव में कितने
किसानों के बच्चे इंजीनियर होते हैं ? कितने डिप्लोमा होल्डर, कितने आइटीआइ होंगे
? जाहिर सी बात है -कोई छोटा-मोटा काम ये पूंजीपति एसईज़ेड पर शुरू करते भी हैं तो
स्किल्ड लेबर (कार्य-कुशल श्रमिक) तो उन्हें बाहर से ही लानी पड़ेगी. गांव के नौजवानों के हिस्से
में क्या आएगा ? ज्यादा से ज्यादा मज़दूरी और चौकीदारी ! जो कल तक अपनी ज़मीनों के
मालिक थे, उनमें से कोई तुम्हारे हुकुम के
गुलाम बनेंगे. कोई चले जाएंगे शहरों में, बिताएंगे फुटपाथ पर सारा जीवन. कुछ जाकर
बसेंगे कहीं और. उनके बच्चे झेलेंगे दर्द विस्थापन का. कई गांवों को, सैकड़ों
परिवारों को उजाड़ कर, किसका विकास करना चाहते हैं आप ? एक शांत तालाब में आपका ये
एसईज़ेड का पत्थर कितनी अशांत लहरें पैदा कर
देगा- क्या इस नज़रिये से भी देखा है आपने कभी?
मुझे पता है आप कहेंगे- एसईज़ेड बनने से इलाके की ज़मीनों के भाव आसमान पर
पहुंच जाएंगे. इसका फायदा आखिर किसको मिलने वाला है ? किसान को ही न !
आपको जवाब मिलेगा - अजी गेहूं के साथ एकाध घुन तो पिस ही जाता है. सौ में
से निन्यानबे पैसे फायदा तो तुम्हारे एसईज़ेड वाले को ही होगा, जो औने पौने दामों
में किसानों की रोज़ी रोटी खरीद कर रख लेगा. फिर छोटा मोटा कारखाना लगा कर बाकी
ज़मीन डवलप करके निकाल देगा सौ गुनी कीमत पर. कोर्ट-कचहरी, संसद, पुलिस -सभी उसके
रास्ते के कांटे साफ करने में जुट जाएंगे. दूध में से मक्खी को भी लोग इंसानियत से
निकालते हैं, मगर गांव वालों को तो ऐसे खदेड़ा जाता है, जैसे सारी धरती इन विकास
पुरुषों के बाप की हो. किसानों की तो कुछ है ही नहीं. क्यों नहीं बदले गए भूस्वामित्व कानून
आज़ादी के बाद? वही अंग्रेज़ों के ज़माने के कानून क्यों चले आ रहे हैं ? अमेरिका की
नकल करते हो तो अमेरिका का भूसंपत्ति कानून भी लाओ तो मानें. वहां ज़मीन का मालिक
किसान ही है, न कि सरकार. ज़मीन के नीचे भी
जो कुछ निकलता है- वह ज़मीन के मालिक का ही होता है. और आपके यहां ? कच्चा तेल
निकला तो वो आपका नहीं, कोई खान निकली तो
वो आपकी नहीं, कोई गड़ा धन निकला तो वो भी आपका नहीं. और अब तो ये ज़मीन भी आपकी
नहीं . जब चाहा, विकास के नाम पर बिचौलिये की तरह दिलवा दी पूंजीपति को. ये कैसा
लोकतंत्र है ? आप का हाथ आखिर किसके साथ है ?
आप कहते हैं -
नहीं यार , ऐसा नहीं है. अभी इस देश में थोड़ी बहुत इंसानियत ज़िन्दा है.
लोकतंत्र का चौथा खंबा यानी पत्रकार आज भी निष्पक्ष है. अगर किसान के साथ कोई
ज़्यादती हुई तो वह खुल कर सामने आ जाएगा.
इस पर ये मीने-मेख टाइप लोग कहेंगे-
अगर ये चौथा खंबा ही मज़बूत होता तो फिर रोना किस बात का था. ये खंबा पपीते
का तना है जनाब. देखने में बड़ा मज़बूत. मोटा. मगर असल में ! एक दम कमज़ोर. ज़रा सा
इशारा कीजिये, टूट जाएगा. विदर्भ में
कितने किसानों ने आत्महत्या की, किसी पत्रकार ने, किसी चैनल वाले ने दिखाया कुछ?
और मंत्री को जुकाम आ जाय तो सारे चैनल वाले उनके बंगले के बाहर टूट पड़ेंगे ! किसी
'बिग बी' ने जरा सा मुंह खोल दिया तो कई दिन तक उसी पर चर्चा चलती रहेगी. सनसनी
फैलाने के अलावा इस चौथे खंबे ने किया ही क्या है ? पोंछे किसी बेबस के आंसू ? बना
किसी गूंगे की आवाज़ ?लाचार द्रौपदी की तरह हिन्दुस्तान के किसान की आखिरी
अस्मिता-उसकी ज़मीन भी छीनी जा रही है. और आप ! खामोश हैं ! गर्दन झुकाए टुकुर
टुकुर देख रहे हैं ! भीष्म पितामह जैसा नपुंसक राजधर्म निभा रहे हैं ! खड़े हैं दुर्योधन
के, दु:शासन के और अंधे धृतराष्ट्र के साथ ! कामना करते हैं पांडवों की जीत की !
क्या ये दोगलापन द्रौपदी की लाज बचा पाएगा ?
कहने का मतलब यही है कि एसईज़ेड जैसी पवित्र भावना पर, विकास की इस गंगोत्री
पर भी कीचड़ उछालने से ये बाज नहीं आते. ये मीन-मेख टाइप लोग होते ही खोटे हैं.
हो सकता है आप एक बार फिर कोशिश करें ज़मीन छीनो अभियान को बचाने की. कोशिश
करें किसानों के उज़ड़ने को सही ठहराने की. तो इनका जवाब होगा-
मना किस बेवकूफ के बच्चे ने किया है ? करो
न विकास ! 10% से ऊपर ले जाओ न ग्रोथ रेट. किसने बांधे हैं तुम्हारे हाथ ?
बहुत पड़ी है बंजर ज़मीन सरकार के पास. करो उसे डवलप. खींचो बाहर से विदेशी मुद्रा !
नई रचना करो. नया निर्माण करो. मगर उस गरीब के पीछे क्यों पड़ते हो जिसके पास कई
पीढियों से चला आ रहा ज़मीन का एक मात्र टुकड़ा ही बचा है - बाप-दादों की निशानी.
जिस पर टिका है उसका समूचा अर्थ तंत्र. जहां रहता है वह अपने समाज के साथ, अपनी
परंपराओं के साथ. जहां जीता है वह अपने
विश्वासों के साथ, अपने स्वाभिमान के साथ.जहां रहता है वह खुश, रूखी सूखी खा कर
भी. तुम तो जीते ही हो, उन्हें भी जीने दो न ! क्यों करते
हो मजबूर उन्हें आन्दोलन के लिये. ये देश
उनका भी तो है.
लेकिन अगर इरादा सिर्फ ज़मीनें हथिया कर ऊंचे दाम पर बेचना है तो फिर आप क्यों सुनने लगे कुछ और ? तब तो आप चाहेंगे-
ये ज़मीन छीना जाना लॉ एंड ऑर्डर की सिचुएशन बने. प्रशासन को दखल देने का मौका
मिले. विदेशी हाथ, विदेशी जड़ें भी दिखाई देनें लगें तो और भी अच्छा. कौन चक्कर में
पड़े बंज़र ज़मीनें डवलप करने के ! शहरों से सटे गांव सबसे बढ़िया हैं सेज़ के लिये.
सारी सुविधाएं वहां पहले से ही मौज़ूद हैं. लैंड पर कब्ज़ा होते ही आप वहां एअरपोर्ट
ले ही आएंगे. ट्रेन, हाइवे, मेट्रो वगैरह वहां तक पहुंचने में वक्त भी कुछ ज़्यादा
नहीं लगेगा. बैंक अस्पताल, होटल, बाज़ार -सब कुछ आजू-बाजू तो है ! मज़ा आ जाएगा.
सबको दे दिला कर भी पैसा सौ गुना तो एक ही झटके में हो जाएगा. फिर दूर, बंज़रों में
जाकर सिर खपाने की क्या ज़रूरत ?
अब बताइये- कहां तो सेज़ जैसी पवित्र , विकास की भावना- और कहां हमारे इन आलोचक बंधुओं की घिनौनी सोच ? क्या ये कुत्ते की पूंछ जैसी हालत नहीं बन गई ?
सौ साल भी बांस की नली में घुसेड़ कर रखो, फिर भी टेढ़ी की टेढ़ी !
सूली पर लटका कर रख दिया है बेचारे इन्वेस्टर को ! कोई बात है भला ? एक तो
अगला पैसा लगाए, कई लोगों के घर में दिये जलने का कारण बने, शेयर बाज़ार को पटरी पर
लाने की जुगत करे, ऊपर से आप उसमें दुर्योधन, दु:शासन, देखें ! अरे ऐसे विकास
पुरुष ज़मीनें तो क्या आपसे बदन की हड्डियां भी मांगें तो आपको सोचना नहीं चाहिये,
सीधे हड्डियां उखाड़ कर दे देनी चाहियें. आखिर देश के विकास का सवाल है न ! और आप
देश से बाहर तो नहीं.
जब-जब भी देश को ज़रूरत पड़ेगी तब तब आपको अपना सब कुछ देश पर लुटाना पड़ेगा.
जब देश है, तभी हम हैं.मगर एक बात का हमेशा ध्यान रखें. आपको देश को देने का ही
अधिकार है. देश से लेने का कोई अधिकार आपके पास नहीं है. इसलिए कभी कुछ मांगियेगा
मत, वरना देश को टका सा जवाब देने पर मजबूर होना पड़ेगा. आपकी इंसल्ट हो जाएगी.
अब आप खुद देखिये -ये सेज़ क्या वाकई सूली के ऊपर नहीं बनी है ? कितनी टेंशन
हैं ? ज़मीनों में से जरा सा माल निकालने की कोशिश क्या की कि ये आलोचक टाइप लोग तो
चिपक ही गए. छूट कर ही नहीं देते ! फेवीकोल का जोड़ ही हो गए ये तो !
व्यंग्य के इस आखिरी दौर में आते आते हमें अंदाज़ा हो गया है कि पिया की सेज़ होती मखमली ही है,
क्योंकि सूली पर तो किसान होता है. सूली के साथ साथ लाठियों की, कोर्ट कचहरियों
की, नेताओं के धोखे की, पुलिस की गोलियों की जो कुछ भी दर्द , पीड़ा, है वह तो
किसान की नश्वर देह अपने ऊपर झेल ही लेती है. उसके बाद आते हैं पिया, और आकर लेट
जाते हैं मखमली सेज़ पर.
यानी कि सूली पर सेज़ मुमकिन है.
कबीर कल भी सच थे, कबीर आज भी सच हैं. और हो सकता है आने वाले कल में भी वह सच
साबित हों.
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