वैसे तो मृदा प्रदूषण ( Soil pollution ) जल प्रदूषण (Water pollution ) तथा वायु प्रदूषण (Air pollution) सभी प्राणियों के लिए बेहद खतरनाक होते हैं लेकिन इन तीनो मे सबसे अधिक हानिकारक वायु प्रदूषण है. क्योंकि सभी सांस लेने वाले प्राणी इसी एक मात्र वायुमंडल मे सांस लेते हैं. यदि वायु मे कोई विषाणु मौजूद है तो वह सभी को प्रभावित करेगा जबकि जल प्रदूषण सिर्फ उनको प्रभावित करेगा जो प्रदूषित स्रोत के जल का प्रयोग कर रहे हैं. इसी तरह मृदा प्रदूषण का कार्य क्षेत्र भी उस भूभाग तक ही सीमित है जहां यह प्रदूषण पैदा हुआ है .
तो वायु प्रदूषण के विस्तृत प्रभाव क्षेत्र को देखते हुए सबसे पहले इसी पर ध्यान देना जरूरी हो जाता है.
आज हम मानव विकास के शायद सर्वाधिक विकसित दौर से गुजर रहे हैं . विकास की इस अंधी दौड़ मे हमने प्रकृति के साथ जितना अमानवीय व्यवहार किया है उतना मानव इतिहास मे शायद पहले कभी न हुआ होगा. खतरनाक कीटनाशकों के प्रयोग से मिट्टी मे बहुत ज़्यादा प्रदूषण हुआ है. परमाणु बमों के परीक्षणों से भी मिट्टी मे रेडियो धर्मिता बहुत ज्यादा बढ़ी है. यही हाल जल का है. चमड़े के कारखानों का बेहद प्रदूषित पानी सीधे नदियों मे बहाया जाता है. केमिकल फैक्ट्रियों से निकलने वाला जहरीला पानी भी अंतत: नदियों मे ही जाता है. शहरों , महानगरों के सीवर भी आखिरकार नदियों मे ही छोड़े जाते हैं . इसका नतीजा क्या होता है ? नदियों के उसी प्रदूषित पानी को साफ करके हम पीते हैं . लेकिन क्या यह पेयजल उतना साफ होता है जितना हमे स्वस्थ रहने के लिए चाहिए ? नहीं. यह साफ किया हुआ पानी नैसर्गिक स्वच्छ पानी जितना साफ नही हो सकता. यह हमारे स्वास्थ्य के साथ न्याय नही कर सकता. क्या पेट संबंधी ज्यादातर बीमारियों के लिए यही प्रदूषित जल जिम्मेदार नहीं है ? हां ! बढ़ती आबादी की प्यास बुझाने मे यह तथाकथित स्वच्छ पानी हमारी मदद जरूर करता है.

लेकिन मृदा प्रदूषण तथा जल प्रदूषण से भी ज्यादा भयानक है वायु प्रदूषण. मिट्टी का प्रदूषण सबसे कम खतरनाक इसलिए है कि इस प्रदूषण मे गति नही है . यह जहां पैदा हुआ है वहीं के प्राणियों को नुकसान पहुंचा सकता है. जल प्रदूषण मे गति तो है लेकिन यह गति या तो रैखिक(linear or one dimensional) है या फिर क्षेत्रीय (Planer or two dimensional).जाहिर है कि जल का प्रदूषण भी अधिक से अधिक एक सीमित क्षेत्र मे ही दुष्प्रभाव डाल सकता है. लेकिन वायु अगर दूषित हो गई तो वह तीनो आयामों (Three dimensions) मे प्रभाव डालेगी. हमारे प्राचीन साहित्य की शब्दावली मे इस बात को इस तरह कहा जाएगा - असुरों ने मरुत देवता की सेना का अपहरण करके तीनो लोकों - आकाश पाताल और मृत्युलोक मे भीषण उत्पात मचाया. देव दानव तथा मानव सभी इस भयंकर आक्रमण के शिकार हुए. रणक्षेत्र लाशों से पट गया. मनुष्य ही नहीं पशु पक्षी भी इस अप्रत्याशित हमले से बच न सके. यहां तक कि वृक्ष तथा औषधियां भी असुरों के उस भयानक हमले से नष्ट हो गए.
ऐसे अनेक दृष्टांतों से हमारे पौराणिक ग्रंथ भरे पड़े हैं . ये उल्लेख हमे वायु प्रदूषण की गम्भीरता बताते हैं लेकिन हमने कब इन पर ध्यान दिया? कभी किसी ने इन ज्वलंत मुद्दों पर कुछ कहा भी तो उसकी आवाज़ नक्कारखाने मे तूती की आवाज़ की तरह दब कर रह गई.
गहराई से देखें तो मृदा तथा जल प्रदूषण वायु प्रदूषण के उपचार से स्वत: ही ठीक हो जाते हैं . लेकिन यह उपचार कैसे किया जाय ?
यहां पर यजुर्वेद हमारा मार्ग दर्शन करता है. यजुर्वेद चार वेदों मे से एक है जिसका संबंध मुख्यत: यज्ञ से है. यज्ञ वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा हमारे पूर्वज वायु प्रदूषण को उपचारित करते थे. यह उपचार अग्नि मे कुछ विशिष्ट पदार्थों तथा औओषधियों का हवन करके संपन्न किया जाता था. प्राचीन मनीषियों ने अपने अनुभव से जाना कि प्रदूषित वायु न केवल श्वास के माध्यम से हानि करती है बल्कि यह वर्षा के जल को भी दूषित करती है. दूषित जल की वर्षा मृदा को भी प्रदूषित करती है. दूषित वायुमंडल मेघों मे संचित जल को भी दूषित कर देता है. जब यह दूषित जल वर्षा के रूप मे बरसता है तो मिट्टी तथा वनस्पतियों को भी हानि पहुंचाता है. अम्लीय वर्षा (Acid rain) इसका ज्वलंत उदाहरण है. सल्फर डाइ ऑक्साइड गैस जब वायु मे अधिक हो जाती है तो यह मेघों के जल के साथ मिल कर सल्फोनिक अम्ल (H2SO3) का निर्माण करती है. यह वर्षा अम्ल वर्षा कहलाती है. यह जिस मिट्टी पर गिरती है, जिन फसलों या वनस्पतियों पर गिरती है उन्हें भी प्रदूषित कर देती है. पृथ्वी की उर्वरा शक्ति क्षीण होने लगती है. वनस्पतियों तथा फसलों के गुण-धर्म बदलने लगते हैं.
वायु मंडल की कार्बन डाइ ऑक्साइड तथा कार्बन मोनो आक्साइड भी पानी मे घुल कर एक अन्य अम्ल बनाती हैंं ( H2CO3).यह अम्लीय वर्षा भी उतनी ही हानिकारक होती है .
वायु के प्रदूषण का यह स्वरूप तो स्थूल है. सूक्ष्म रूप मे भी वायु प्रदूषित होती है. अनेक घातक विषाणु भी वायु मे उत्पन्न हो जाते हैं. वायु प्रवाह के साथ ये भी पूरे भूमंडल पर फैल जाते हैं. क्योंकि वायु देशों या महाद्वीपों की सीमाओं मे कैद नही की जा सकती.
वायु को इन जंतुघ्नों (viruses) से मुक्त करने से मानवता का कितना उपकार हो सकता है - इसकी कल्पना हम आसानी से कर सकते हैं.
यज्ञ न केवल वायु जल व मृदा प्रदूषण ही नष्ट नही करता बल्कि इन सूक्ष्म विषाणुओं को भी नष्ट करता है. यजुर्वेद के दूसरे अध्याय के सोलहवें मंत्र का उदाहरण प्रस्तुत है:
वसुभ्यस्त्वा रुद्रेभ्यंस्त्वादित्येभ्यंस्त्वा संजानाथां द्यावापृथिवीमित्रावरुणौ त्वा वृष्ट्यावताम । व्यंतुवयोक्त रिहाणा मरुतां पृषतीर्गच्छ वशा पृश्निर्भूत्वा दिवगच्छ तत्ओऊर्नू वृष्टिमावह । चक्षुष्पाअग्नेसि चक्षुर्मे पाहि ॥16॥
शब्दार्थ- हम लोग वसुभ्य: = अग्नि आदि आठ वसुओं से त्वा=उस यज्ञ को तथा रुद्रेभ्य: =पूर्वोक्त एकादश रुद्रों से त्वा= पूर्वोक्त यज्ञ को और आदित्येभ्य: = बारह महीनों से त्वा= उस क्रिया समूह को नित्य उत्तम तर्कों से जानें और यज्ञ से ये द्यावापृथिवी = सूर्य का प्रकाश और भूमि संजानाथाम= जो उनसे शिल्प विद्या उत्पन्न हो सके , उनके सिद्ध करने वाले हों और मित्रावरुणौ = जो सब जीवों का बाहर के प्राण और जीवों के शरीर मे रहने वाला उदान वायु है, वे वृष्ट्या= शुद्ध जल की वर्षा से त्वा= जो संसार सूर्य के प्रकाश और भूमि मे स्थित है , उसकी अवताम= रक्षा करते हैं । वय: जैसे पक्षी अपने अपने ठिकानों को रचते हैं और व्यंतु= प्राप्त होते हैं , वैसे उन छंदों से रिहाण:=पूजन करने वाले हम लोग त्वा= उस यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं और जो यज्ञ मे हवन की आहुति पृश्नि: = अंतरिक्ष मे स्थिर और वशा= शोभित भूत्वा= होकर मरुताम= पवनों के संग से दिवम=सूर्य के प्रकाश को गच्छ: =प्राप्त होती है , वह तत:= वहां से न: = हम लोगों के सुख के लिए वृष्टिम =वर्षा को आवह: = अच्छी तरह बरसाती है, उस वर्षा का जल पृषती:= नाड़ी और नदियों को प्राप्त होता है । जिस कारण यह अग्नि चक्षुष्पा :=नेत्रों की रक्षा करने वाला असि = है , इससे मे= हमारे चक्षु (बाहरी व भीतरी )नेत्रों के विज्ञान की पाहि= रक्षा करता है।
भावार्थ -- मनुष्य लोग यज्ञ मे जो आहुति देते हैं वह वायु के साथ मेघ मंडल मे जाकर सूर्य से खिंचे हुए जल को शुद्ध करती हैं. फिर वहां से वह जल पृथिवी मे आकर औओषधियों को पुष्ट करता है. वह आहुति वेदमंत्रों से ही करनी चाहिए , क्योंकि उसके फल को जानने मे नित्य श्रद्धा उत्पन्न होती है . जो यह अग्नि सूर्य रूप हो कर सबको प्रकाशित करता है , इसी से सब दृष्टि व्यवहार का पालन होता है > ये जो वसु आदि देव हैं , इनसे विद्या के उपकार पूर्वक दुष्ट गुण तथा दुष्ट प्राणियों को नित्य निवारण करना चाहिए , यही सबका पूजन अर्थात सत्कार है.
यजुर्वेद के बारहवें अध्याय के तीसवें मंत्र मे औषधियों के हवन का लाभ बताया गया है :
समिधाग्निं दुवस्यत गृतैर्बोधयतातिथिम । आस्मिन्हव्या जुहोतन ॥30॥
शब्दार्थ - हे गृहस्थो! तुम लोग जैसे समिधा= अच्छे प्रकार के इंधनों सेअग्निम= अग्नि को प्रकाशित करते हैं , वैसे उपदेश करने वाले विद्वान पुरुष की दुवस्यत= सेवा करो और जैसे सुसंस्कृत अन्न तथा घृतै: = घी आदि पदार्थों से अग्नि मे होम करके जगदुपकार करते हैं वैसे अतिथीम= जिसके आने जाने के समय का नियम न हो उस उपदेशक पुरुष को बोधयत =स्वागत उत्साहादि से चैतन्य करो और अस्मिन= इस जगत मे हव्या= देने योग्य पदार्थों को आजुहोतन=अच्छी प्रकार दिया करो.
भावार्थ- मनुष्यों को चाहिये कि सत्पुरुषों की ही सेवा और सुपात्रों को ही दान दिया करें , जैसे अग्नि मे घी आदि पदार्थों का हवन करके संसार का उपकार करते हैं वैसे ही विद्वानों मे उत्तम पदार्थों का दान करके जगत मे विद्या और अच्छी शिक्षा को बढ़ा कर विश्व को सुखी करें.
इस ब्लॉग का समापन करते हुए मुझे यही कहना है कि कोरोना से संघर्ष के इस दौर मे यदि हम अपने गौरव शाली अतीत की तरफ भी दृष्टिपात कर लें. हो सकता है आधुनिक चिकित्सा के विकल्प न सही सहायक उपायों के तौर पर ही सही हवन हमारे वायु प्रदूषण के स्तर को कम कर सके. समिधा के तौर पर हम शुद्ध गाय का घी, तिल जौ, नारियल, गुड़, गिलोय, पीपल आम की सूखी लकड़ियों जटामांसी, गुग्गुल, कपूर लोभान आर्टीमेसिया हरड़ बहेड़ा आंवला, सुपारी आदि पदार्थों का प्रयोग कर सकते हैं.
ये सभी चीजें दुकान पर तो मिलती ही हैं हमारे आस पास भी प्राकृतिक रूप मे मिल जाती हैं. मैने ऐसे तीन चार हवन स्वयं किये हैं. अभी और भी करूंगा. मुझे स्पष्ट रूप से वायु में सुखद परिवर्तन का अनुभव हुआ है.
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