पतझड़


     

पतझड़ में कितना उदास था गुलमोहर !
नागफनी के तीखे लम्बे कांटों जैसी
 मटियाली सी खाली खाली सूनी डालें
कहां घोंसले बन पाते ऐसी डालों पर !
दूर दूर तक नहीं कहीं चिड़ियों का कलरव
दृष्टि झुकाए जटा जूट बिखराए मानो
हो समाधि में लीन प्राणयोगी वह कोई
कृष्ण पक्ष की काल रात्रि सी  नीरवता में
या शव साधन में निमग्न वैतालिक कोई
रूप रंग और स्वाद गंध से असंपृक्त
या फिर कोई निर्मोही सन्यासी जोगी
या राजदंड से भयाक्रांत अपराधी कोई ।


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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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